महत्वपूर्ण राजनीतिक दर्शन Part-25: Important Political Philosophies for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.

Doorsteptutor material for CTET-Hindi/Paper-1 is prepared by world's top subject experts: get questions, notes, tests, video lectures and more- for all subjects of CTET-Hindi/Paper-1.

मार्क्सवाद की प्रासंगिकता

कुछ लोग दावा करते हैं कि मार्क्सवाद अब प्रासंगिक नहीं रहा क्योंकि सोवियत संघ का पतन हो चुका है, चीन जैसे देश मार्क्सवादी आवरण के बावजूद भीतर ही भीतर पूंजीवादी प्रणाली स्वीकार कर चुके हैं, पूर्वी यूरोप का समाजवाद नष्ट हो चुका है और शेष देशों में भी मार्क्सवाद की उपस्थिति नही ंके बराबर है। जहाँ-जहाँ समाजवाद विद्यमान है, वह भी उदार लोकतंत्र से इतना घुलमिल चुका है कि उसमें मार्क्सवादी तेवर कम, उदारवादी तेवर ज्यादा नज़र आते हैं। भारत जैसे देश इसी प्रवृत्ति के उदाहरण हैं जहाँ का संविधान ‘समाजवाद’ का दावा करता है किन्तु जहाँ की अर्थव्यवस्था नव-उदारवाद के सिद्धांतों पर टिक चुकी हैं।

पारंपरिक मार्क्सवाद की प्रासंगिकता अब कम है, यह स्वीकार करना जरूरी है। वर्ग संघर्ष और खूनी क्रांति जैसी अवधारणाएँ आज ज्यादा उपयोगी प्रतीत नहीं होतीं। वर्गों में ध्रुवीकरण वैसा नहीं हुआ जैसा मार्क्स ने सोचा था। उच्च वर्ग का आकार पहले से बढ़ा ही है और मध्य वर्ग तो सबसे बड़ा वर्ग बन गया है। निगमीकृत पूंजीवाद ने मजदूर को पूंजी का अंशधारक बनाकर बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग के अंतर को ही समाप्त कर दिए हैं। मजदूरों का वेतन बढ़ा है, कार्य दशाएँ सुधरी हैं, सामाजिक सुरक्षा बढ़ी है और राजनीतिक हस्तक्षेप की उनकी क्षमता में खासा इजाफा हुआ है। लोक कल्याणकारी राज्य ने ट्रेड (व्यापार) यूनियन (संघ) आंदोलन के साथ मिलकर यह संभव कर दिया है कि बिना हिंसक क्रांति के समाजवाद के उद्देश्य पूरे जा जाएँ। इतना ही नहीं, यदि कोई वर्ग संघर्ष करना भी चाहे तो यह संभव नहीं रहा है क्योंकि चरम पूंजीवादी देशों में राज्य के पास ऐसे हथियार है कि वह किसी भी क्रांति को पूरी तरह कुचल सकता है।

किन्तु, इसका यह अर्थ नहीं कि अब मार्क्सवाद प्रासंगिक नहीं रहा। वर्तमान समय में भी यह कई कारणों से खुद को प्रासंगिक बनाए हुए है। ऐसे प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं-

ढवस बसेेंत्रष्कमबपउंसष्झढसपझ यह नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान में भी कई देश साम्यवादी शासन प्रणाली के अनुसार राजव्यवस्था चला रहे हैं। चीन 1949 की क्रांति के समय से ही साम्यवादी रास्ते पर चल रहा है। क्यूबा ने 1959 की क्रांति के दो वर्ष बाद 1961 में खुद को साम्यवादी देश घोषित किया और वह आज तक स्वयं को साम्यवादी देश मानता है। लाओस 1975 से तथा वियतनाम 1976 से घोषित तौर पर साम्यवादी देश हैं। उत्तरी कोरिया भी काफी हद तक साम्यवादी सिद्धांतों को अपनी राजकीय नीतियों का हिस्सा मानता है। साइप्रस और नेपाल में पिछले कुछ वर्षों से मार्क्सवादी पार्टियों (समूहों) ने सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके अलावा कई देश ऐसे हैं जहाँ विभिन्न दलों के गठबंधन सरकार चला रहे हैं और उन गठबंधनों में मार्क्सवादी दल शामिल हैं। ऐसे देशों में बोलीविया, बेलारूस, ब्राजील, दक्षिणी अफ्रीका, यूक्रेन तथा श्रीलंका आदि शामिल हैं। लेटिन अमेरिकी देशों में तो मार्क्सवादी राजनीति की उपस्थिति काफी ठोस तरीके से देखी जाती है।

