लेखनी पर लगाम (Ban on Salman Rushdie՚s Book - Back in News - Essay in Hindi)

प्रस्तावना:-साहित्य समाज का दर्पण होता है। सामयिक परिदृश्य को सामने रखता है। सियासत और साहित्य के बीच कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम ने सलमान रश्दी की किताब द सेटेनिक वर्सेज पर पाबंदी के 27 साल बाद, इसे गलती मानकर नई बहस का मुखड़ा लिख दिया है। चिदंबरम जब तक केंद्र में कद्दावर मंत्री रहे। उन्हें अपनी गलती का अहसास नहीं हुआ। अब राग स्वीकारोक्ति छेड़ रहे हें। साहित्य कब सत्ता के लिए खतरनाक हो जाता है और कब सरस? इस मामले में एनडीए सरकार क्या पूर्ववर्ती सरकार की गलती सुधारेगी? क्या इससे प्रतिबंध की सियासत पर लगाम लग पाएगा।

कांग्रेस:- अग्रेंजी के मशहूर उपन्यासकार सलमान रश्दी की कृति 27 पहले राजीव गांधी सरकार ने प्रतिबंध लगाया था। कांग्रेस की मनमोहन सरकार में पूर्व वित्तमंत्री रहे पी. चिदंबरम ने ढाई ढशक से भी ज्यादा समय गुजरने के बाद राजीव गांधी सरकार के सेटेनिक वर्सेज पर प्रतिबंध लगाने के फेसले को गलत बताकर एक नया विवाद खड़ा कर दिया है। कांग्रेस सरकार ने इस तरह की ओर भी कई ऐतिहासिक गलतियों को अंजाम दिया है।

कांग्रेस ने इस देश को हमेशा जड़ बनाए रखने की कोशिश की है। वह नए या अलग विचारों का स्वागत करने की बजाए उसपर हमेशा प्रतिबंध लगाने पर आमादा रही है। कांग्रेस के लिए अगर ये कहा जाए कि असहिष्णुता को जन्म देने और उसे वैद्यता प्रदान करने में कोई कसर नहीं होगी। सलमान रश्दी की किताब पर अगर कांग्रेस ने प्रतिबंध नहीं लगाया होता तो शायद इस किताब के बारे में इतनी बड़ी आबादी को पता भी नहीं चलता। इतने बड़े पैमाने पर उसकी खरीद भी नहीं होती है। प्रतिबंध का मकसद किसी भी चीज को अंधेरे में धकेलना या उसे छिपा कर रखना होता है, लेकिन इसके उलट यह किताब ज्यादा लोगों के हाथ पहुंची। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम को अब यदि किताब पर प्रतिबंध लगाना गलत लगा है, तो वे सही सोच रहे हैं। लेकिन, उनके प्रतिबंध को गलत बताने की बात पर कांग्रेस के दूसरे नेता हायतौबा मचा रहे हैं। इससे कांग्रेस पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र का भी चेहरा उभरकर सामने आता हे। पार्टी के भीतर लोकतंत्र नाम की कोई चीज नजर नहीं आती है। कम-से-कम व्यवहार में तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखता है। कांग्रेस के कितने भी बड़े नेता को यदि कुछ बुरा लगता है तो उसकी राय को पार्टी महत्व नहीं देती है। इस पार्टी की दिक्कत यह है कि अगर कोई आलाकमान या पार्टी अध्यक्ष या उपाध्यक्ष अगर कुछ गैर-महत्वपूर्ण भी बोल दे तो उसे महत्वपूर्ण मान लिया जाता है। कांग्रेस सरकार के तब लगाए गए इस किताब के प्रतिबंध से यह भी पता चलता है कि देश में तर्कसंगत या विवेक के आधार पर कोई फैसला लिए जाने की परिस्थिति ही नहीं बन सकी। जवाहरलाल नेहरू थोड़ा ज्यादा और थोड़ी-बहुत इंदिरा गांधी तर्कसंगत विचारों को तवज्जों देते रहे है। वैसे तो इंदिरा गांधी ने भी इस देश में इमरजेंसी लगाई थी। उनके अलावा देश में ज्यादातर सरकारें प्रतिबंध की हिमायाती रहे हैं। कांग्रेस की प्रतिबंध लगाने की परंपरा को क्षेत्रीय दल और भाजपा बढ़ाने में लगी हुई है।

विरोध व पाठक:- किसी किताब पर प्रतिबंध लगा देना, किसी सभ्य समाज का लक्षण नहीं है। देश के नागरिकों पर यह छोड़ दिया जाना चाहिए कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है। किसी भी साहित्यिक कृति पर प्रतिबंध लगाना कभी भी अच्छी बात नहीं हो सकती है। कभी-कभी सत्ता में बैठे लोग किसी राजनीति, सामाजिक परिस्थितियों में अपना फायदा-नुकसान देखकर प्रतिबंध लगाने का निर्णय ले बैठते हैं। लेकिन हमें ऐसी एक परिस्थिति तैयार करनी चाहिए जिसमें किसी को कोई किताब न पढ़नी हो तो बेशक वह न पढ़े। किसी व्यक्ति या समुदाय को किसी किताब में कोई आपत्तिजनक बात लगती हो तो वह विरोध करने का कोई लोकतांत्रिक तरीका ढूंढे। सरकार द्वारा किसी किताब पर प्रतिबंध लगाने की बात तो कहीं से जायज नहीं ठहराई जा सकती है। अगर कोई साहित्य पोनोंग्राफी कैटेगिरी की हो तो प्रतिबंध का फैसला तो समझ में आता है। वह यह तर्क दे सकती है कि पोनोंग्राफी कैटेगिरी के साहित्य से समाज पर प्रतिकूल या नकारात्मक असर पड़ सकता है लेकिन होता उसका उल्टा है कि सरकार पोनोग्राफी साहित्य पर तो कभी प्रतिबंध नहीं लगाती है। किताब खराब है या अच्छी है, इसे पाठकों को तय करने का अधिकर दिया जाना चाहिए। उन्हें किताब खराब लगती है तो उसके खिलाफ निंदा प्रस्ताव पास कराने का विकल्प हो। वह लेखकों और प्रकाशकों को चिट्‌ठी लिखकर विरोध जता सके। कुल मिलाकर आप असहमति के तौर पर कोई भी लोकतांत्रिक या प्रगतिशील समाज के पैमाने पर कोई फैसला लेने का चलन विकसित करने की कोशिश करें।

विचार:-निम्न हैं-

इस गलती को स्वीकारने में तो 27 साल लग गए। लेकिन अब इस गलती को सुधारने में और कितने साल लगेंगे।

सलमान रश्दी, सेटेनिक वर्सेज के लेखक

चिदंबरम ने स्वीकार किया है कि सेटेनिक वर्सेज को बैन करना गलत निर्णय था। बुद्धदेव भट्‌टाचार्य (प. बंगाल के पूर्व सीएम) कब कहेंगे कि किताब दव्खंडितों को बैन करना गलत था? ममता बनर्जी भी चिदंबरम से सीख लें और मेंरे से संबंधित टीवी सीरियल से रोक हटाएं।

तसलीमा नसरीन, बांग्लादेशी लेखिका

प्रतिबंध:- भारत में निम्न किताबों में प्रतिबंध है-

  • द सेटेनिक वर्सेज (सलमान रश्दी) वर्ष 1988 में भारत में बैन लगाने वाला दुनिया का पहला देश है। रश्दी पर मुस्लिम धर्म की आस्था पर सवाल उठाने और मोहम्मद साहब का अपमान करने का आरोप लगा था।
  • द हिंदूज: एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री (वेंडी डोनिगर) हिंदू धर्म के देवी-देवताओं की गलत छवि पेश करने का आरोप था। कुल 683 पन्नों की इस किताब का विरोध शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति ने भी किया।
  • अंडरस्टैडिंग इस्लात थ्रू हदीस (राम स्वरूप) राम स्वरूप की लिखी किताब इस्लाम की निंदा का आरोप लगा था। किताब पर विरोध काफी बढ़ा, जिसके बाद प्रकाशक तक को जेल की हवा खानी पड़ी।
  • लज्जा (तसलीमा नसरीन) बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद बांग्लादेश में हुई हिंदू विरोधी हिंसा की पृष्ठभूमि पर आधारित इस किताब को भारत में वर्ष 1993 में प्रतिबंधित कर दिया गया था।
  • द रामायण ऐज टोल्ड (ऑब्रे मेनन) हिंदू धर्मग्रंथ रामायण का उपहास उड़ाने वाली इस किताब पर वर्ष 1956 में प्रतिबंध लगा दिया गया। उन पर रामायण के पात्रों का अपमान करने का आरोप था।
  • जिन्ना: इंडिया, पार्टिशन, इंडीपेंडेंस (जसवंत सिंह) किताब में मोहम्मद अली जिन्ना को विभाजन का जिम्मेदार नहीं बताया। नेहरू और सरदार पटेल को देश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था।
  • एन एरिया ऑफ डार्कनेस (वीएस नायपॉल) किताब में नायपॉल भारत आने पर यहां के हालात की बयानी करते हैं। गलत छवि पेश करने का आरोप लगा था। भारत पर 1960 में ही इस किताब पर बैन लग गया था।

