Science and Technology: Mycorrhizas as Bio Fertilizers and Applications

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निम्नतापी शल्य चिकित्सा के विभिन्न चरण (Different Stages of Inferior Surgery)

जैव उर्वरक के रूप में माइकोराइजा (Mycorrhizas as Bio Fertilizers)

  • माइकोराइजा कवक तथा बीज वाले कई पौधों की जड़ों के मध्य के सहजीवी संबंधों से उत्पन्न होते हैं। लेकिन वैज्ञानिकों ने इस संबंध में प्रायोगिक साक्ष्य प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त नहीं की है। माइकोराइजा दव्ारा जड़ों की आयु तथा उनकी जल एवं खनिज अवशोषण क्षमता में वृद्धि करने में विशिष्ट योगदान दिया जाता है।
  • माइकोराइजा की कई प्रजातियों में खनिजों का उत्पादन करने को भी क्षमता विद्यमान होती है जिसके कारण वे जड़ों की संवृद्धि में भी सहायक होते हैं। जैव उर्वरकों के रूप में माइकोराइजा का उपयोग मृदा की उर्वरता तथा पौधों में पोषण स्तर में वृद्धि करने के उद्देश्य से किया जाता है।

जैव संवेदक (Biosensors)

जैव संवेदक एक उपकरण है, जो जैव संकेतों का संश्लेषण कर इन्हें विद्युत तरंगों में परिवर्तित कर देता है। इस उपकरण मे एक जैविक तथा एक भौतिक भाग होता है। भौतिक भाग अथवा संवेदक कार्बन इलेक्ट्रोड, ऑक्सीजन इलेक्ट्रोड, आयन-संवेदनशील इलेक्ट्राड अथवा थर्मिस्टर हो सकते हैं। दूसरी ओर, जैविक अंश एन्जाइम, हार्मोन, न्यूक्लिक एसिड अथवा पूरी कोशिका हो सकती है। 1987 में, सर्वप्रथम संयुक्त राज्य अमेरिका में एक जैव संवेदक विकसित किया गया था, जिसका उद्देश्य रक्त में शर्करा की मात्रा की माप करना था। भारत में, कराईकुड़ी स्थित केन्द्रीय विद्युत-रसायन अनुसंधान संस्थान (Central Electrochemical Research Institute, CECRI) में एक शर्करा संवेदक विकसित किया गया है।

जैव संवेदक कई प्रकार के हो सकते हैं:

  • एम्पेरोमेट्रिक (Amperometric) : इसमें एन्जाइम इलेक्ट्रोड अथवा रासायनिक रूप से परिवर्तित इलेक्ट्रोड प्रयुक्त होते हैं। ऐसे संवेदकों के सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों में ऑक्सीजन तथा पेरॉक्साइड-आधारित संवेदकों को सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार के संवेदक ऑक्सीकरण -अपचयन सिद्धांत पर कार्य करते हैं।
  • जैव सजातीय संवेदक (Bio affinity Sensors) : इस प्रकार के संवेदकों दव्ारा चयनात्मकता के उच्च स्तर की प्रस्तुतीकरण की जाती है। इन संवेदकों के निर्माण की संकल्पना अपेक्षाकृत नई है।
  • वैद्युत रासायनिक (Electrochemical) : क्षेत्र प्रभाव ट्रांसमीटर अथवा प्रकाश उत्सर्जन डायोड का प्रयोग करने वाले संवेदकों को वैद्युत रासायनिक संवेदक कहते हैं। इनमें आयन-संवेदनशीलता, एन्जाइम-संवेदनशीलता अथव प्रतिजीवी-संवेदनशीलता का गुण विद्यमान होता है।
  • थर्मिस्टर (Thermistor) : अत्यंत उच्च संवेदन के साथ प्रतिजन -प्रतिजीवी प्रक्रिया का उपयोग करने वाले संवेदक थर्मिस्टर कहलाते हैं। इस संवेदकों में सामान्यत: ऐसे एन्जाइम का प्रयोग किया जाता है जिनका स्थायीकरण किया गया हो।

अनुप्रयोग (Applications)

  • जैव संवेदक का प्रयोग शर्करा संश्लेषक के रूप किया जाता है।
  • कुछ रसायनों की उत्परिवर्तनशीलता का पता लगाने के लिए जैव संवेदक प्रयोग में लाये जाते हैं।
  • पर्यावरण प्रदूषण, विशेषकर जल-प्रदूषण पर नियंत्रण।
  • खाद्य पदार्थो के रंग तथा स्वाद की पहचान एवं माप।

जीन चिकित्सा (Gene Therapy)

