सरकारी बैंक -गैर निष्पादित संपत्तियों (Government Bank Facing Issues of NPA - Essay in Hindi)

प्रस्तावना:-भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ बने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक इन दिनों गैर निष्पादित संपत्तियों की समस्या झेल रहे हैं। रिजर्व बैंक ने उन पर ऐसी संपत्तियों की भरपाई के लिए दबाव बनाया हुआ है। इस दबाव के आगे क्या सरकार झुक जाएगी क्या सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा 49 फीसदी तक कर दी जाएगी। या फिर, भारत सरकार इन बैंकों की उस तरह से मदद करेंगी, जिस तरह जापान और अमरीका की सरकारों ने अपने देश के बैंकों की करी थी। क्या गांव-गांव में सेवाएं देने वाले सरकारी बैंक निजी या विदेशी हाथों में चले जाएंगे। हमें प्रस्तुत सवालों जवाब आगे खोजने होगें जिससे समस्या का हल मिल सके।

सच:- यह सच तो सबको पता है जिस पर सार्वजनिक रूप से मुश्किल ही बात होती है। वह यह कि भारतीय वित्तीय तंत्र बैंकों पर आश्रित है। समूची अर्थव्यवस्था बैंकों, विशेष रूप से यह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको (पीएसबी) द्वारा संचालित होती है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आर्थिक चिंतक और नीति निर्धारक इन पीएसबी को भारतीय अर्थव्यवस्था की अमूल्य निधि मानने के बजाय एक समस्या के तौर पर देखते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत में बैंकिंग का मतलब अधिकांशत: पीएसबी से ही है। वाणिज्यिक बैंको की जमाओं का 80 प्रतिशत इन बैंकों मेंं ही हैं।

सरकारी बैंक:- भारतीय आर्थिक विशेषज्ञ आज भी बाजार द्वारा संचालित प्राचीन अंग्रेजी अर्थव्यवस्थाओं की ओर ही देख रहे है। वे इस बात से अनभिज्ञ ही रहना चाहते हैं कि दुनिया की सर्वाधिक सुदृढ़ अर्थव्यवस्था जर्मनी है और वह भी व्यापक तौर पर बैंकों द्वारा ही संचालित है। इसके अलावा जर्मनी जैसी ही सुदृढ़ अर्थव्यवस्था जापान की है और वह भी कई देश या राज्य इसी प्रकार मुख्यत: बैंकों द्वारा चलाई जा रही है। जर्मनी और जापान दोनों में ही शेयर बाजारों को प्रमुखता नहीं दी जाती, न तो पूंजी को गतिशील करने में और न ही इसका वितरण करने में जैसा कि अमेरिका और इंग्लैड में होता है। देश का वित्तीय ढांचा देखें, तो हम पाएंगे कि भारतीय बचत का लगभग दसवां हिस्सा विवेश के सुरक्षित नमूना के हवाले निवेश के सुरक्षित नमूनों के हवाले है। इसका आधे से अधिक तो बैंकों में है। पीएसबी में जमा इस पूंजी का जीडीपी में 50 प्रतिशत से अधिक योगदान है। पीएसबी भारतीय अर्थव्यवस्था को एक असाधारण ऊंचाई पर खड़ा करने के लिए सुदृढ़ वित्तीय ढांचा बनाने में जुटे हैं। निजी बैंक तो इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते है। उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री जन-धन योजना के तहत खोले गए 20.7 करोड़ खातों में 78 फीसदी खाते इन्हीं सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने इस योजना के तहत 19 फीसदी जबकि निजी बैंको ने मात्र तीन प्रतिशत खाते खोले। लघु उद्योगों के लिए मुद्रा लोन देनें भी ये अग्रणी हैं। 60 प्रतिशत मुद्रा लोन इन्ही बैंकों ने दिया है। यद्यपि बैंक में पैसा जमा कराने पर शेयर बाजार के मुकाबले आधा ही लाभ मिलता है लेकिन फिर भी भारतीय घरेलू बचत का 40 प्रतिशत तो बैंकों में ही जमा होता है। नामी शेयर बाजार भले ही बैंकों के बजाय दोगुना लाभ देते हो लेकिन राष्ट्रीय बचत का केवल दो प्रतिशत ही इन बाजारों में निवेश होता है। भारत में जमाओं के लिए अधिकतर लोग सरकारी बैंकों का ही प्रयोग करते हैं।

