व्यक्तित्व एवं विचार (Personality and Thought) Part 32 for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.

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आजाद हिन्द फौज ~NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.: व्यक्तित्व एवं विचार (Personality and Thought) Part 32

दव्तीय विश्व युद्ध के दौरान रूस तथा जर्मनी में युद्ध छिड़ गया और सुदूर पूर्व में जापानी साम्राज्यवाद अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया। 15 फरवरी, 1942 ई. को जापानियों ने सिंगापुर पर अधिकार कर लिया। इन परिस्थितियों के मध्य 28 मार्च, 1942 ई. को रास बिहारी बोस ने टोक्यों में एक सम्मेलन बुलाया। इसमें यह तय किया गया कि भारतीय अफसरों के अधीन एक भारतीय राष्ट्रीय सेना संगठित की जाए। 23 जून, 1942 ई. को बर्मा, मलाया, थाइलैंड, हिन्दचीन, फिलीपीन्स, जापान, चीन, हांगकांग तथा इंडोनेशिया के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन रास बिहारी बोस की अध्यक्षता में बैंकाक में हुआ।

इस बीच जापानियों ने उत्तरी मलाया में ब्रिटिश सेना को पराजित किया। वहाँ पहली भारतीय बटालियन के कप्तान (नायक) मोहन सिंह तथा उनके सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा। जापानियों के कहने पर वे भारत की स्वतंत्रता के लिए उनसे सहयोग करने को तैयार हुए। सिंगापुर के 40,000 भारतीय युद्धबंदी मोहन सिंह को सुपुर्द किए गए। मोहन सिंह की इच्छा थी कि आजाद हिन्द फौज की स्वतंत्र कार्यवाही के लिए उसे स्वाधीन रखा जाए। परन्तु जापानी इससे सहमत नहीं थे। परिणामस्वरूप दोनों पक्षों में तनाव बढ़ गया और मोहन सिंह गिरफ्तार कर लिए गए परन्तु बाद में उन्हें रिहा किया गया।

फरवरी, 1943 ई. में सुभाष बोस एक जापानी पनडुब्बी का सहारा लेते हुए टोक्यों पहुँचे। जापान के प्रधानमंत्री ने उनका स्वागत किया। सिंगापुर में रास बिहारी बोस ने आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व सुभाष चन्द्र बोस को सौंप दिया। सुभाष चन्द्र बोस ने ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया उन्होंने आजाद हिन्द फौज को लेकर हिन्दूस्तान जाने की घोषणा की। जापान ने सबसे पहले आजाद हिन्द की फौज की अस्थायी सरकार को मान्यता प्रदान की। जापान ने 31 दिसंबर, 1943 ई. को अंडमान एवं निकोबार इस सरकार को सौंप दिया। इनका नाम क्रमश: शहीद और स्वराज रखा गया।

जनवरी, 1944 ई. में आजाद हिन्द फौज के कुछ दस्ते रंगून पहुँचे। सुभाष चन्द्र बोस ने सेना की कुछ टुकड़ियों को रंगून में रखने का तथा कुछ को लेकर आगे बढ़ने का निश्चय किया। मई, 1944 ई. तक आजाद हिन्द फौज की कुछ सैनिक कोहिमा तक जा पहुँचे। इस स्थान पर अधिकार करके उन्होंने भारतीय तिरंगा झंडा फहराया। ब्रिटिश सेनाओं ने विभिन्न भागों से बढ़ रहे आजाद हिन्द फौज की टुकड़ियों पर भारी हमला कर दिया, परन्तु इस संकटपूर्ण परिस्थिति में जापानियों ने उन्हें सहायता नहीं पहुँचाई। प्रारंभिक सफलता के बावजूद भूखमरी और बीमारी के कारण आजाद हिन्द फौज के सैनिकों की दशा बिगड़ने लगी। इसका लाभ उठाकर 1944 ई. के मध्य में अंग्रेजों ने पुन: बर्मा पर कब्जा कर लिया।

यद्यपि आजाद हिन्द फौज के सैनिकों ने देश प्रेम की भावना से प्रेरित होकर कई कठिनाइयों का सामना किया, परन्तु वे अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सके। इसका वास्तविक कारण अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां थी। आजाद हिन्द फौज के नेताओं को यह अहसास था कि धूरी राष्ट्र की जीत होगी, लेकिन सुभाष चन्द्र बोस के टोक्यों पहुँचने तक फासिस्ट शक्तियों की हार शुरू हो गई थी। इसके अतिरिक्त जापान ने शुरू से ही आजाद हिन्द फौज को स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने दिया तथा समुचित सहायता प्रदान नहीं की। आजाद हिन्द फौज के पास अच्छे अस्त्रों, (शस्त्रों) , धन तथा रसद की कमी हमेशा बनी रही। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश सरकार ने भारत की सीमा पर उनके विरुद्ध सशस्त्र सेनाएं भेजी, जिसके सामने आजाद हिन्द फौज असफल रहा। परन्तु उनका बलिदान बेकार नहीं गया। उन्होंने जनता में देश प्रेम की भावना भर दी तथा ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाए रखा।

आजाद हिन्द फौज का मुकदमा ~NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.: व्यक्तित्व एवं विचार (Personality and Thought) Part 32

1945 ई. में आजाद हिन्द फौज में सिपाहियों दव्ारा समर्पण के बाद सरकार उन पर निष्ठा की शपथ (सरकार के प्रति) तोड़ने के आरोप में लालकिले में मुकदमा चलाने का निर्णय लिया। सरकार के इस निर्णय के विरुद्ध पूरे देश में आंदोलन शुरू हो गए, कांग्रेस ने आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों को बचाने के लिए ‘आजाद हिन्द बचाव समिति’ गठित की। भूलाभाई देसाई बचाव पक्ष के वकीलों में प्रमुख थे। उनका सहयोग करने के लिए तेज बहादुर सप्रू, काटजू, नेहरू तथा गोविन्द सिंह ने भी अदालत में बहस की। आजाद हिन्द फौज के सिपाही सरदार गुरु बख्श सिंह, श्री प्रेम सहगल एवं शाहनवाज पर मुकदमा चलाया गया। संक्षिप्त मुकदमें के बाद इन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई। सरकार के इस निर्णय ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया। लोगों के हस्ताक्षर सभाओं के दौर ने वायसराय को अपना विशेष अधिकार प्रयोग कर तीनों की फांसी माफ करने को विवश कर दिया। इस आंदोलन ने पूरे राष्ट्र में एक अनोखी एकता की मिसाल कायम की तथा ब्रिटिश सरकार को झुकने पर मजबूर किया।