कॉलेजियम प्रणाली Essay in Hindi on College System in India

प्रस्तावना:- देश की अदालतों में लगे मुकदमों के अंबार और उच्च न्यायालयों में जजों के खाली पदों की समस्या जस की तस है। इस बीच संविधान संशोधन के जरिए बनाए गए न्यायिक नियुक्ति आयोग को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फेसले ने कार्यपालिका व न्यायपालिका के बीच टकराव के हालात बना दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट की नज़र में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए पुराना कॉलेजियम सिस्टम ही ठीक है। उसने संविधान संशोधन के बाद बने आयोग को ही असंवैधानिक करार दिया है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फेसले को लेकर कॉलेजियम व एनजेएसी की प्रासंगिकता व जरूरत के बारे में विधिवेत्ताओं की राय अलग है।

कॉलेजियम:- यह सिस्टम सुप्रीम कोर्ट के तीन अलग-अलग फेसलों का परिणाम है। इसमें उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और सुपीम कोर्ट के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों का फोरम जजों की नियुक्ति स्थानांतरण की सिफारिश करते हैं। हालाकि भारतीय संविधान में इसका कोई प्रावधान नहीं है। सरकार कॉलेजियम की तरफ से भेजे गए नामों को मंजूरी देकर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति करती है। इस पूरी प्रक्रिया में सरकार का कोई दखल नहीं होता। इसके पहले ये नियुक्तियां संविधान सम्मत तरीके से सरकार करती थी।

संविधान:- के अनुच्छेद 124 के तहत सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति की जाती है। इसके अनुसार राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर अन्य जजों की नियुक्ति करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 217 के तहत हाईकोर्ट के जजों की नियुक्तियां की जाती है। इसके अनुसार, राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश और राज्य के गवर्नरों की सलाह पर जजों की नियुक्ति करते हैं।

जब से संविधान बना है तब से ही इस बात पर हमारे संविधान निर्माताओं ने काफी जोर दिया कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता कायम रखनी चाहिए। संविधान के इस मूल ढांचे को ध्यान में रखकर ही न्यायालय ने यह निर्णय दिया है। सरकार जो नया कानून लेकर आई है उसके तहत प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग में बाहर से शामिल किए जाने वाले लोगों के बारे में प्रतिष्ठित शब्द का इस्तेमाल किया गया है। लेकिन मुश्किल यह है इसमें इस शब्द की सही रूप से व्याख्या ही नहीं की गई है। यह भी नहीं बताया गया इनकी क्या शक्तियां होगी? इनका मत कितना प्रभावी होगा? इन में परिस्थितियों न्यायपालिका क्या करेगी? इसके लिए जजों की नियुक्ति के बारे में वर्तमान सिस्टम में ही सुधार किया जा सकता है। इसी से तंत्र ओर पारदर्शी बनेगा व कॉलेजियम प्रणाली में सुधार के प्रयास होगे। इसके लिए कुछ ओर सदस्य भी कॉलेजियम में शामिल किए जा सकते हैं। नए सिरे से मानदंड तय करनें पड़ेंगे। अब तो यह देखना है कि न्यायालय इस प्रणाली में सुधार के लिए आगे क्या कदम उठाती है?

एनजेएसी:- नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन (एनजेएसी) को ही सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश नियुक्ति करनी थी। इसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में 6 सदस्य होने थे। इसमें सर्वोच्च न्यायालय के अन्य दो वरिष्ठतम न्यायाधीश सदस्य, केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्री, पदेन सदस्य थे। प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में विपक्ष के नेता की समिति शेष दो सदस्यों का मनोनयन करने वाली थी।

स्वतंत्रता:- न्यायपालिका संविधान की आत्मा होती है। इसमें किसी का दखल होता है तो उसे संवैधानिक हरगिस नहीं कहा सकता है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को लेकर सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया है, इसके उलट कोई फैसला आता तो सचमुच आश्चर्य होता। यह फैसला तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता का पक्षधर है और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए उचित भी है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

सुधार:- इस कॉलेजियम में निम्न सुधारों की आवश्यकता हैं-

पारदर्शिता- जजों के लिए चयन में भेदभाव की शिकायतें आती रहती हैं। इसके लिए प्रक्रिया में पारदर्शिता लानी चाहिए।

मेरिट - चयन में भाई-भतीजावाद, जातिवाद या जजों के जूनियरों को ही मौके मिलता है इसलिए यह काम सार्वजनिक हो।

विशेषज्ञता - विभिन्न क्षेत्रों के विधि विशेषज्ञों का चयन हो। संविधान या रिट के जानकारों पर ही ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए बल्कि अन्य मामलों के विशेषज्ञों को मौका मिलना चाहिए।

जवाबदेही- कॉलेजियम की जवाबदेही तय हो ताकि गलत चयन पर कॉलेजियम में शामिल जजों की जिम्मेदारी तय की जा सके।

भागीदारी- अभी कॉलेजियम सदस्य ही चयन में होते हैं। अधिक भागीदारी के लिए कॉलेजियम द्वारा चयनित नामों पर पूर्ण पीठ में भी विचार हो।