वैचारिक बेरुखी:- दुखद है कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के केंद्र में होने के बावजूद पीएसबी का महत्व निरंतर कम करके आंका जा रहा है। इनका मजाक उड़ाया जाता है और आर्थिक चर्चा के दौरान भी इन्हें कमतर दिखाया जाता है। उनकी विफलताओं को बढ़ा -चढ़ा कर दिखाया जाता है। जबकि विशेषताओं को दबा दिया जाता हैं। पीएसबी के प्रति बेरुखी वैचारिक अधिक हैं और तार्किक कम हैं। पीएसबी को लेकर सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि ये सरकारी स्वामित्व में हैं। सिद्धांत यह है कि अगर पीएसबी को निजी क्षेत्र के अधीन कर दिया जाए तो ये स्वत: दक्ष मान लिए जाएंगे क्योंकि बाजार की दक्षता का सिद्धांत सार्वजनिक नियंत्रण को तुच्छ मानता है। यहां यह बात गौर करने लायक है कि अमरीका में दुनिया भर के श्रेष्ठ और बड़े माने जाने वाले बैंको ने 2008 में दिवालियेपन की घोषणा की। उन्हें बचाने के लिए सरकार को आगे आना पड़ा। निजी स्वामित्व भले ही दक्षता का राग अलापे पर वे सम्पन्न्ता की गांरटी नहीं दे सकते हैं। इसके विपरीत उनकी यह अतिदक्षता ही उन्हें दिवालियेपन की ओर धकेल रही है। हाल ही में ब्लूमबर्ग ने एक भयावह विश्लेषण करते हुए लिखा है कि “यूरोपीय बैंको का भविष्य अंधकार में है।” ये सभी नामी बैंक हैं रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड, बार्कलेज, यूबीएस, क्रेडिट सुइस, डॉएचे बैंक, यूनिक्रेडिट और स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक। इन सभी नामी बैंको ने 2008 के बाद करीब 75 हजार कर्मचारियों को नौकरी से निकाला है। विशेषज्ञों की मानें तो 2008 का संकट नियम कायदे से न चलने के कारण पैदा हुआ। ब्लूमर्ग विश्लेषण के अनुसार निष्कर्ष यह था कि बैंकिंग उद्योग को इस जटिलता की कीमत चुकानी पड़ रही है। इसलिए इस क्षेत्र में इतनी समस्याएं हैं।

आरबीआई:- हमारे बैकिंग तंत्र पर ऐसे मानक लागू कर रहा है, जो पश्चिम की जटिल बैंकिंग प्रणाली के लिए बनाए गए हैं, ये सरल किन्तु व्यवस्थित हैं। वैधानिक तरलता अनुपात और नकद आरक्षित अनुपात में संयुक्त रूप से बैंक जमा का 27.5 प्रतिशत हिस्सा समाहित है। फिर भारतीय बैंक निजी गारंटी और ऋणाधार के बल पर ही स्वयं को सुरक्षित और जोखिम से परे रखते हैं। समस्या से निपटने के लिए आरबीआई ने सबको एक ही लाठी से हांकने का जो तरीका अपनाया है अर्थात सबको एक ही नियम से कार्य करने को कहा गया हैं उनमें इन वास्तविकताओं का ध्यान नहीं रखा गया। एक शीर्ष बैंकर ने आरबीआई गवर्नर के इस व्यवहार, विशेषकर पीएसबी को बोझिल संपत्ति में शामिल करने और भुला देने के कदम को इसी श्रेणी में रखा।

