व्यक्तित्व एवं विचार (Personality and Thought) Part 9 for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.

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गांधी बनाम नेहरू

राजनीतिक मुद्दों तथा भारतीय समाज की पुनर्रचना के संबंध में गांधी और नेहरू के विचारों में मूल अंतर विचारधारा पर आधारित है।

धर्म: गांधी धर्मपरायण व्यक्ति थे जबकि नेहरू अज्ञेयवादी। नेहरू के लिए कटवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू टरवादी धर्म भोंडा तथा पलायनवाद का एक रूप था। जिसकी परिणति प्राय: लोगों की मासूमियत के शोषण के रूप में होती है। परन्तु उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि धर्म हमें वो मूल्य देते हैं जिसके दव्ारा व्यक्ति की गहराई से महसूस की गयी आवश्यकताओं को संतोष प्रदान किया जाता है। अत: वे एक मतान्ध नास्तिक और भौतिकवादी नहीं थे।

गांधी के लिए धर्म सिर्फ कर्मकांडो का अनुपालन नहीं था। गांधी के लिए व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य मोक्ष (अंतिम मुक्ति) है जिसे सेवा और मानवता के दव्ारा ही प्राप्त किया जा सकता है न कि इस संसार से भागकर। इसलिए जो नास्तिक और अज्ञेयवादी मानवता की सेवा में हैं, वे धार्मिक लोग हैं। यही कारण था कि गांधी जी ने अपनी सूक्ति ‘ईश्वर ही सत्य है’ को ‘सत्य ही ईश्वर है’ , में बदल लिया। ईश्वर जिसका मतलब यह है कि सिर्फ सत्य का उच्चतम नीतिपरक महत्व है। अत: धर्म नीति के समान बन जाता है।

इस तरह धर्म को नैतिक मूल्यों के बराबर लाने की शैली नेहरू की भी थी। राजनीतिक का आध्यात्मीकरण करने का जो प्रयास गांधी जी ने चाहा, उन्हें बहुत अच्छा लगा। उन्हें लगा कि इस स्तर पर पहुंचने के लिए एक योग्य माध्यम होना चाहिए। गांधी के लिए यह सिर्फ सुन्दर नीतिगत सिद्धांत ही नहीं था बल्कि इसमें उन्हें व्यावहारिक राजनीति की झलक भी दिखाई दी। यह झलक उनके लिए थी जिनके माध्यम अच्छे नहीं हैं तथा नयी समस्याएं पैदा करते हैं। अत: नेहरू का तथाकथित अज्ञेयवाद ने गांधी के लिए धार्मिक मूल्यों का रूप ले लिया। इसमें उन सभी तत्वों को शामिल किया जो मानवता के लिये आवश्यक थे।

अहिंसा

यह तर्क दिया जाता है कि गांधी के लिए अहिंसा सत्य की खोज या सामाजिक मतभेदों को सुलझाने की एक विधि थी। नेहरू ने अहिंसा को हर समय, हर परिस्थिति में अपनाना स्वीकार नहीं किया। उनका मानना था कि यह एक ऐसी नीति है जिसके बारे में सिर्फ इसके परिणामों के आधार पर ही निर्णय किया जा सकता है। निश्चित रूप से यह साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई के लिए सही थी क्योंकि तत्कालीन परिस्थितियां भी उसके लायक थी। परिणामस्वरूप दव्तीय विश्वयुद्ध तथा जापानी आक्रमण के भय ने इन दोनों के मतभेदों को खोलकर सामने लाया। नेहरू यह विश्वास नहीं करते थे कि बाहरी आक्रमण के खिलाफ अहिंसा को एक हथियार के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। लेकिन गांधी की अहिंसा की परिकल्पना का अर्थ आक्रमणकारियों के आगे समर्पण करना नहीं था। इसे तभी अपनाया जा सकता था। जब लोग इसमें अपना पूर्ण विश्वास व्यक्त करें तथा आक्रमणकारियों के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोध करने में अपने आपको पीड़ा पहुंचाने को तैयार रहे। उन्होंने यह कभी नहीं सोचा कि आक्रमणकारियों के खिलाफ अहिंसक विधि अपनाने के लिए लोगों को जबरदस्ती तैयार किया जा सकता है। उन्होंने उन नागरिकों की सैन्य क्षमता को भी देखा जो अहिंसक विरोध को तैयार नहीं थे। इसलिए युद्ध के दौरान नेहरू ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जो गांधी के विचारों के प्रतिकूल था। संभवत: नेहरू के दबाव के कारण ही गांधी मित्र राष्ट्रों की सेनाओं को भारत की भूमि पर रहने देने को तैयार हो गए। यह अहिंसा के लिए ‘कड़वी गोली’ के समान था।