सवाल:- हमारे देश में न्यायपालिका पर आमजन का विश्वास बना हुआ है। लेकिन कॉलेजियम व्यवस्था के माध्यम से कुछ ऐसे न्यायाधीशों की नियुक्ति हुई जिनके बारे में सवाल उठे है। एक जज को लेकर तो भले ही सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सिफारिश कर दी लेकिन संसद में जरूर दो तिहाई बहुमत नहीं जुट पाते और उनमें महाभियोग नहीं चलाया जा सका। ऐसे में न्यायिक अधिकारी को मिलने वाली संवैधानिक सुरक्षा और कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर सवाल खड़े किए जाने लगे है।

व्यवस्थाएं:- केंद्र सरकार ने जजों की नियुक्ति की पूरानी व्यवस्था में बदलाव करते हुए, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाया था। आयोग तीन न्यायिक और तीन गैर न्यायिक सदस्य रखते हुए सरकार ने कहा कि इससे नियुक्तियों में पारदर्शिता आएगी और नियुक्तियां हो सकेगी। लेकिन यह व्यवस्था लागू होते ही इसका विरोध होने लगा। एक तरह से यह सही भी था। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा और पांच जजेस ने सभी पक्षों को सुनकर इस खारिज कर दिया। न्यायिक जगत के समक्ष ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। कार्यपालिका की न्यायाधीशों की नियुक्तियों में भूमिका होने के बाद भी इसमें सीधे हस्तक्षेप के प्रयास किए गए। तीन बार व्यवस्थाओं को बदला गया है। 1981 में इस संबंध में फैसला दिया गया यह व्यवस्था 12 साल तक चली। फिर 1993 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने बहुमत के आधार पर यह व्यवस्था दी, संविधान के अनुसार भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श शब्द का अर्थ है, उनकी मंजूरी ली जा रही है। यह व्यवस्था भी कुछ साल ही चली। उसके बाद 1998 में इसमें मामूली बदलाव हुआ।

अधिकार:- कॉलेजियम की सिफारिश के बाद भी सरकार को नियुक्ति नहीं करने का अधिकार है। सरकारी व्यवस्था ही नियुक्त किए जा रहे व्यक्ति की स्क्रूटनी करती है। आयोग बनाकर नियुक्तियां करने की मंशा कुछ भी रही हो। लेकिन यह तय है कि पक्षपात की गुंजाइश बनी रहती है। सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर अच्छा कदम उठाया है। उच्चतम न्यायालय को तो संविधान बनाने की शक्ति प्राप्त नहीं है। उसके अधिकार में नहीं आता संविधान बनाना या संविधान संशोधन करना। इसमें संशोधन केवल संसद ही कर सकती हैं। संसद के दोनों सदनों ने इसे पारित किया है। ऐसे में कॉलेजियम की बहाली जैसे फेसले भी संसद ही कर सकती है।

प्रभाव:- कॉलेजियम सिस्टम में तीनों जज नियुक्तियों की सिफारिश करते है जिन वकीलों का चयन किया जाता है, न्यायिक जगत को उनकी विद्धवता पर भरोसा होता है। आयोग की व्यवस्था लागू होती है तो, नियुक्तियों में गैर न्यायिक सदस्यों का हस्तक्षेप होता है प्रश्न यही है आयोग में नियुक्तियों के प्रति पारदिर्शता आ पाएगी इसका निष्पक्ष प्रक्रिया का पालन हो सकेगा? गैर न्यायिक सदस्य जजों के चयन में अपनी भूमिका निष्पक्षता से निभा पाएगा।

निर्णय:- 20 विधायिकाओं ने इसे लागू करने के लिए सहमति दी है। एक तरह से जनमानस का पूरा निर्णय इसके पक्ष में है। हालांकि यह केवल कल्पना ही है लेकिन एक बार को यह सोचिए उदाहरण के तौर पर कि संसद ने जो संशोधन पारित किया उसे सुप्रीम कोर्ट दस नाम भेजती है कि हमें इन जजों की नियुक्ति करनी हैै लेकिन यह शक्ति किसके पास है? इनकी सिफारिश यदि कार्यपालिका नहीं मानती, खारिज कर दें, तो जो हमें मंजूर नहीं है क्योंकि न्यायपालिका तो सिर्फ नाम ही बताएगी। अपाइंटमेंट तो फिर भी राष्ट्रपति के नाम से होगा यानी एक तरह से भारत सरकार के नाम से। इसलिए सरकार जजों की नियुक्ति बारे में नहीं माने तो इसमें सुप्रीम कोर्ट क्या करें?

उपसंहार:- इस फेसले को संविधानवाद तथा लोकतंत्र की मूलभावना के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। लोकतंत्र चलाना और संविधानवाद को जीवित रखना है तो न्यायपालिका और विधायिका को मिल कर यह तय करना होगा कि कौन जज हो? और जो फैसला दोनों मिलकर लेगीं वह सबको मानना पड़ेगा। जब हमारे देशों में अच्छे जजों की नियुक्ति होगी तभी सबको न्याय भी उचित व समय पर मिल सकेगा। लेकिन इसके लिए हमें आने वालें समय का इंताजार करना होगा कि कॉलेजियम सिस्टम के बारे में फैसला क्या हुआ है।

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