व्यक्तित्व एवं विचार (Personality and Thought) Part 23 for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.

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आर्थिक दृष्टिकोण ~NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.: व्यक्तित्व एवं विचार (Personality and Thought) Part 23

अंबेडकर मूलत: अर्थशास्त्री थे। उनका आर्थिक चिंतन उनके समेकित सामाजिक चिंतन का एक पक्ष है, जो कि उनके यथार्थ के अनुभव से उदवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू भुत है। उन्होंने पाया कि वर्ण, जाति एवं जजमानी दव्ारा संचालित हिन्दू समाज का पारपंरिक सामाजिक-आर्थिक ढाँचा न केवल अन्यायपूर्ण है अपितु अवैज्ञानिक भी है। प्रगति की दौड़ में एवं समाज के संतुलन में, विकास में सबकी भागीदारी आवश्यक है।

अंबेडकर का मानना है कि जिस हिन्दू ढाँचे पर सामाजिक रचना है उसमें व्यक्ति को अपनी योग्यता एवं रुचि के अनुकूल व्यवसाय चुनने की आजादी नहीं है। जाति केवल व्यक्ति के पेशे का निर्धारण नहीं करती है अपितु उसे वंश दर वंश उसी पेशे से बाँध देती है, ऐसे समाज में वे लोग लाभान्वित होते हैं जो उत्पादन प्रक्रिया में प्रत्यक्षत: न तो भागीदार होते हैं और न ही कोई शारीरिक श्रम करते हैं। वे दूसरों के पसीनों पर अपने वैभव का महल बनाते हैं, और सवर्णो की सेवा करने वाले, दिन रात पसीना बहाने वाले दलित को इतना पारिश्रमिक भी नहीं मिलता कि वह इज्जत की रोटी खा सके।

वर्ण एवं जाति व्यवस्थाओं का जो श्रम विभाजन है वह अस्वाभाविक एवं दोषपूर्ण है। अंबेडकर ने स्पष्टत: कहा था, चतुवर्ण श्रम विभाजन नहीं है। यदि ऐसा होता तो इसमें श्रमिक को स्वेच्छा से अपना पेशा चुनने का अधिकार होता। जो जैसा व्यवसाय चुनता उसके अनुरूप समाज में उसे मान्यता मिलती किन्तु ऐसा नहीं है। विदव्ान बनिया, बनिया ही रहता है, वह ज्ञान प्रधान ब्राह्यण नहीं बन सकता। ब्राह्यण यदि कृषि करता है तो वह वैश्य नहीं ब्राह्यण ही रहता है। इसलिये चतुवर्ण श्रम विभाजन नहीं है। यह श्रमिकों का विभाजन है जो जन्मजात रूढ़ है, जो जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति की देह में चिपका ही नहीं वरन देह में समाया रहता है और धर्म बन जाता है।

अंबेडकर ने महसूस किया कि जब तक दलितों के विरुद्ध आर्थिक शोषण होता रहेगा तब तक सामाजिक असमानता बनी रहेगी। उनका यह भी तर्क था कि अछूत एवं दलित वर्ग के लिये अनेकों व्यवसायों पर प्रतिबंध है, इसलिये वे निर्धन एवं कमजोर है। प्राय: उनसे शारीरिक श्रम लिया जाता है। कृषि योग्य भूमि का उचित बँटवारा न होना भी दलित वर्ग की गरीबी का मुख्य कारण रहा है। वे मानते थे कि जमींदारी प्रथा के चलते कृषकों की गरीबी दूर नहीं हो सकती। जब तक भूस्वामी बने रहेंगे, भूमिहीन कृषक भी बने रहेंगे। वे जमींदारी प्रथा के खात्मे के धुर समर्थक थे।

उनकी धारणा थी कि सहकारिता पर आधारित खेती से किसानों की दशा सुधर सकती है किन्तु कुछ दिनों बाद उन्हें भ्रम हुआ कि इस प्रथा का रूख वैज्ञानिक समाजवाद की ओर चला जाएगा और साम्यवादी तरीके उन्हें पसंद नहीं थे। फलत: नेहरू की कृषि नीति, मिश्रित अर्थव्यवस्था पर ही उन्होंने भरोसा किया। वास्तव में उनके दिमाग में एक ऐसे आर्थिक परिवेश की कल्पना थी जिसके दव्ारा कृषि एवं उद्योगों के उत्पादन में सभी की भागीदारी हो एवं दरिद्रता का विनाश हो सके। किन्तु सबसे पहले अछूतोद्धार उनकी मुख्य समस्या थी और इसी के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने आर्थिक परिवर्तनों की बात की। वे उस आर्थिक व्यवस्था को अवांछनीय मानते थे, जिससे दलितों के हितों का संपादन न हो।

उनका मानना था कि जाति भावनाओं से आर्थिक विकास रुकता है। इससे वे स्थितियां पैदा होती हैं जो कृषि तथा अन्य क्षेत्रों में सामूहिक प्रयत्नों के विरुद्ध हैं। जात-पात के रहते हुए ग्रामीण विकास समाजवादी सिद्धांतों के विरुद्ध रहेगा। पूंजीवाद आर्थिक विषमता उत्पन्न करता है, साम्यवाद असमानता और शोषण को समाप्त करता है, किन्तु मजदूर की इच्छा का हनन भी करता है। स्वतंत्रता एवं समानता समाजवाद से ही संभव है। समाज के बहुसंख्यक कमजोर वर्ग के लोगों को आर्थिक शोषण के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करने के लिये अंबेडकर ने संविधान में समाजवाद को सम्मिलित किए जाने की सिफारिश की थी। वे कृषि को राज्य उद्योग के रूप में विकसित करने के पक्षधर थे और उनका मानना था कि निजी क्षेत्र से औद्योगिक प्रगति संभव नहीं है।

उनके अनुसार लोकतांत्रिक पूंजीवादी अर्थरचना में जिसे हम स्वतंत्रता कहते हैं, वह स्वतंत्रता मजदूर अथवा भूमिहीन श्रमिक की नहीं है। यह स्वतंत्रता भूस्वामियों की है, जिससे वे किराया बढ़ा सकें, यह स्वतंत्रता बड़े-बड़े पूंजीपतियों की है ताकि वे काम के घंटे बढ़ा सकें, यह स्वतंत्रता उन लोगों की है जो श्रमिकों का वेतन कम कर सके और शोषितों की मुसीबत बढ़ा सकें।

अंबेडकर साम्यवादी व्यवस्था को पसंद नहीं करते थे। उनका मानना था कि इससे पूंजीवाद का तो खात्मा हो सकता है परन्तु व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हमें गला घोटना पड़ सकता है। राज्य समाजवाद के माध्यम से ही समस्या का निदान हो सकता है।

अन्तत: कहा जा सकता है कि अंबेडकर की अर्थशास्त्ऱ के प्रति गहरी रुचि थी। सामाजिक विषमताओं को समाप्त करने के लिये आर्थिक चिंतन जो उनके पास था, वह समाजवादी एवं समय सापेक्ष था, किन्तु वे अछूतोंद्धार की समस्या से ही जीवन भर लड़ते रहे और अपने प्रतिपाद्य विषय की ओर उनका चिंतन विशेष नहीं गया और वे समाज सुधार संबंधी कार्यो में ही लगे रहे। इनका मानना था कि धर्म, सामाजिक परिस्थिति और संपत्ति सभी समान रूप से शक्ति और सत्ता के स्त्रोत हैं। इसलिए मूलभूत सामाजिक सुधारों को लागू किए बिना आर्थिक सुधारों को लागू करना कठिन होगा।