विप्रेषित धन (Foreign Remittances Essay in Hindi)

प्रस्तावना:-देश से बाहर गए भारतीय जो पैसा अपने परिवारों के लिए भेजने हैं, वह देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती देता रहा है। मंदी के संकट में सहारा बना रहा है। पर पिछले कुछ वर्षों से इसके प्रवाह में कमी आनी शुरू हुई और 2015 में यह 2014 के मुकाबले 1.5 अरब डॉलर तक घट गया। आखिर क्यों आई इस राशि के प्रवाह में कमी? क्या इसका संबंध केवल कच्चे तेल का दोहन करने वालों देशों से ही हैं या फिर अन्य कारण भी हैं? क्या विदेश में रहने वाले कामकाजी भारतीयों में सटोरिया प्रवृत्ति हावी हो गई? या फिर, देश की अर्थव्यवस्था के विकास की रफ्तार पर वे भी संदेह कर रहे हैं? क्या होता है इस धन के प्रवाह में कमी का अर्थव्यवस्था पर असर?

बाहरी और घरेलू वजह:- बड़ी संख्या में लोग पैसा कमाने के उद्देश्य से देश से बाहर काम करने के लिए जाते हैं और वे जो धन भारत में भेजते हैं, अर्थव्यवस्था में उसका बड़ा महत्व होता है। सामान्य भाषा में इसे विप्रेषित धन (रेमिटेंस) कहा जाता है। इसका सीधा असर हमारे विदेशी मुद्रा भंडार पर पड़ता है। पर पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान इसकी वृद्धि दर में निरंतर कमी दर्ज की जा रही थी। यानी विदेश में रहने वाले भारतीय देश में पैसा भेज तो रहे थे लेकिन जिस तेजी से उनके द्वारा भेजे जाने पैसे में बढ़ोतरी हो रही थी, उसकी रफ्तार कम होती गई। अब 2014 के मुकाबले 1.5 अरब डॉलर की कमी दर्ज की गई। यह 70.4 अरब डॉलर से घटकर 68.9 अरब डॉलर रह गई है।

गिरावट:- रेमिटेंस में कमी के कई कारण हो सकते हैं। एक बड़ा कारण तो वैश्विक है, खासतौर पर कच्चा तेल उत्पादक देशों की माली हालात काफी खराब है। वहां काम करने वालों की आय पर विशेष असर पड़ा है। उल्लेखनीय है कि खाड़ी देशों में काम करने वाले भारतीयों की ओर से आने वाले रेमिटेंस की हिस्सेदारी करीब 50 फीसदी रहती है। इसके अलावा एक बड़ा कारण डॉलर के सापेक्ष रुपए का अवमूल्यन होना भी है। 2014 में एक डॉलर के सापेक्ष रुपए का मूल्य 44 रुपए था जो गिरते हुए 66 रुपए के स्तर पर आ गया। ऐसे में जो लोग देश में डॉलर में रुपया भेजते रहे हैं, उनमें ऐसी सोच विकसित होती है कि इस गिरावट का लाभ लिया जा सकता है। यदि रुपया और गिरेगा और तब भारत में पैसा भेजने पर वे अपने परिवार को अधिक रुपया दे सकेंगे। इस सटोरियाई सोच के कारण लोग पैसे अन्यत्र निवेश कर देते हैं या उसके रोक लेते हैं।

खाड़ी देश कच्चे तेल के दामों में गिरावट के चलते करीब दो साल से जूझ रहे हैं। चूंकि हमें आधी रेमिटेंस इन्हीं देशों से मिलती है। इसलिए वहां रह रहे भारतीयों की कमाई पर भी फर्क पड़ना लाजिमी हैं। साथ ही वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी 2013 से मंदी छायी रही यही कारण है कि हमारी रेमिटेंस में 2013 में 2012 के मुकाबले महज 1.7 फीसदी और 2014 में 0.6 फीसदी ही वृद्धि हुई। इस साल यह नकारात्मक हो गई है।