एफडीआई: - अगर खबरों को विश्लेषित करें तो वित्त मंत्रालय पीएसबी को बेचने की आरबीआई की रणनीति के तहत बैंकों में एफडीआई की सीमा 49 प्रतिशत तक बढ़ाने जा रहा है। इस प्रकार पीएसबी को वैश्विक वित्तीय संस्थाओं को बेचने का रास्ता साफ हो जाता है। अगर राजन इस उद्देश्य में सफल हो जाते हैं तो यह भारत के लिए आर्थिक त्रासदी से कम नहीं होगा। हां इससे राजन को जरूर फायदा होगा क्योंकि मुक्त बाजार वाला विश्व, भारतीय वित्तीय तंत्र के इस कड़े बैंकिंग क्षेत्र पीएसबी के निजीकरण व वैश्वीकरण करने के लिए राजन को सदा पूजेगा। वे एक नए आर्थिक युग के जनक कहलांएगे और अगले वर्ष जब वे सेवानिवृत्त हो जाएगें, उनका सीवी सबसे ज्यादा वांछित रहेगा।

एनपीए:- एनपीए खातों की समस्या आखिर कितनी बड़ी है, जिसने आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन को बेचैन किया हुआ है। इस महीने के मध्य में प्रकाशित फोर्ब पत्रिका में कहा गया है कि मार्च तक भारतीय बैंको में एनपीए का स्तर 6.6 प्रतिशत तक बढ़ जाएगा। 2003 से 2011 के बीच एनपीए करीब 8 से 9 प्रतिशत थे। इसके बाद 2012 में यह कम हो कर 6.5 प्रतिशत रह गए, 2013 में 4.5 प्रतिशत रह गए, 2013 में 4.5 प्रतिशत तथा 2014 में 4.9 प्रतिशत तथा 2014 में 4.9 प्रतिशत पर आ गए। 2003 से 2011 के बीच जब अर्थव्यवस्था बहुत अच्छी थी, तब एनपीए खातों की संख्या भी बहुत अधिक थी। इससे निपटने के लिए उस समय सबको एक ही लाठी से हांकने का तरीका सही था, जब बैंक और अर्थव्यवस्था इसे समाहित कर सकते थे। जापानी बैंको में 1990 से 2011 के बीच 8 से 9 प्रतिशत खाते एपीए हो चुके थे। 2002 में इनकी संख्या गिर 7.5 प्रतिशत रह गई थी और उसके बाद ही इनमें गिरावट आनी शुरू हुई। वहां एनपीए की संपत्ति की सीमा दस खरब डॉलर पहुचने के बावजूद बैंक ऑफ जापान ने पश्चिमी फार्मूले का वैसा का वैसा ही होना ठीक नहीं समझा, जैसा कि राजन कर रहे हैं।

निजी बैंक होने के बावजूद जापान में खराब ऋणों की भरपाई करने के लिए बैंकों को बाध्य नहीं किया गया क्योंकि इससे बैंकिंग प्रणाली में विश्वास खत्म होने का संकट हो सकता था। जापानी सरकार ने सार्वजनिक कोष से 300 खरब येन की सहायता कर इस संकट से उबरने में बैंको पर संकट छाया तो वहां सरकार ही संकट मोचक बनकर सामने आई है। जापान के 1990 और अमरीका के 2008 के वित्तीय संकट की सच्चाई यही है। जब सरकार मदद को आगे आती है, लोगों का भरोसा निजी बैंकिंग में बढ़ता है। हिन्दुस्तान में ऐसा नहीं है। तीन महत्वपूर्ण भेद हैं, जो भारतीय वित्तीय तंत्र और भारमीय अर्थव्यवस्था को सुरक्षित करते हैं। भेद निम्नलिखित हैं-

  • पहला, पूंजी खातों के लिए ऐसी कोई परिवर्तनीय (मुद्रा विनिमय) सुविधा नहीं है कि वह भारतीय बैकिंग को वैश्विक वित्त तंत्र के सममुख उजागर कर दे।
  • दूसरा, भारत ने विदेशी निवेश के लिए बैंकिंग के दरवाजे उचित रूप से नही खोले हैं।
  • तीसरा, पीएसबी सरकारी स्वामित्व वाले बैंक हैं। ये तीन मौलिक भेद सुनिश्चित करते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के इन बैंकों को किसी खतरे का सामना न करना पड़े।