  • आज के समय में मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पूंजीवाद की नई विसंगतियों की पहचान करने में है। हर्बर्ट मारक्यूज ने अपनी पुस्तक ‘एक आयामी मनुष्य’ में पूंजीवाद दव्ारा उत्पन्न उपभोक्तावादी मानसिकता का इसी आधार पर खंडन किया। इसी प्रकार एरिक फ्रॉम ने बताया कि पूंजीवाद श्रमिकों को उनके सृजनात्मक व्यक्तित्व से कैसे अलग कर देता है।
  • वर्तमान मार्क्सवाद बताता है कि ऊपर से लोक-कल्याणकारी दिखने वाला राज्य अपनी भीतरी संरचना में किस प्रकार दमनकारी होता है। एंटोनियो ग्राम्शी और लुई आल्थूजन ने अपने विश्लेषण में बताया है कि राज्य पहले वैचारिक साधनों से सभी व्यक्तियों की मानसिकता को नियंत्रित करता है और जब ऐसा नहीं हो पाता है, तब यह दमनकारी शक्ति का प्रयोग करता है।
  • मार्क्सवाद किसी भी प्रकार के शोषण और दमन के विरुद्ध है। आज का मार्क्सवाद लगातार इस बात की पहचान करता है कि विश्व में किन-किन वर्गों के साथ शोषण और दमनकारी व्यवहार हो रहा है। उपनिवेशवाद, लिंग भेद, नस्लभेद और ‘डिजिटल (अंकीय) डिवाइड (विभाजन) ’ जैसे सभी मुद्दों पर मार्क्सवाद ने वंचित समूहों का पक्ष लिया है।
  • यह कहना भी संभव नहीं है कि वर्ग संघर्ष और क्रांति की धारणाएँ पूरी तरह अप्रासंगिक हो गई हैं। आज के कई देशों में आर्थिक समता के लिए सशस्त्र विद्रोह मार्क्सवादी प्रेरणा से हो रहे हैं। भारत के कई राज्यों में पनपता हुआ ‘नक्सलवाद’ और नेपाल का ‘माओवाद’ इस बात के प्रमाण हैं कि समानता की स्थापना के लिए आज भी मार्क्सवादी संघर्ष की विधि प्रचलित हैं।
  • मार्क्सवादी समकालीन विश्व के समझ उभरते हुए संकटों का भी गहरा विश्लेषण कर रहा है। उसने बताया है कि नाभिकीय और जैविक हथियारों का संकट केवल पूंजीवाद के अधिक लाभ कमाने की प्रेरणा के परिणाम हैं क्योंकि पूंजीवाद में हथियारों को एक उद्योग माना जाता है, न कि समस्या। इसी प्रकार, पर्यावरण संकट का संबंध किस प्रकार पूंजीवाद की अति-उपभोगवादी प्रवृत्ति से है, और अल्प-विकसित देशों को इसकी कीमत न चुकानी पड़े-ये पक्ष भी मार्क्सवादी चिंता में शामिल हैं।

वस्तुत: कोई भी विचारधारा कुछ मूल्यों पर टिकी होती है और कुछ नियमों या सिद्धांतों को प्रस्तावित करती है। समय और स्थितियाँ बदलने से कई बार वे नियम या सिद्धांत खंडित हो जाते हैं, जो उस विचारधारा ने प्रस्तावित किए था। ऐसी स्थिति में भी वे मूल्य अप्रासंगिक नहीं हो जाते जिनके लिए नियमों या सिद्धांत का निर्माण किया गया था। आज के समय में वर्ग संघर्ष और क्रांति के विचार चाहे ज्यादा प्रासंगिक न रहे हों पर मूल्यों के स्तर पर मार्क्सवाद तब तक प्रासंगिक रहेगा जब तक दुनिया में किसी भी प्रकार का शोषण और दमन होता रहेगा।