Science and Technology: New Developments in Bio-Technology

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जैव प्रोद्योगिकी में नवीन विकास (New Developments in Bio-Technology)

  • जीन पेटेंट (Gene Patenting) - किसी जीव विशेष के एक विशिष्ट डीएनए अनुक्रम का पेटेंट किया जाना जीन पेटेंट कहलाता है। मानव जीन क्रम को अलग करने के लिए शोध कार्य चल रहा है ताकि इसके जरिए रोगों का पता लगाया जा सके। यह जानने का प्रयास किया जा रहा है कि जीन किस प्रकार कार्य करते हैं, अर्थात्‌ क्या इनके कारण कोई बीमारी होती है या नहीं? जीन पेटेंट में तीन चरण अपनाए जाते हैं-
    • पता लगाया जाना (Diagnostic)
    • पदार्थ से संघटक (Compositions of Matter)
    • प्रकार्यात्मक उपयोग (Functional Application)
    • पता लगाया जा (Diagnostic) - इसके अंतर्गत व्यक्ति में रोग उत्पन्न करने वाले जीन की पहचान की जाती है। उदाहरण के तौर पर प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री एन्जेलीना जोली ने मायरीयाड परीक्षण (Myriad Test) से जब यह जानकारी ली कि उनके शरीर में स्तन कैंसर या अंडाशय कैंसर के जीन (BRCA) हैं तो उन्होने उबल मैस्टेक्टॉमी (Double Mastectomy) सर्जरी करवाई। माइरीयाड जेनेटिक्स कंपनी ने अपने पेटेंट के आधार पर यह दावा किया कि केवल उसी के पास बीआरसीए जीन (Gene BRCA) के परीक्षण का विशिष्ट अधिकार है। इसे रोग जीन पेटेंट भी कहा जाता है। यह मामला कुछ दिनों पूर्व विवादग्रस्त रहा क्योंकि सामन्यत: यह माना जाता है कि प्रकृति के कच्चे उत्पाद (Raw Product) का पेटेंट नहीं किया जाना चाहिए।
    • पदार्थ के संघटक (Compositions of Matter) - किसी पदार्थ के मानव अनुवंशिक अवयवों के पेटेंट रसायनों और तकनीकों से सम्बंद्ध होते हैं। उदाहरण के लिए मानव इंसुलिए, मानव वृद्धि हारमोन और अन्य अनेक प्रोटीन जिन्हें मानव रक्त या मूत्र से अलग किया जा सकता है, उनका पेटेंट हो सकता है।
    • प्रकार्यात्मक उपयोग (Functional Application) - जीन पेटेंट का अंतिम पहलू जीन के प्रकार्यात्मक उपयोग से जुड़ा है। ये पेटेंट किसी रोग या अन्य शारीरिक एवं कोशिकीय कार्यों में जीन की भूमिका का पता लगाने से सम्बन्ध होते हैं।
  • पार्कीन (Parkin) : पार्कीन नामक एक विशिष्ट प्रोटीन पर शोध कार्य चल रहे हैं। यह जानकारी मिली है कि इस प्रोटीन की कार्यशैली में कमी के कारण तंत्रिका कोशिकाएँ नष्ट होने लगती हैं। यह स्थिति पार्किंसन रोग में देखी जाती है। एक अन्य शोध में यह भी पता चला है कि टीबी रोग में भी पार्कीन प्रोटीन की कार्यप्रणाली का प्रभाव पड़ता है। यह शोध किया गया है कि ‘पार्कीन’ प्रतिरक्षी कोशिकाओं (माइक्रोफेज) के उपयोग से टीबी के लिए उत्तरदायी जीवाणु को नष्ट कर देता है। यह जीवाणु जब माइक्रोफेज पर प्रभाव डालता है तो माइक्रोफेज में निहित कोश इसे अपने में समाहित (Engulf) कर लेता है।
  • एमआईजी 6 (MIG6) : यह सर्वविदित है कि हमारे संपूर्ण जीवन काल में शरीर के अंदर की कोशिकाएँ सामान्य तौर पर नष्ट होती रहती है। यदि कोशिकाएँ नष्ट न हों और ये बहुगुणित होती जाएं तो ये ट्‌यूमर का रूप ले सकती हैं। यह स्थिति कैंसर का कारण बनती है।