लघु बचत:- दो साल पहले चुनाव प्रचार के दौरान जिस माध्यम वर्ग की उम्मीदों को सबसे अधिक महत्वपूर्ण बताया गया था। समय बीतने के साथ सरकार के अब उस माध्यम वर्ग की तरफ अपना ध्यान लगाया है। सहयोंग से काम करके मैत्रीपूर्ण बजट देकर विदेशी निवेशकों को खुश करने के लिए ग्रामीण इलाकों से जुडक़र सामाजिक और ग्रामीण विकास योजनाओं की वित्तीय मदद में कटौती के बाद अब मध्यमवर्ग नीति-निर्माताओं के बजट कटौती अभियान के रडार पर आ चुका है। ताजा बानगी आर्थिक सर्वेक्षण 2015 - 16 में देखने को मिली हैं, जिसमें पहली दफा सरकारी सब्सिडी पर नया अध्याय जोड़ा गया है। और निष्कर्ष के तौर पर सरकार से मध्यवर्ग को राहत देने वाली मुख्य रूप से 6 जिंसो केरोसिन, रेलवे, बिजली, रसोई गैस, सोना और एटीएफ के साथ ही छोटी बचत योजनाओं पर दी जाने वाली सरकारी सब्सिड़ी में पुरजोर कटौती की सिफारिश की गई है। आर्थिक सर्वेक्षण को आम बजट का पूर्व संकेत माना जाता है और आम बजट का नीतिगत ढांचा मुख्यतया आर्थिक सर्वेक्षण में सुझाए उपायों पर ही टिका होता है।

पीपीएफ:- पूरी उम्मीद है कि आने वाले दिनों में मध्यम वर्ग को सब्सिडी खासकर छोटी बचत योजनाओं मसलन सार्वजनिक भविष्य निधि (पीपीफ) और कर रहित उत्पाद पर अधिक कर के रूप में झटके सहन करने के लिए तैयार रहना चाहिए। पूछा जा सकता है कि सरकार क्यों पीपीएफ और कर रहित उत्पात जैसी लघु बचत योजनाओं को निशाना बना रही है जो खास तौर पर निम्न व मध्यम वर्ग के लोगों के बीच लोकप्रिय हैं। अगर सरकार का मकसद इल लघु बचत योजनाओं पर दी जाने वाली सब्सिडी को खत्म कर अधिक राजस्व जुटाना है तो यह फैसला किसी भी लिहाज से जायज नहीं ठहराया जा सकता है मिसाल के तौर पर चालू वित्तीय वर्ष में पीपीएफ सब्सिडी के रूप में 11,900 करोड़ रुपए और कर रहित उत्पात का सब्सिडी बिल 111 करोड़ रुपए रहने का अनुमान हैं। कोई भी साधारण शख्स बता सकता है कि यह इन दोनों लघु बचत योजनाओं को मिलने वाली तकरीबन 12,000 करोड़ रुपए की सब्सिडी सरकार के बजट की विशालता के नजरिए से बहुत ही छोटी रकम है, वहीं इससे होने वाले फायदे विशाल कामकाजी आबादी तक पहुंचते हैं। कर नीति के मापदंडो पर भी यह सुझाव खरा नहीं उतरता हे। अर्थशास्त्रियों को मानना है कि किसी नागरिक की आमदनी में इजाफे के साथ उस पर लगने वाले करों में बढ़ोतरी की जानी चाहिए।

देश:- सीधे बात में कहें तो जिसकी अधिक आमदनी हो उस पर अधिक कर लगना चाहिए, वहीं कम आय वाले नागरिकों पर करों की दरें अपेक्षाकृत रूप से कम होनी चाहिए। हमारे देश में उल्टा हो रहा है। हमारे देश में एक करोड़ा से अधिक आमदनी वाले लोगों (सुपर रिच) की तादाद 25 लाख के आस पास है और उन पर प्रमुख देशों के मुकाबले हमारे यहां सबसे कम कर लगता है। सवाल उठता है कि अगर सरकार को राजस्व में फायदा करना है तो ज्यादा अमीर समूह पर क्यों नहीं कर लगाया जा रहा है।? क्यों नहीं कंपनी कर के मामले में मिल रही 62,000 करोड़ रुपऐ की कर छूट खत्म की जा रही है। क्यों नहीं समाज समूहों और ज्यादा अमीर को बजट में दी जाने वाले 5.74 लाख करोड़ रूपए की कर रियायतें खत्म खत्म कर दी जाती हैं आखिर राजस्व जुटाने के अभियान में केवल मध्यम और निम्न वर्ग के लोगों को ही क्यों शहीद हो पड़ता हैं।

