भारत के राजनीतिक दल (Political Parties of India) Part 3 for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.

Get top class preparation for CTET-Hindi/Paper-2 right from your home: get questions, notes, tests, video lectures and more- for all subjects of CTET-Hindi/Paper-2.

मुस्लिम लीग (संघ) ~NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.: भारत के राजनीतिक दल (Political Parties of India) Part 3

मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 में ढ़ाका में हुई। सलीमुल्ला की प्रेरणा से गठित इस संगठन के पहले अध्यक्ष आगा खां थे। वास्तव में मुस्लिम लीग का गठन अंग्रेजों की बांटो और राज करो की नीति का परिणाम था। भारत में मुस्लिम शासकों को अपदस्त कर सत्ता हथिया ली थी। इस कारण मुसलमानों में अंग्रेजों के प्रति घृणा की भावना थी। 1857 के विद्रोह में बड़ी संख्या में भाग लेकर मुसलमानों ने अंग्रेजों के प्रति अपनी घृणा एवं नफरत का इजहार किया। इस घटना से सबक लेते हुए अंग्रेजों ने भारत में सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया। इसके माध्यम से उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के बीच दूरी बढ़ाने की कोशिश की। 1885 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई तो इसे हिन्दुओं के संगठन के रूप में प्रचारित किया गया। मुसलमानों में एक कृत्रिम भय पैदा कर उन्हें हिन्दुओं से अलग करने की कोशिश की गई। मुसलमानों में अल्पसंख्यकजन्य भय की मनोवैज्ञानिक ने इसके लिए आधार तैयार किया।

लीग भी अब यह मानने लगी कि मुसलमानों का हित हिन्दुओं से अलग है और अंग्रेजी सरकार की उनके हितों का संरक्षण कर सकती है। 1906 में लार्ड मिंटो के इशारे पर मुसलमानों का एक शिष्टमंडल आगा खां के नेतृत्व में शिमला में वायसराय से मिला और मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन व्यवस्था की मांग की। इस मांग को स्वीकार कर लिया गया।

शीघ्र ही दूरदर्शी मुसलमानों ने यह अनुभव किया कि ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों की एकता को नष्ट करने की कोशिश की है और बड़ी चालाकी से मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन से अलग रखा है। प्रगतिशील मुसलमान यह अनुभव करने लगे कि हिन्दुओं और मुसलमानों के हित में कोई मौलिक अंतर नहीं है। 1913 के कराची अधिवेशन में लीग ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके अनुसार लीग का उद्देश्य निश्चित हुआ-औपनिवेशिक स्वराज्य की प्राप्ति। 1916 में कांग्रेस एवं लीग का अधिवेशन साथ-साथ लखनऊ में हुआ। लीग ने कांग्रेस के साथ मिलकर स्वराज्य के लिए संघर्ष का आहवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू वान किया। इसमें जिन्ना जैसे प्रमुख राष्ट्रवादी नेता ने मुख्य भूमिका निभाई।

कांग्रेस और लीग में एक बड़ा दरार तब बनता दिखाई दिया जब जिन्ना ने नेहरू रिपोर्ट (विवरण) को अस्वीकार कर अपनी 14 सूत्री मांग प्रस्तुत की। प्रथम गोलमेज सम्मेलन का कांग्रेस ने बहिष्कार किया जबकि लीग के प्रतिनिधि के रूप में जिन्ना इसमें शामिल हुए।

1931 में मोहम्मद इकबाल ने मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र पाकिस्तान की मांग रखी। लीग ने इस मांग को हथिया लिया और मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र की मांग करने लगी।

1937 के चुनाव में हार के बाद लीग की राजनीति अधिक हिंसक और उग्र होती गई। लीग के प्रभाव वाले क्षेत्र में सांप्रदायिक दंगे भी हुए। 1940 के लाहौर अधिवेशन में लीग ने खुलकर दव्-राष्ट्र की मांग रखी। उसने बांटो और जाओ का नारा दिया। क्रिप्स और कैबिनेट (मंत्रिमंडल) मिशन (दूतमंडल) को अस्वीकार किए जाने का मुख्य कारण यही था कि इसमें पाकिस्तान की मांग को स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं किया गया था।

1946 के चुनाव में लीग को मुस्लिम बहुल प्रांतों में अभूतपूर्व सफलता मिली। इससे लीग का मनोबल बढ़ा। आरंभिक दौर में लीग जहां संभ्रात और अमीर मुसलमानों का संगठन था वहीं इस दौर में आकर उसे एक बड़ा जन समर्थन भी प्राप्त हो गया। अब वह पाकिस्तान की मांग पर अड़ गई। मुस्लिम लीग के रवैये एवं बढ़ते सांप्रदायिक दंगे के कारण देश का विभाजन अनिवार्य हो गया। लीग की सांप्रदायिक राजनीति का परिणाम था-1947 में देश का विभाजन। यद्यपि हिन्दू सांप्रदायिक ने भी लीग को इसके लिए कहीं न कहीं प्रेरित किया।