फैसला:- साहित्य का मूल्यांकन पढ़ालिखा समाज ही कर सकता है। वही इस बात का फैसला करता है कि साहित्य, कलाकृति या अन्य प्रकार की कलाओं का स्तर क्या है? उसके अलावा जब भी कोई इस मामले में फैसला करता है तो विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ सलमान रश्दी की पुस्तक सेटेनिक वर्सेज के साथ हुआ।

समाज व उदाहरण:- विख्यात अंग्रेजी लेखक डी. एच. लॉरेंस की पुस्तक लेडी चैटलीज लवर की बिक्री भारत में 70 के दशक में हुई यह ब्रिटेन में 19 वीं शताब्दी के स्थापित सभ्य सामाजिक के मानदंडों के विपरीत और अभद्र शब्दों की भरमार वाली पुस्तक है। भारत में जब इस पुस्तक लेडी चैटलीज लवर की बिक्री को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ तो मामला सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश हिदायतुल्ला ने कहा था कि किसी भी किताब को अच्छा या बुरा नहीं कहा जा सकता है। भले ही वह अच्छी तरह से लिखी गई या बुरी तरह से लिखी गई हो सकती है। मैं सुप्रीम कोर्ट की इसी राय से इत्तेफाक रखता हूं और पुस्तक सामाजिक चेतना का विषय है और उसे समाज पर ही छोड़ देना चाहिए कि वह अच्छी तरह से लिखी गई है या खराब तरीके से। समाज खुद के विवेक से पुस्तक के बारे में अपनी राय बनाने में सक्षम है। समाज को किसी प्रकार के निर्देश देने की आवश्यकता नहीं हैं।

दुर्भाग्य से हमारे देश में स्थिति यह है। कि जिस साहित्यिक कृति या किताब को महत्व नहीं दिया जाना चाहिए, उसे हम विवादों के जरिए बहुत ही महत्वपूर्ण बना देते हैं। ये हालात कई बरसों से देश में रहे हैं। या दूसरे शब्दों में कहें तो अब ये परिपाटी के समान ही बन गए हैं। इस मामले में हम यह भूल जाते हैं कि हम ऐसी कृतियों का नकारात्मक तरीके से प्रचार ही कर रहे हे। केवल लेखन के क्षेत्र में ही ऐसा नहीं होता, फिल्मों के मामलों में तो ऐसा बहुत बार देखने और सुनने को मिलता है। बस, एक बार किताब या फिल्म का संबंध किसी विवाद से जोड़ दीजिए, यह विवाद ही उसकी सफलता की गांरटी बन जाएगा। जबकि किताब अथवा फिल्म की कहानी के बारे में जाने बिना भी लोग उसके समर्थन अथवा विरोधी बन जाते हैं।

संस्था:- इसके अलावा किसी विशिष्ट मामले में सरकार को यह लगता है कि कोई प्रकाशित सामग्री अनुचित है तो इसके लिए वह एक संस्था बना दे। उस संस्था के विशेषज्ञ यह तय कर लेगे कि वास्तव में प्रकाशित सामग्री प्रकाशन योग्य है या नहीं। ऐसे मामलों में किसी भी तरह का फैसला सामाजिक हित में ध्यान में रखकर होना चाहिए। सामाजिक हित के नाम पर राजनीतिक हित साधना उचित नहीं है हमारे देश में अकसर यही होता है सामाजिक हित के नाम पर राजनीतिक हित साधनें की कोशिश होने लगती है। इसे रोकने के लिए विवादित विषयों पर या तो कोई स्वतंत्र संस्था बनाकर उसकी राय पर फैसला लेना चाहिए, अन्यथा न्यायालय पर छोड़ देना चाहिए। सभ्य और पढ़े-लिखे समाज में यदि सरकार इस तरह के फेसले लेगी तो विवाद के बढ़ने के आसार बने रहेंगे। सत्ता में आसीन लोग अपने राजनीतिक हितों से अधिक समाज के बारे में ध्यान दें।

उपसंहार:- न्यूज पेपर, पत्रिकाओं, किताबों या फिल्मों में क्या दिखाया जाए या प्रकाशित किया जाए इस पर नियंत्रण का अधिकार सरकार का नहीं हो सकता है। यह बात जरूर है कि सरकार कानून बनाकर तय कर सकती है कि ये बातें अपमानजनक श्रेणी के दायरे में आती हैं और ऐस मामलों में यह जुर्माना या सजा हो सकती हे। यदि इस तरह के कानून की अनुपालना नहीं होती तो मामले को कोर्ट को सौंपा जा सकता है और कोर्ट कानून के मुताबिक इस ममाले में फैसला कर सकता हैे। देश में ऐसे कई मामलें हुए भी है। जिसमें उचित न्याय मिला है।

Examrace Team at Aug 21, 2021