जीन रोगोपचार आवश्यक रूप से एक ऐसी विधि है, जिसमें किसी रोग के विस्तार को रोकने अथवा उपचार करने के लिए कुछ जीनों की अभिव्यक्ति बदल दी जाती है। 1980 के मध्य इस तकनीक का मुख्य आधार एकल-जीन के दोषों को सुधारना था। इन रोगों में सिस्टिक फाइब्रोसिस (Cystic Fibrosis) , हीमोपफीलिया (Hempophilia) , Duchmenne՚s पेशीय रोग तथा सिकल सेल अल्परक्ता (Sickle Cell Anaemia) । परन्तु 1980 के अंत तथा 1990 के आरंभ में जीन चिकित्सा (Gen Therapy) का दृष्टिकोण कुछ अर्जित रोगों तक विस्तृत हो गया। जीन रोगोपचार में एक अतिरिक्त जीन का प्रत्यारोपण किया जाता है। सोमैटिक जीन रोगोपचार में प्राप्तकर्ता के जीनोम का परिवर्तन किया जाता है। परन्तु यह दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित नहीं होता। दूसरी, ओर, जर्मलाइन रोगोपचार में जीन के बदलने का उद्देश्य पितृत्व विकास को प्रश्रय देना है। श्रींउमे पसेवद (1998) के अनुसार, संवाहकों, जिसे वेक्टर (Vectors) अथवा जीन वाहक (Gene Carrer) कहते हैं, दव्ारा चिकित्सकीय जीन को रोगियों की कोशिकाओं में डालने में बाधाएँ आती हैं। एक बार जीन के कोशिका में पहुंच जाने के उपरांत इसे सही ढंग से निष्पादित करने की आवश्यकता है, क्योंकि शरीर दव्ारा अस्वीकार किये जाने की आंशका के आलोक में जीन अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। पसेवद ने भी स्पष्ट किया कि विषाणुओं ने इन्कैप्सूलेंटिंग (Encapsulating) तथा अपूर्ण जीन को मानव कोशिकाओं में प्रत्यारोपित करने की विधि ढूँढ ली गई है।

सूक्ष्म अंत: क्षेपण (Microinjection)

यह बाह्य डी. एन. ए. को एक जीवित कोशिका में माइक्रोपिपेट दव्ारा प्रत्यारोपित करने की तकनीक है। यह कार्य अणुवीक्षक यंत्र के माध्यम से किया जाता है। टीके दव्ारा लगाया गया डी. एन. ए. अन्तत: कोशिका के परमाणु युक्त डी. एन. ए. के साथ समन्वित हो जाता है। यह तकनीक ट्रांसजेनिक प्रकार के जीनों को विकसित करने के लिए भी प्रयोग में लाई जाती है।

मैजिक बुलेट (Magic Bullet)

यह एक औषधि वितरण प्रणाली है, जिसमें एक कोशिका जिस पर उचित उपचार का अणु भरा हुआ है, रोगी के शरीर में टीके के रूप में लगा दिया जाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यह अणु परिसंचरण तंत्र प्रणाली दव्ारा चलता रहता है, और अभीष्ट स्थान पर पहँुंच जाता है।

उत्तक संवर्द्धन (Tissue Culture)

वर्ष 1963 में व्हाइट (White) ने प्रयोगों के आधार पर स्पष्ट किया था कि उपयुक्त परिस्थितियों में बहुकोशीय जीवों में स्वतंत्र रूप से विकसित होने की क्षमता विद्यमान होती है। उत्तक संवर्द्धन एक ऐसी तकनीक है, जिसमें किसी एक प्रकार की फसल, उसमें होने वाले रोग तथा अन्य प्रतिजनों का प्रतिरोध करने की क्षमता विकसित की जाती है। विकसित करने के लिए कोशिकाओं का प्रयोगशाला में संवर्द्धन किया जाता है। इसलिए इस तकनीक का बहुत अधिक प्रयोग विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है, जैसे कृषि, उद्यान कृषि, वानिकी तथा उद्योग। आधुनिक अनुसंधान के कारण उत्तक संवर्द्धन की भूमिका का विस्तार कई विशिष्ट क्षेत्रों में हो गया है। इन क्षेत्रों में टमाटर में नमक सहने की शक्ति का विकास, हिम-विरोधी तम्बाकू के पौधे तथा शाकनाशक-प्रतिरोधी शस्य फसलों का विकास प्रमुख है। अन्य उपयोगिताओं में निम्न प्रमुख हैं:

  • संकर प्रजातियों का सुधार।
  • युग्मकीय विभिन्नताओं का सुनिश्चितीकरण।
  • अप्रभावी जीनों की आरंभिक अभिव्यक्ति।
  • आवर्णी बीजों का उत्पादन।
  • रोग प्रतिरोधी पौधों का उत्पादन।
  • तनाव विरोधी पौधों का उत्पादन।
  • वृक्षों की संवृद्धि।

उत्तक संवर्धन की सहायता से पौधों में प्राथमिक उत्पादन होता है। यह जीन की दृष्टि से निर्मित C-3 पौधों तथा इनका C-4 में परिवर्तन होने से संभव होता है। उत्तक संवर्द्धन तकनीक शारीरिक संकरण (Somatic Hybridization) के लिए भी प्रयोग में लाई जा रही है। यह पाया गया है, कि जब कोशिकाएं अपनी दीवारों से छील कर उतार दी जाती हैं और निकट संपर्क में आती हैं, तो वे एक दूसरे के साथ जुड़ने के लिए प्रवृत्त होती हैं। इस तकनीक का प्रभावशाली प्रयोग जीन संबंधी पदार्थों में समन्वय की स्थापना के लिए Petunia तथा Nicotiana नामक पौधों में किया गया है।