Science and Technology: Ocean Technology and Polymetallic Nodules

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महासागरीय प्रौद्योगिकी (Ocean Technology)

बहुधात्विक पिंड (Polymetallic Nodules)

अंतरराष्ट्रीय समुद्र तल प्राधिकरण के अनुसार, समुद्र के विभिन्न क्षेत्रों में पाये जाने वाले धात्विक पिंड निम्नांकित चार प्रकार के होते हैं:-

  • कणिकामय तलछटी (Granular Sediments) : क्वार्ट्‌ज युक्त रेत तथा कणिकाएं तथा कार्बोनेट रेत तथा गाद एवं मिट्‌टी इस श्रेणी के महत्वपूर्ण खनिज हैं। नदियों तथ हिमनदी के प्रवाह की सहायता से महासागरीय जल में प्रविष्ट होने वाले इन खनिजाेें का तलछटीकरण उनके आकार के अनुरूप होता है।
  • प्लेसर खनिज (Placer Minerals) : सोना, हीरा, प्लेर्टिंनम, टिन तथा टिटेनियम प्लेस खनिजों की श्रेणी में सर्वाधिक प्रचलित है।
  • जलतापीय खनिज (Hydrothermal Minerals) : सल्फाईड के भंडार मेंं तांबा, सीसा, जस्ता, सोना, चांदी आदि इस श्रेणी में सम्मिलित हैं। इन खनिजों की उत्पत्ति ज्वालामुखी की गतिविधियों से संबंधित है।
  • जल जनित खनिज (Hydro genetic Minerals) : इनकी उत्पत्ति महासागरीय जल के निक्षेपन के दव्ारा होती है। इस श्रेणी में कोबाल्ट, प्लेटिनम, निकेल, तांबा, तथा विरल मृतिका खनिजों के अतिरिक्त फॉस्फोराइड लवण, बेराईट तथा लौह-मैंग्नीज पिंड सम्मिलित हैं।

बहुधात्विक पिंड आलू के आकार के ऐसे खनिज युग्म हैं जो सागरों की विभिन्न गहराइयों में पाये जाते हैं। लौह मैंग्नीज पिंडों के अतिरिक्त इस श्रेणी में निकेल, तांबा, कोबाल्ट, मोलिबडेनम, वेनेडियम, कैडर्मियम, टिटेनियम आदि के पिंड भी पाये जाते हैं। हिन्द महासागर में 150 लाख वर्ग कि. मी. के क्षेत्र में 3500 से 6000 मी. की गहराई तक इन पिंडों की उपलब्धता है। अंतरराष्ट्रीय समुद्रतल प्राधिकरण दव्ारा भारत को हिन्द महासागर में 1,50, 000 वर्ग किमी. के क्षेत्र में इन पिंडों के खनन का अधिकार प्रदान किया गया है। समुद्र की गहराई के सर्वेक्षण के आधार पर भारत दव्ारा ऐसे कुछ स्थानों की पहचान की गई है जहांँ से बहुधात्विक पिंडों का निष्कासन किया जा सकता है। इस संदर्भ में भारत ने विशिष्टताएं भी विकसित कर ली हैं। वस्तुत: समुद्री खनन के क्षेत्र में भारत दव्ारा विकसित क्षमताओं एवं तकनीकों को वैश्विक स्तर पर मान्यता प्रदान की गई है। वर्ष 1990 में भारतीय जलयान गवेषणी दव्ारा विश्व स्तर पर सर्वप्रथम बहुधात्विक पिंडों का निष्कासन किया गया था।

बहुधात्विक पिंडों के निष्कासन एवं खनन से समुद्री पर्यावरण पर हानिकाकर प्रभाव पड़ने की आंशका होती है। अत: इस कार्य में पर्यावरणीय प्रभावों पर विशेष बल दिया जाता है। भारत ने बंदोबस्त विकास मूल्यांकन तकनीक (Endowment Assessment Technology) तथा जन शक्ति विकास तकनीक (Manpower Development Technology) विकसित कर समुद्री खनन के क्षेत्र में विशिष्टता प्राप्त कर ली है। साथ ही, समुद्री पर्यावरण के सतत्‌ एवं अनुकूलतम उपयोग के सुनिश्चितीकरण के लिए पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन भी किया जाता है। पिंडों के अन्वेषण तथा धातुओं के निष्कासन से संबंधित कार्यक्रमों के मार्गदर्शन तथा पुनरीक्षण हेतु बहुधात्विक पिंड प्रबंधन बोर्ड कार्यरत है। समुद्री खनन में निम्नलिखित चार अवयवों का विशेष योगदान है:

  • सर्वेक्षण तथा अन्वेषण (Survey and Exploration) : सर्वेक्षण की प्रक्रिया तथा अन्वेषण का उद्देश्य बहुधात्विक पिंडों की सापेक्ष सांद्रता तथा गुणवत्ता से संबंधित विशेषताओं का मूल्यांकन करना है। साथ ही इसके माध्यम से समुद्र तल के स्थानाकृत विज्ञान (Topography) का भी अध्ययन संभव है।
  • पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (Environmental Impact Assessment) : एक ओर जहाँं बहुधात्विक पिंडों के सर्वेक्षण तथा अन्वेषण के विशेष प्रभाव परिलक्षित नहीं होते, वहीं दूसरी ओर इनके खनन तथा अन्तत: धातुओं के निष्कासन के फलस्वरूप पौधों तथा जन्तुओं सहित समुद्री पर्यावरण पर व्यापक कुप्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं। भारत सरकार ने रूस के प्राकृतिक संसाधन मंत्रालय के साथ समुद्री पर्यावरण पर पड़ने वाले ऐसे सभी कुप्रभावों की जानकारी के लिए विशेष अध्ययन कार्यक्रम प्रारंभ किया है।
  • तकनीकी विकास (Technical Development) : दुर्गापुर स्थित केन्द्रीय यांत्रिका अभियांत्रिकी संस्थान दव्ारा छिछले (250 मी.) तथा गहरे सागर खनन हेतु नई तकनीकों के विकास का कार्य किया जा रहा है। इन तकनीकों के अंतर्गत उप प्रणालियों का विकास भी किया जाता है। इस कार्य में संस्थान को विशेष सफलता प्राप्त हुई है।

कार्यक्रम के तहत सागरीय जल में कार्बन की मात्रा में होने वाले परिवर्तन का अध्ययन भी किया जाता हैं। इस कार्य को IBGP के तहत संयुक्त वैश्विक महासागरीय परिवर्तन अध्ययन (Joint Global Ocean Flux Study or JGOFS) नामक कार्यक्रम के माध्यम से मूर्तरूप प्रदान किया गया है। भारत दव्ारा अन्य राष्ट्रों के साथ संयुक्त रूप से कार्यक्रम की सफलता हेतु प्रयास किये जा रहे हैं। अरब सागर में कार्बन के मात्रात्मक परिवर्तन के अध्ययन हेतु भारत ने वैश्विक महासागर अवलोकन प्रणाली (Global Ocean Observing System or GOSS) नामक कार्यक्रम का क्रियान्वयन किया है। वैज्ञानिकों के अनुसार, अरब सागर कार्बन डायक्साइड के स्रोत तथा मग्नक (Sink) दोनों ही के रूप में कार्य करता है। GOSS नामक कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य जलवायु का प्रबोधन एवं मूल्यांकन, तटीय पर्यावरण से संबंधित परिवर्तनों तथा समुद्री संसाधनों का विस्तृत अध्ययन करना है। इसके अतिरिक्त, कार्यक्रम के तहत समुद्री मौसम एवं क्रियाशील महासागरीय सेवाओं का अध्ययन भी किया जाता है।

राष्ट्रीय महासागरीय तकनीक संस्थान (National Institute of Ocean Technology)