    • सामान्य तौर पर शरीर के अंदर कोशिकाओं में होने वाली जैव रासायनिक प्रक्रियाएँ इन कोशिकाओं के स्वत: नष्ट होने में सहायक होती हैं।
    • इन जैव-रासायनिक प्रक्रियाओं (MIG6) में नाम एक प्रोटीन की महत्वपूर्ण भूमिका का पता चला है। यह खोज की गई है कि MIG6 प्रोटीन एपीथेलियल (Epithelial) कोशिकाओं को नष्ट करने में सहायक होता है। अत: इनके बहुुगुणित होकर ट्‌यूमर बनने की संभावना कम होती जाती है। MIG6 एक अंतराकोशिकीय संवेदक (Intracellular Sensor) के रूप में कार्य करता है जो कि एपीडर्मल ग्रोथ फैक्टर (EGF) नामक प्रोटीन की अनुपस्थिति का पता लगाता है और ऐसी स्थिति में MIG6 कोशिकाओं को नष्ट होने को प्रेरित करता है।
    • उल्लेखनीय है कि EGF नामक प्रोटीन की ही जैव-रासायनिक प्रक्रियाओं (Epithelial Homeostasis) में प्राथमिक भूमिका होती है।
    • शोध में यह जानकारी मिली है कि अनेक मानवीय एपीथेलियल (फेफड़ा, अग्न्याशय, स्तन एवं चर्म) कैंसर में MIG6 की उपर्युक्त कार्यशैली की कमी रहती है।
    • Mi RNA: सामान्य तौर पर RNA की भूमिका प्रोटीन निर्माण की होती है। माइक्रो आर. एन. ए. (mi RNAs) पादपों और जन्तुओं में पाए जाने वाले ऐसे न्यूक्लिओटाइड आर. एन. ए. क्रम हैं जो प्रोटीन को कूटबद्ध (encode) नहीं करते बल्कि जीन विनियमन (Gene Regulation) में सहयोगी होते हैं और लगभग सभी जैविक प्रक्रियाओं में कार्य कर सकते हैं।
    • माइक्रो आर. एन. ए. लगभग सभी कोशिकाओं में पाए जाते हैं और प्रत्येक कोशिका में 10 से 100 जीनों (Genes) को विनियमित करते हैं। इन आर. एन. ए. का उपयोग जीन को रोगाेें से लड़ने में सक्षम बनाने में भी किया जा सकता है। इस प्रकार ये थेराप्यूटिक पोटेंशियल (Therapeutic Potential) के रूप में भी कार्य कर सकते हैं।
  • मेटैस्टेसिस स्तंभ कोशिका (Metastasis Stem Cell) : कैसर कोशिकाएँ जो मूल ट्‌यूमर से टूटकर रक्त प्रवाह में प्रवेश करती हैं वे मेटैस्टेसिस स्तंभ कोशिकाओं के विकास के लिए उत्तरदायी होती हैं। ये दव्तीयक ट्‌यूमर ही कैंसर जनित मृत्यु का कारण बनते हैं। प्राय: रोगी के रक्त में उपस्थित सर्कुलेटिंग ट्‌यूमर सेल (CTC) रोग के क्षीण पूर्वानुमान से संबंद्ध होते है।
    • पहले यह समझा जाता था कि कुछ सर्कुलेटिंग ट्‌यूमर सेल ही विभिन्न अंगों में दव्तीय ट्‌यूमर (Secondary Tumor) बनाते हैं क्योंकि अनेक रोगियों के रक्त कैंसर कोशिकाओं की उपस्थिति के बावजूद इनमें मेटैस्टेसिस स्तंभ कोशिकाओं का विकास नहीं होता है।
    • अब यह प्रमाणित किया गया है कि CTC मेटैस्टेसिस स्तंभ कोशिकाओं को धारित (Contain) करती हैं।
    • मेटैस्टेसिस स्तंभ कोशिकाओं की जाँच में यह पता चला है कि पृष्टीय अणुओं (Three Surface Molecules: Triple Positive Cells) से युक्त ये कोशिकाएँ कुल CTC के 0.6 से 33 प्रतिशत होती है। ये अणु कैंसर हो सकने की संभावना जताते हैं। इस प्रकार, ये बायोमार्कर की भाँति कार्य करते हैं। जाँच के दौरान देखा गया है कि रोग का असर बढ़ने की स्थिति में ट्रिपल पॉजिटिव कोशिकाओं की संख्या बढ़ती है जबकि CTC की कुल संख्या नहीं बढ़ती।