घाटा:- जब दुनिया भर में केंद्रीय बैंक, बैंको में बोझिल संपत्तियों को खरीद कर उन्हें उनके कार्य में गतिशील बनाए रखने में मदद कर रहे हैं। राजन इसका ठीक उल्टा कर रहे हैं। वह बैंकों को मजबूर कर रहे हैं कि वे एनपीए खातों की भरपाई करे, जबकि उनके पास ऐसा कोई अतिरिक्त क्रोष नहीं हैं, जिससे वे यह घाटा उठा सकें। इसका मतलब बैंकों से नुकसान की भरपाई करवाने के लिए उनका पुन: पूंजीकरण करना होगा। यहां राजन एक कदम आगे निकले और सरकार के लिए बैंकों के पुन: पूंजीकरण करना, वास्तव में असंभव है। वे सरकार पर नैतिक दबाव बना रहे हैं कि वह राजकोषीय घाटे की भरपाई करें, यह उनका कार्यक्षेत्र नहीं है। यह प्रशासनिक मामले हैं और सरकार का काम हैं वे जानते हैं कि अगर सरकार राजकोषीय घाटे में कमी करती है तो यह पीएसबी नहीं कर सकती। तो क्या वे सरकार को बाध्य कर रहे हैं कि पीएसबी का निजीकरण कर दिया जाए। ऐसा है तो इसका मतलब वे सरकार पर दबाव डाल रहे हैं कि पीएसबी को विदेशी बैंकों को बेच दिया जाए, क्योंकि भारतीय समाज के पास इतना पैसा नहीं है। कि वह इन बैंको को खरीद सकें।

आशय:- जहां तक भारत का सवाल है तो यहां के कानून के अनुसार, बैकिंग से आशय है ऐसी व्यवस्था या संस्था जो जनता को ऋण देने या उसका पैसा जमा अथवा निवेश के तौर पर लेने का उद्देश्य पूरा करती हों। यह सरल बैंकिंग है। ऐसे में अगर इन वैश्विक बड़ी संस्थाओं को, जिन्होंने बैकिंग की विचारधारा को इतना जटिल बना दिया है और अपनी व विश्व अर्थव्यवस्था को मिला कर एक बेकार काम कर दिया है, क्या हमेंं बिगड़ी हुई अर्थव्यस्था को पीएसबी को सौंपना ठीक होगा? क्या वे इसे हमसे बेहतर संभाल पाएंगे? या फिर इन पीएसबी का भी यही हाल करेंगे।

उद्योगपति:- विडंबना है कि देश के सरकारी बैंकों से लिए गए 7,000 करोड़ रुपए के कर्ज को नहीं चुकाने वाले उद्योगपति विजय माल्य को कुछ नहीं कहा जा रहा है। वहीं अपनी गाढ़ी कमाई से कुछ हिस्सा बचाकर पीपीएफ और ब्याज मुफ्त निवेशों की योजनाओं में निवेश करने वाले निम्न और मध्यम वर्ग के लोगों को सब्सिडी काटने की सजा देने की सिफारिश आर्थिक सर्वेक्षण में की जा रही है।

उपंसहार:- हमें सोचना ही पड़ेगा कि सरकार का भला कौन कर रहा है, उद्योगपति या छोटी-टोटी बचत से परियोजनाओं के लिए धन जुटाने वाले । क्योंकि बड़े उद्योगपति के कर्ज की ओर तो कोई ध्यान देता ही नहीं हैं। उनके कर्ज से तो किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं हो रहा है जबकि पीपीएफ जैसी योजनाओं में निवेशित धन बड़ी बुनियादी परियोजनाओं के निर्माण में होता है।

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