राष्ट्रीय महासागरीय तकनीक संस्थान की स्थापना चेन्नई में सन्‌ 1993 में की गई थी। संस्थान का सर्वाधिक प्रमुख उद्देश्य महासागर से संबंधित विभिन्न विषयों पर अनुसंधान कार्य करना है। संस्थान ने जर्मनी के सीजेन विश्वविद्यालय के सहयोग से क्रॉलर नामक एक यान का विकास किया है। इसके दव्ारा समुद्री खनन के कार्य में व्यापक सहायता प्राप्त होने की प्रबल संभावना है। इसके अतिरिक्त, संस्थान तथा रूस के एकडेमी ऑफ सायंस (Academy of Science) ने मानव रहित पनडुब्बीनुमा यान के विकास में भी सफलता प्राप्त की है। संस्थान दव्ारा वैज्ञानिक समुदाय को महासागर विकास से संबंधित अनुसंधान कार्यों के लिए वित्तीय तथा अन्य प्रकार की सहायता भी प्रदान की जाती है। महासागरीय विकास विभाग दव्ारा क्रियान्वित COMAPS कार्यक्रम के तहत संस्थान को सागर पूर्वी तथा सागर पश्चिमी नामक जलयानों की जल यात्राओं के प्रबंधन तथा सुनिश्चितीकरण का दायित्व सौंपा गया है। साथ ही तापी ज्वारनदमुख (Tapi Estuary) में अमेरिका के लिमोटेक (Limo Tech) नामक संस्थान दव्ारा कचरा स्वांगीकरण क्षमता (Waste Assimilation Capacity) में वृद्धि करने के प्रयास भी किये जा रहे हैं। अमेरिकी संस्थान के सुझाव पर राष्ट्रीय महासागरीय तकनीक संस्थान दव्ारा भी एन्नोर की सँकरी खाड़ी तथा तटवर्ती क्षेत्र में इसी प्रकार का अध्ययन किया जाएगा।

पर्यावरण (Environment)

वैश्विक पर्यावरण सम्मेलन (Global Conventions on Environment)

मानव पर्यावरण विषय का वैश्विक कल्याण तथा विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है। संयुक्त राष्ट्र मानव पर्यावरण सम्मेलन का आयोजन वर्ष 1972 में स्टॉकहोम में किया गया था। इस सम्मेलन ने यह स्पष्ट किया कि पर्यावरणीय समस्याएं, विशेषकर विकासशील देशों में, पिछड़ेपन के कारण उत्पन्न होती हैं। खाद्यान्न, आवास, वस्त्र तथा शिक्षा की अपर्याप्तता के कारण समस्याएँ अत्यधिक विकराल हो जाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप जनसंख्या का एक बड़ा भाग निम्नतम स्तर पर जीवन यापन करने को विवश हो जाता है। पर्यावरण संरक्षण को प्रभावी बनाने के उद्देश्य से सम्मेलन में निम्नलिखित तथ्यों पर बल दिया गया:

  • वर्तमान तथा भविष्य की पीढ़ी के लाभ हेतु प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण।
  • अत्याचार, जाति, लिंग, धर्म आदि से संबंधित भेदभावपूर्ण नीतियों का उन्मूलन।
  • पृथ्वी की पुनरोत्पादन क्षमता के संरक्षण से नवीकरणीय संसाधनों के उत्पादन का सुनिश्चितीकरण।
  • प्रकृति का संरक्षण तथा वन्य जीवन की सुरक्षा।
  • मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले हानिकारक पदार्थों से होने वाले सागरीय प्रदूषण को कम करने के प्रयास।
  • सुदृढ़ आर्थिक तथा सामाजिक विकास सुनिश्चित करके जीवन के गुणों में सुधार लाने का प्रयास।
  • विषैले पदार्थों एवं अत्यधिक ऊष्मा के निस्तारण को कम कर पारिस्थतिकी तंत्र का संरक्षण।
  • विकास की अपूर्णता तथा प्राकृतिक आपदाओं से उत्पन्न होने वाली पर्यावरणीय समस्याओं के निराकरण हेतु तकनीक हस्तांतरण की प्रक्रिया को त्वरित गति।
  • विकास संबंधी आवश्यकताओं तथा पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों के मध्य विवादों को समाप्त करने का प्रयास।
  • पर्यावरण संबंधी खतरों को पहचानने, उनसे बचने तथा तथा उन पर नियंत्रण रखने के लिए वैज्ञानिक तथा तकनीकी विधियों का अनुप्रयोग।
  • पर्यावरण से संबंधित अंतरराष्ट्रीय विषयों पर वैश्विक सहयोग का सुनिश्चितीकरण।
  • परमाणु अस्त्रों तथा व्यापक विनाशकारी शस्त्रों से मानव तथा उसके पर्यावरण की सुरक्षा।