असर:- विदेशी मुद्रा भंडार बेहतर होने की स्थिति बताती है कि जरूरत पड़ने पर हम विदेशी उधारी को सरलता से चुका सकते हैं। वर्तमान में हमारे देश के चालू व्यापार खाते में घाटा दिखाई दे रहा है। हमारा विदेशी मुद्रा भंडार करीब 350 अरब डॉलर का है तो यह चालू व्यापार घाटा करीब 100 अरब डॉलर की कमी का अंतर दिखाता है। ऐसे में रुपए पर दबाव बनता है और यदि विदेश में रहने वाले भारतीय पैसा अधिक भेजते है तो हमारा विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से बढ़ने लगता है और यदि पैसा कम भेजते हैं तो इस भंडार में कमी आने लगती है। हालांकि एक साथ विदेशी उधारी चुकाई भी नहीं जाती लेकिन मनोवैज्ञानिक तौर पर यह भी कमजोरी का परिचायक समझी जाने लगती है। ऐसे में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भी कमी आने लगती है। विदेशी संस्थागत निवेशक भी पैसा निकालकर अन्यत्र निवेश करने लगते हैं। बाजार में सटोरिया प्रवृत्ति हावी होने लगती है और शेयर बाजार भी डगमगाने लगता है।

संदेह:- भले ही दावे अर्थव्यवस्था साढ़े सात फीसदी की दर से बढ़ने के हों पर इस बात में फिलहाल लोगों को संदेह है। थोक मूल्य सूचकांक काबू में नहीं है। दो साल से देश में सूखा पड़ रहा है। रीयल एस्टेट (वास्तविक राज्य) क्षेत्र ही नहीं बैंकिंग उद्योग भी मंदी की चपेट में है। चार से पांच साल पहले तक बैंको की ओर से लि जाने वाली ़ऋणों की दर 16 से 17 फीसदी थी जो नौ फीसदी तक गिर गई। भले ही यह 11 फीसदी हो तो भी पूर्व के मुकाबले बेहतर तो बिल्कुल भी नहीं है। ये परिस्थितियां अर्थव्यवस्था के विकास की दर के अनुमान को गलत साबित करती लगती हैं। ऐसे में भी विदेश से आने वाले धन के प्रवाह में कमी आने लगती है। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था पर छाए संदेह के बादल छंटेगे वैसे-वैसे हम भविष्य में पैसा भेजने वालों की रफ्तार में सुधार होता हुआ पाएंगे।

7 साल बाद गिरा रेमिटेंस का ग्राफ

साल दर साल रेमिटेंस ग्रोथ प्रतिशत में

+ 8.7 + 16.9 + 10.1 + 01.7 + 0.6 - 2.1

68.9

2010 2011 2012 2013 2014 2015

रेमिटेंस के आकंड़े अरब डॉलर में।

इससे पहले 2009 में कमी आई थी जब 2008 में 49.9 अरब डॉलर की तुलना में 49.2 अरब डॉलर रेमिटेंस मिली।

देश:-वर्ष 2014 में भारत को मध्य पूर्व देशों से 37 अरब डॉलर रेमिटेंस प्राप्त हुई थी। जो इस साल घटकर 35.9 अरब डॉलर रह गई।

table of Remittances in 2015
2015 में मिली रेमिटेंस
जगहराशिप्रतिशत
खाड़ी देश35.952.1
उ. अमरीका13.719.8
पड़ोसी देश913.1
यूरोप5.78.3
ऑस्ट्रलिया⟋न्यूजीलैंड2.13
द. पू. एशियाई देश1.42
अफ्रीका0.60.9
(राशि अरब डॉलर में)

भारत:- क्रेडिट रेटिंग कार्यकर्ता मूडी ने भारतीय रेमिटेंस में आई गिरावट से अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर से इंकार किया है। मूडी का कहना है कि कम रेमिटेंस का असर धीमी गति से आर्थिक वृद्धि वाले देशों पर तो पड़ेगा पर भारत पर इसका असर देखने को नहीं मिलेगा। हालांकि भारत दुनिया में सबसे ज्यादा रेमिटेंस हासिल करने वाला मुल्क बना रहा पर 2015 में 2014 के मुकाबले 1.5 अरब डॉलर कम रेमिटेंस मिली।

Indians Living in Foreign countries
बाहर रहने वाले भारतीय
इनमें से 2.5 करोड़ प्रवासी भारतीय विदेश रहते हैं।
एशियाई देशों में1.10 करोड़
अमरीका50 लाख
मध्य पूर्व42 लाख
अफ्रीका28 लाख
यूरोप18 लाख

आर्थिक विश्लेषक भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बाहर रह रहे भारतीयों द्वारा भेजे जाने वाले धन को बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं। उनका मानना है कि वैश्विक मंदी के दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था में रेमिटेंस का बड़ा योगदान रहा है। सभी आकड़ों का स्त्रोत: विश्व बैंक⟋आईएमएफ के अनुसार है।