  • डी. एन. ए. एडीटिंग की नई तकनीक (New Technology of Gene Editing) : वैज्ञानिकों ने डी. एन. ए. एडीटिंग की नई तकनीक का पता लगाया है। इस शोध में TALE (ट्रांसकीप्शन-एक्टीवेटर-लाइक इफेक्टर्स) नामक डीएनए बाइंडिंग प्रोटीन का उपयोग किया गया है। जीव वैज्ञानिक इस प्रोटीन का उपयोग कोशिकाओं में निहित जीनों के अध्ययन में करते हैं। इस प्रोटीन का इस्तेमाल जैव प्रौद्योगिकीय और चिकित्सकीय अनुप्रयोगों में भी किया जाता है।
    • ये डिज़ाइनर TALE कुछ पादप संक्रमणकारी जीवाणु से उत्पन्न होने वाले प्राकृतिक TALE प्रोटीनों पर आधारित होते हैं। वैज्ञानिकों ने पाया कि वे TALE प्रोटीनों के डीएनए भक्षणकारी हिस्से (DNA Grabbing Segment) में परिवर्तन कर इसे इच्छित डीएनए क्रम से जोड़ सकते हैं। इस डीएनए बाइंडिंग हिस्से (DNA Binding Segment) को दूसरे प्रोटीन हिस्से से जोड़कर इससे इच्छित कार्य करवाया जा सकता है।
  • जीन मैपिंग (Gene Mapping) : जीन मैपिंग या जीनोम मैपिंग से तात्पर्य डीएनए अंश को निरूपित करने वाले जेनेटिक मानचित्र (Genetic Map) से है।
    • सामान्यत: गुणसूत्रों पर जीनों या डीएनए अनुक्रमों के क्रम व्यवस्था को ग्राफ रूप में दर्शाया जाना जेनेटिक मानचित्रण कहा जाता है। इसके जरिए किसी जीन या जीनों के वर्ग की स्थिति का पता लगाया जा सकता है और इनकी पहचान की जा सकती है।
    • जेनेटिक मानचित्रण संबंद्ध तकनीकी विकास की सहायता से व्यावहारिक तौर विभिन्न जटिल बीमारियों की पहचान की जा सकती है। तदुनुरूप वांछित दवा की खोज भी की जा सकेगी। लेकिन इस विकास से नैतिक प्रश्न भी उभरता है। जैसे कोई व्यक्ति यह इच्छा भी व्यक्त कर सकता है कि वह अपने शरीर में निहित जीनों का मानचित्रण प्राप्त न करे ताकि किसी संभावित बीमारी के अनुमान से वह भयभीत न हो।
    • पुन: जीन मानचित्रण से संबंद्ध एक अन्य पहलू यह है कि इस मानचित्र के अधिकांश भागों के बारे में अनभिज्ञता प्रतीत होती है। एक ओर जहाँ जीन शरीर के आवश्यक अवयव प्रोटीन के निर्माण का विनियमन करते हैं वही प्रोटीन कूटयुक्त जीन (Protein Coding Genes) पूरे मानव जीनोम का मात्र 1.5 प्रतिशत दर्शाते हैं। अधिकांश गतिविधियाँ शेष 98.5 प्रतिशत जीनों दव्ारा संपन्न की जाती है।
    • जीनोमिक डीएनए अनुक्रम संबंद्ध जानकारियाँ पूरी करने के साथ ही जेनेटिक मानचित्र पूरी तरह तैयार किया जा सकता है। मानचित्रण के दौरान डीएनए अंश छोटे-छोटे जोड़ों (Tags) में दर्शाए जाते हैं। ये जोडे या तो जेनेटिक मार्कर (Genetic Marker) होते है या डीएनए काटने वाले एंजाइम (DNA-Cutting Enzyme) के विशिष्ट प्रकार।
    • जेनेटिक मानचित्रण में जीनोम से संबंद्ध अनुक्रम निर्धारित करने के लिए विशिष्ट प्रकार के जेनेटिक तकनीक का उपयोग किया जाता है। ये तकनीक पेडिग्री एनालिसिस (Pedigree Analysis) और ब्रीडिंग एक्सपेरिमेंट (Breeding Experiment) कहलाते हैं।