Important of Modern Indian History (Adunik Bharat) for Hindi Notes Exam

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CHAPTER: Indigo Movement

  • देशी और विदेशी शोषण को खत्म करने के लिए किसानों ने कई छिटपुट कोशिश की, जो नाकाम रही।
  • स्थानीय स्तर पर जब उनके सामूहिक संघर्ष विफल हुए, तो उनके विरोध ने अपराध का रास्ता पकड़ा।

1859 - 60 का नील आंदोलन-

  • किसानों दव्ारा किए गए संघर्ष में यह सबसे जुझारू और सबसे बड़े पैमाने पर फैला था।
  • यह आंदोलन नील उत्पादकों दव्ारा बंगाल के किसानों को उनके खेतों में चावल की जगह नील की खेती करने पर मजबूर किए जाने के कारण हुआ था।
  • ज्यादातर नील-उत्पादक यूरोपीय थे और ग्रामीण इलाके में उनके कारखाने हुआ करते थे।
  • किसानों को अग्रिम (बाजार मूल्य से बहुत कम) देकर किसानो से करार लिखा लिया जाता था, जिसे किसान चाह कर भी लौटा नहीं सकता था।
  • बाद में करार का तरीका छोड़ किसानों को आंतकित कर उत्पादन कराया जाने लगा।
  • 1857 में 29 नील -उत्पादकों और एक जमींदार की ‘ऑनरेरी मजिस्ट्रेट’ नियुक्त किया गया। तभी से यह प्रचलित हुई ‘जो रक्षक, वही भक्षक’ ।
  • 17 अगस्त, 1859 को, डिप्टी मजिस्ट्रेट हेम चंद्राकर से एक सरकारी आदेश पढ़ने में चूक की वजह से उन्होंने पुलिस के नाम फरमान जारी कर दिया कि -रैयत अपनी मरजी से फसल उगा सकेंगे।
  • इस फरमान से बंगाल के किसानों को लगा सरकार उनका साथ देगी, तो उन्होंने शांतिपूर्ण तरीकों से संघर्ष चलाया।
  • जब शांतिपूर्ण तरीकों का असर नहीं हुआ तो उन्होंने विद्रोह की शुरूआत सितंबर, 1859 नदियाँ जिलके गोविंदपुर गांव से की। दो भूतपूर्व कर्मचारी दिगंबर विश्वास व विष्णु विश्वास के नेतृत्व में किसानों ने नील की खेती बंद कर दी। यह दूसरे क्षेत्रों में भी फैली।
  • 1860 की वसंत ऋतु तक पूरे बंगाल में यह आंदोलन फैल गया।
  • जब किसानों की जमीन छीन लेने व लगान बढ़ाने की धमकी दी गई, तो किसानों ने लगान चुकाना ही बंद कर दिया।
  • उत्पादकों के खिलाफ मुकदमें दायर किए गए और उनके नौकरों का सामाजिक बहिष्कार भी किया गया।
  • एकजुट प्रतिरोध को उत्पादक झेल नहीं पाए और 1860 तक नील की खेती पूरी तरह खत्म हो गई।
  • ब्गाांल के बुद्धिजीवियों ने किसानों के समर्थन में सशक्त अभियान चलाया।
  • ‘हिन्दू पैट्रियट’ के संपादक हरीशचंद्र मुखर्जी ने काफी काम किया।
  • दीनबंधु मित्र का नाटक ‘नील दर्पण’ इसी आंदोलन पर आधारित है।
  • ब्गाांल के लेफ्िटिनेंट गवर्नर- “सारे झगड़े की जड़ यह है कि नील-उत्पादक बिना पैसे दिए ही रैयतों को नील की खेती करने पर मजबूर करते है।”
  • नवंबर 1860 में सरकार ने अधिसूचना जारी कि- “किसी रैयत को नील की खेती के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा” , पर तब तक उत्पादक खुद ही अपने कारखाने समेटने लगे थे।
  • इस आंदोलन में सरकार का रवैया काफी संतुलित था।

