भारत का आर्थिक इतिहास (Economic History of India) Part 3 for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.

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कृषि का वाणिज्यीकरण ~NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.: भारत का आर्थिक इतिहास (Economic History of India) Part 3

19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय कृषि में एक और महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ, वह था कृषि का वाणिज्यीकरण। इस समय तक कृषि जीवनयापन का एक मार्ग थी न कि व्यापारिक प्रयत्न। अब कृषि पर वाणिज्यिक प्रभाव बढ़ने लगा। अब कुछ विशेष फसलों का उत्पादन राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय बाजर के लिये होने लगा न कि ग्रामीण उपयोग के लिये। मूंगफली, गन्ना, पटसन, कपास, तिलहन, तंबाकू, मसालों, फलों तथा सब्जियों जैसे वाणिज्यिक फसलों का उत्पादन बढ़ गया क्योंकि ये फसलें अब अन्न के स्थान पर अधिक लाभदायक सिद्ध होने लगी थी संभवत: बागान उद्योगो यथा चाय, काफी, रबर एवं नील इत्यादि में तो कृषि का वाणिज्यिकरण अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया। इन बागान उद्योगों का स्वामित्व लगभग यूरोपियनों के हाथो ंमें था इनके उत्पाद मुख्यतया अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचने के उद्देश्य से ही तैयार किए जाते थे।

वाणिज्यीकरण और विशेषीकरण की इस प्रक्रिया को कई कारणों ने प्रोत्साहित किया। जैसे मुद्रा अर्थव्यवस्था का प्रसार, रूढ़ि और परंपरा के स्थान पर संविदा और प्रतियोगिता, एकीकृत राष्ट्रीय बाजारों का अभ्युदय, देशी एवं विदेशी व्यापार में वृद्धि, रेलवे एवं सड़क संचार साधनों, राष्ट्रीय मंडी का विकास एवं अंग्रेजी पूंजी के आगमन से विदेशी व्यापार में वृद्धि इत्यादि।

भारतीय कृषकों के लिये कृषि का वाणिज्यीकरण एक विवशता थी। भूमि कर अत्यधिक होने से उसे अदा कर पाने में वह असमर्थ था। फलत: उसे साहूकाराेे से ऋण लेना पड़ता था, जिनकी ब्याज दरें काफी अधिक होती थी। इस ब्याज को चुकान के लिये उसे अपने उत्पाद को काफी कम मूल्य पर बेचना पड़ता था। कई बार तो उसने अपने ही अनाज को साहूकार के यहां बेचकर दुबारा जरूरत पड़ने पर दुगने मूल्य पर उसे खरीदना पड़ जाता था। कृषि मूल्यों पर विदेशी उतार-चढ़ाव का प्रभाव भी पड़ने लगा था। उदाहरणार्थ 1860 के पश्चातवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू कपास के मूल्यों में जो वृद्धि हुयी, उससे बिचौलियों को काफी लाभ प्राप्त हुआ। जबकि कृषकों को इसका कोई लाभ नहीं मिला। इस प्रकार 1866 में जब मंदी आयी तो इसकी मार किसानों पर पड़ी जिसके फलस्वरूप गांवों में किसान ऋण के बोझ से और दब गए, उनकी जमीन नीलाम हो गयी, उन्हें अकाल का सामना करना पड़ा तथा दक्षिण भारत में व्यापक पैमाने पर किसानों के आंदोलन हुए। इस प्रकार कृषि के वाणिज्यीकरण से न तो कृषकों को कोई लाभ हुआ और न ही कृषि उत्पादन में कोई वृद्धि हुयी।