उदाहरण:- अगर उदाहरण के तौर पर राजस्थान की ही बात करें तो राज्य में सीकर, चुरु, झुंझुंनु और बांसवाड़ा इलाके से बड़ी तादाद में लोग खाड़ी देशों में रोजगार के लिए जाते हैं। वहां से भेजे जाने वाली रेमिटेंस में गिरावट साफ देखी जा सकती है। अनुमानित आकंड़ों के मुताबिक सीकर, चुरु झुंझुंनु के प्रवासी भारतीय जहां खाड़ी देशों से पिछले साल तक 10 - 11 करोड़ मासिक भेज रहे थे अब मासिक करीब 08 करोड़ रेमिटेंस ही भेज रहे है। इन जिलों के करीब 2.5 लाख भारतीय खाड़ी देशों में रहते हैं। खाड़ी देशों में रहने वाले 60 फीसदी से ज्यादा भारतीय कौशलविहीन है, वे वहां श्रम से जुड़े काम ही करते हैं। इसलिए तेल का व्यापार मंदा पड़ते ही इनके रोजगार पर संकट आना लाजिमी है।

अहम:- प्रवासी लोगों के जरिये विदेशों से भेजा गया पैसा हमारे देश में आने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से न ज्यादा है। यह धन देश के लोगों की खुशहाली बढ़ाने का काम कर रहा है। पिछले सालों के मुकाबले हमारे देश में विदेश से प्रवासी भारतीयों के जरिए भेजे वाले धन में कमी आना ज्यादा चिंता का विषय नहीं है क्योंकि वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो सभी देशों में इसकी आवक कम हुई है। दुनिया के देशों में आर्थिक मंदी और तेल के दाम में भारी गिरावट का इसका बड़ा कारण माना जा सकता है। संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) , अमरीका में तथा सऊदी अरब में बड़ी तादाद में प्रवासर भारतीय काम कर रहे हैं। हमारे यहां इस तरह से आने वाले धन का 18 फीसदी यूएई से, 16 फसदी अमरीका से और 15 फीसदी सऊदी अरब से आता है।

प्रवासी भारतीय:- यह बात सही है कि भारत की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में महज 3.4 फीसदी सहभागिता ही इस राशि का है। जबकि नेपाल के प्रवासियों की यह सहभागिता वहां की जीडीपी का 29 फीसदी से ज्यादा है। खास बात यह है कि हमारे देश से सिर्फ मजदूर वर्ग ही विदेशों में काम नहीं कर रहा बल्कि पढ़े-लिखे लोगों की तादाद भी ज्यादा है। अमरीका में हमारे यहां के उच्च शिक्षित लोग बड़ी संख्या में काम कर रहे हैं। प्रवासियों के आंकड़े देखें तो अकेले यूएई में 88 फीसदी प्रवासी हैं। देखना यह भी होगा कि प्रवासी भारतीय जहां काम कर रहे हैं वहां की मुद्रा में भी हृास हुआ है। आयात-निर्यात संतुलन कमजोर होने के कारण भी दुनिया के देशों में आर्थिक संकट बढ़ा है। यही कारण है कि प्रवासी भारतीयों की सेवा शर्तों पर भी विपरीत असर पड़ रहा है।

जीवन स्तर:- यूएई और अरब में काम कर रहे हमारे यहां के हजारों श्रमिक यह राशि अपने रिश्तेदारों को भेजते हैं। इससे लोगों के जीवन स्तर में सुधार आया है। लेकिन भारत सरकार को प्रवासर भारतीयों की सुरक्षा और सेवा शर्तें बेहतर करने की दिशा में काम करना चाहिए। बात केवल प्रवासी सम्मेलन आयोजित करने से ही नहीं बनने वाली। धरातल पर काम किए बिना प्रवासी भारतीयों द्वारा हमारे यहां भेजे जाने वाली राशि में बढ़ोतरी संभव नहीं है। हमें इस धन की आवक बढ़ाने के प्रयास करने होंगे।

उपसंहार:- प्रस्तुत तर्को से यह पता पड़ता है हमारे देश के लिए रेमिटेंस बहुत आवश्यक है इससे देश नही उसकी अर्थव्यवस्था में भी काफी सुधार आएगा एवं अन्य बाहरी व घरेलू कारणों से भी हमें रेमिटेंस की बढ़त के लिए निरतंर प्रयास करने चाहिए।

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