पाबना विद्रोह 1873 - 76:-

  • ज्म़ाींदारों ने लगान की दरें कानूनी सीमा से ज्यादा बढ़ा दी। उनकी फसलों और पशुओं की जब्ती करते व उन्हें मुकदमों में भी फँसा देते।
  • 1859 के अधिनियम 10 के तहत काश्तकारों को जो अधिकार (जमीन पर कब्जे) दिए गए, जमींदार उससे उन्हें वंचित रखने की कोशिश करते।
  • 1873 में पाबना में यूसुफशाही परगना में किसान संघ की स्थापना की गई। संघ ने ‘लगान-हड़ताल’ की और बढ़ा हुआ कर चुकाने से इंकार किया।
  • जमीदारों के खिलाफ मुकदमें दायर किए गए। यह लड़ाई मुख्यत: कानूनी ही रही। यह संघर्ष बंगाल के और जिलो में भी फेला।
  • जिन मामलों में हिंसात्मक वारदातें (बहुत ही कम) हुई वहाँ सरकार ने जमीदारों का पक्ष लिया अन्यथा तटस्थ रूख अपनाया।
  • कृषक अशांति 1885 तक रही, पर ढेर सारे विवाद पहले सुलझा लिए गए थे।
  • 1885 में बंगाल काश्तकारी कानून बनाया गया।
  • विद्रोह के नेताओं ने नारा दिया- “हम महारानी और सिर्फ महारानी के रैयत होना चाहते है।”
  • युवा बुद्धिजीवियों ने आंदोलन का समर्थन किया। बंकिम चंद्र चट्‌टोपाध्याय और आर. सी. दत्त भी शामिल थे।
  • 1880 के दशक में काश्तकारी (बंगाल) विधेयक पर बहस चली, तब सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, आनंदमोहन बोस और दव्ारकानाथ गांगुली ने एसोसिएशन के माध्यम से अभियान चलाया। रैयत संघो के गठन में मदद की और लगान विधेयक का समर्थन किया।
  • इंडियन एसोसिएशन और कुछ अखबारों ने लगान का स्थायी निर्धारण की बात की।

1875 का दक्कन उपद्रव-

  • पूना अहमदनगर ज़िलों में रैयतवारी प्रणाली के तहत लगान की वसूली किसान से की जाती थी और किसान ही जमीन के मालिक होते।
  • 1860 के दशक में अमरीकी गृहयुद्ध के कारण कपास के निर्यात में बढ़ोत्तरी हुई एवं 1864 में युद्ध खत्म हो जाने से निर्यात में काफी मंदी आई।
  • 1867 में सरकार ने लगान की दर 50 प्रतिशत बढ़ा दी।
  • किसान लगान चुकाने के लिए महाजन से पैसे लेने को मजबूर हो गए। महाजनो ने कर्ज के बदले जमीन और घर रखवा लेते थे।
  • 1874 में सिरूर तालुका में कालूराम नामक महाजन ने एक कर्जदार किसान के खिलाफ डिग्री ले कर उसके घर पर कब्जा कर लिया। तब महाजनों का सामाजिक बहिष्कार शुरू किया गया।
  • सामाजिक बहिष्कार पूना, अहमदनगर, शोलापुर और सतारा ज़िलों के गाँवों में फैल गया।
  • 12 मई 1875, भीमथरी तालुका के सूपा इलाके के किसानों ने महाजनों के घरों और दुकानों पर हमला कर अदालतों की डिग्रियाँ व दूसरे दस्तावेज जला दिए।
  • उपद्रव में हिंसा बहुत कम हुई।
  • दक्कन-कृषक राहत अधिनियम 1879 के माध्यम से किसानों को महाजनों के खिलाफ कुछ संरक्षण प्राप्त हुए।
  • 1873 - 77 में न्यायमूर्ति रानाडे के नेतृत्व में पूना सार्वजनिक सभा ने भू-राजस्व समझौता अधिनियम 1867 के खिलाफ पूना और बंबई में आंदोलन चलाया।
  • मलाबार में मोपिलला विद्रोह हुआ।
  • महाराष्ट्र में 1879 में वासुदेव वलवंत फड़के ने 50 किसानों के संगठित कर लूटपाट करने लगे।
  • प्जाांब का कुका आंदोलन का नेतृत्व बाग रामसिंह ने किया। 1872 में 49 विद्रोहियों को मार डाला गया।
  • असम में 1893 - 94 के दौराना ऊँची लगान के खिलाफ आंदोलन हुआ।
  • 1858 के बाद किसन विद्रोह के प्रति सरकार का रवैया समझौतावादी व नरम रहा क्योंकि इन आंदोलनों में ब्रिटिश हुकुमत के चुनौती नहीं दि गई।
  • किसानों का आंदोलन सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ था न कि ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ।