उच्च दस समाचार (High Ten News - August in Hindi)

परमाणु हथियार:- 6 बार तबाही की दर से लौटी दुनिया। करगिल युद्ध के दौरान जनरल परवेज मुशर्रफ भारत पर परमाणु हमला करने की तैयारी में थे। वही एक अमरीकी सैन्य कमांडर (सेनाध्यक्ष) ने कहा यदि राष्ट्रपति ट्रंप कह दे ंतो यह चीन पर परमाणु हमला कर सकते है। यह पहली बार नहीे। जापान पर किए गए दोहरे परमाणु हमले को छोड़े दे तो कम से कम छह बार दुनिया परमाणु युद्ध के मुहाने से लौटी है।

1945 में जापान के बाद कभी परमाणु हथियारों का प्रयोग नहीं हुआ, लेकिन

  1. 1962 क्यूबा मिसाइल (प्रक्षेपास्त्र) संकट-श्ाीतयुद्ध के दौरान सीआईए की मदद से 1961 में क्यूबा में फीदेल कारत्रों को उखाड़ने के लिए विद्रोहियों के एक बड़े समूह ने समुद्री रास्ते (बे ऑफ पिग्स) से हमला किया, लेकिन कारत्रो ने इसे नाकाम कर दिया। जवाब में कारत्रों ने सोवियत परमाणु मिसाइलों (प्रक्षेपास्त्रों) को अपने यहां तैनात करना शुरू कर दिया।

जब परमाणु युद्ध के सबसे करीब थे-क्यूबा अमरीकी राज्य फ्लोरिडो से मात्र 180 किमी दूर है। अक्टूबर, 1962 में अमरीका और मिसाइलों को आने से रोकने के लिए क्यूबा की नौसेनिक नाकाबंदी कर दी। दो सप्ताह चले इस तनाव के दौरान एक अमरीकी जहाजों से घिरी परमाणु हथियारों से लैस (कम) सोवियत पनडुब्बी बी-59 का संपर्क बाकी दुनिया से कट गया। और उसका कमांडर (सेनाध्यक्ष) परमाणु बम से लैस टारपीडो दागने वाला था। उसे लगा कि युद्ध शुरू हो चुका है और परमाणु हमले के सिवा कोई विकल्प नहीं। इस दौरान क्यूबा ने एक अमरीकी टोही विमान मार गिराया। अमरीकी ने भी एफ-102 ए विमान उड़ाए जो परमाणु मिसाइलों से लैस थे। माना गया इस दौरान एक भी कदम परमाणु युद्ध छिड़ सकता था।

आखिर सोवियत संघ पीछे हटने को तैयार हो गया। बदले में अमरीका ने कभी भी क्यूबा पर हमला न करने का वादा किया।

  1. 1973 इजराइल करता शुरुआत-अक्टूबर, 1973 को मिस्र व सीरिया ने इजराइल के सबसे बड़े पर्व यौम किप्पूर पर हमला कर दिया। तत्कालीन इजराइली पीएम गोल्डा मायर ने वायुसेना को परमाणु हथियार सक्रिय कर विमानों में लोड करने का आदेश दे दिया। अमरीका ने डेफकॉन-3 अलटर् (चेतावनी) जारी कर दिया। उसे डर था इजराइली हमले के जवाब में सोवियत संघ परमाणु हमला कर सकता है। दुनिया फिर परमाणु युद्ध की कगार पर पहुंच गया।
  2. 1983 सोवियत कमांडर ने बचाया- एक सितंबर, 1983 को सोवियत विमानों ने कोरिया के बोइंग 747 को मार गिराया। वह ऑटो पायलट (स्वचालित यंत्र) में गड़बड़ी से सोवियत सीमा में घुस गया था। तीन सप्ताह बाद ही सोवियत चेतावनी केन्द्र ने अमरीकी परमाणु मिसाइलों को सोवियत संघ की ओर आने की गलत सूचना दे दी। सोवियत कार्रवाई से पहले केन्द्र के कमांडर स्टानिस्लाव पेत्रोव ने कहा, रडारों से पुष्टि होने तक कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। वे सही निकले।
  3. 1983 नाटो युद्धाभ्यास से भ्रम-नवंबर, 1983 में पूर्वी यूरोप में नाटो के युद्धाभ्यास के दौरान सोवियत संघ को लगा कि यह उस पर परमाणु हमले की तैयारी है। जवाब में सोवियत संघ ने अपनी परमाणु मिसाइलों को 20 मिनट में हमले के लिए तैयार कर दिया। अमरीका सोवियत तैयारी को भांप नहीं पाया, लेकिन सिंतबर की घटना के चलते अमरीकी परमाणु हथियार तैयार थे जिसके चलते सोवियत संघ ने कार्रवाई नहीं की।
  4. 1995 पहली बार ब्रीफकेस सक्रिय- रूसी राष्ट्रपति बोरिस येलत्सिन दुनिया के पहले ऐसे नेता बने जिन्होंने परमाणु ब्रिफकेस सक्रिय किया। जनवरी 1995 में रूसी रडारों ने नार्वे से छोड़े गए एक अनुसंधान रॉकेट (अग्नि बाण) को परमाणु मिसाइल समझ लिया। रूस ने अपनी परमाणु हथियारों से लैस मिसाइलों को हमले के लिए तैयार कर लिया, लेकिन कुछ ही समय में यह साफ हो गया कि वह केवल एक रॉकेट हैं।
  5. 1999 में करगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तान ने भारत पर परमाणु हमले की तैयार कर ली थी। तत्कालीन पाक सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ ने परमाणु हथियार तैयार करने का आदेश दे दिया था, लेकिन ऐन मौके पर अमरीका इसे जान गया। भारत भी तैयार था। तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने पाक पीएम नवाज शरीफ को बुलाकर कड़े शब्दों में कहा कि अमरीका कभी ऐसा नहीं होने देगा। इसके बाद ही पाकिस्तान यह हिम्मत न जुटा सका।

गुजरात:-गुजरात से भाजपा के लिए तीन सीटों के लिए चुनावों ने देश का ध्यान खींचा है। इन चुनावों का महत्व इसलिए भी है क्योंकि ये इसी साल होने वाले गुजरात विधानसभा चुनाव के ऐन पहले हो रहे हैं। 2019 में लोकसभा चुनाव भी होने है। लोकसभा चुनावों को लेकर संदेश देने के लिए पगधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भाजपा के लिए गुजरात का 2017 का विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जीतना ज़रूरी है। कई महिनों पहले तक गुजरात के चुनावी परिदृश्य को लेकर भाजपा में चिंता की लकीरे थी। कारण थे पहला पाटीदार आंदोलन और दूसरा राज्य में दलीतों पर होने वाले कथीत अत्याचार का मुद्दा। पाटीदार आंदोलन का भूत बरकरार है। दलित भी पूरी तरह से संतुष्ट दिखाई नहीं दे रहे। मोदी पीएम बनने से पहले गुजरात के सीएम के रूप में गुजरात को जिस तरह छोड़कर गए थे वैसा गुजरात अब नही है, ऐसा कइयों को लग रहा है। हालांकी राज्यसभा चुनाव का ज्यादा महत्व होता नही है, परन्तु गुजरात विधानसभा के प्रतिपक्ष के नेता शंकरसिंह वाघेला की बगावत व सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव तथा कांग्रेस के शक्तिशाली नेता अहमद पटेल की उम्मीदवारी ने इस चुनाव को हाई (उच्च) वॉलटेज (तनाव) ड्रामें (नाटक) में में बदल दिया है। अहमद पटेल गुजरात से लगातार पाँचवी बार मैदान में है।

  • गांधी परिवार के अत्यंत विश्वासपात्र अहमद पटेल का दिल्ली दरबार में एक समय वैसा ही दबदबा था, जैसा आज भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह का है। अमिद शाह भी मैदान में उतरे चार उम्मीदवारों में से एक है। इनके अलावा भाजपा की ओर से स्मृति इरानी भी प्रत्याशी है। भाजपा की दो सीटों पर जीत तो तय है। अमित शाह कांग्रेस के इस ताकतवर नेता को राज्यसभा चुनावों में शिकस्त ही देना चाहेंगे। कह सकते हैं कि यह चुनाव गुजरात के दो चाणक्यों के बीच का महायुद्ध है। क्या नतीजे होंगे कहना आसान नही है। कारण यह है कि चुनाव से पहले ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शंकरसिंह वाघेला ने कांग्रेस छोड़कर पार्टी को बैकफुट पर ला दिया है। कांग्रेस के छह विधायकों ने इस्तीफा दे दिया है। वाघेला गुट के दावे के अनसार कांग्रेस के और विधायक पार्टी छोड़ भाजपा से जुड़ सकते हैं। शंकरसिंह वाघेला के पुत्र महिंद्र सिंह वाघेला भी शामिल है। महत्पूर्ण यह है कि यदि गुजरात से राज्यसभा के लिए सिर्फ तीन प्रत्याशियों का ही नामांकन होता तो चुनाव की नौबत आती ही नही। वाघेला गुट के सदस्य व कांग्रेस के सचेतक बलवंत सिंह राजपूत पार्टी दोड़ भाजपा के खेमे में जुड़ गए और राज्यसभा चुनाव के लिए मैदान में डटे हैं। ये वे ही बलवंत सिंह है जिनका राजनीतिक गॉडफादर (धर्मपिता) अहमद पटेल को कहा जाता है। चर्चा है कि वाघेला के इशारे पर ही बलवंत ने कांग्रेस से बगावत की है। रही, शंकर सिंह वाघेला की बात। वे चुनाव में वाघेला बापू के नाम से जाने जाते हैं। गॉव गॉव में उनके समर्थक है। कांग्रेस ने उन्हें वरिष्ठता व पद के आधार पर नेता प्रतिपक्ष बनाया था। इससे पहले वे केंद्र में मंत्री व आईटीडीसी के चेयरमैन (अध्यक्ष) भी रहें हैं। इसके बावजुद उन्होने कांग्रेस क्यों छोड़ी? कहा जाता है कि गुजरात विधानसभा के इसी साल के अंत तक होने वाले चुनाव से पहले पार्टी उम्मीदवारों के चयन को लेकर वे खुली छुट चाहते थे। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भरत सिंह सोलेकी से उनकी पटरी नही बैठ रही थी। यहीं कांग्रेस का कहना है कि वाघेला के यहां सीबीआई के छापे पड़ना उनका पार्टी (राजनीतिक दल) छोड़ने का कारण हो सकता है। हालांकी वाघेला इसे खारिज कर रहें है। यह ध्यान देना ज़रूरी है कि शंकर सिंह वाघेला मूलत: संघनिष्ठ व भाजपाई रहें हैं। गुजरात में भाजपा कि जड़े जमाने में उनका अहम योगदान रहा है। दो दशक पूर्व पार्टी नेताओं से मतभेद के चलते वे भाजपा के करीब विधायको को चार्टर्ड विमान से लेकर मध्यप्रदेश से खजुराहो चले गए थे और वापस आकर केशूभाई पटेल की सरकार पलट दी थी। बाद में अपना नया राजनीतिक दल बना वे कांग्रेस के समर्थन से सीएम बन गए थे। विडंबना देखिए कि वाघेला एक बार फिर विद्रोह के मार्ग पर हैं। जिस तरह शंकर सिंह वाघेला भाजपा के 45 विधायकों को खजुराओ ले गए थे, उसी तरह कांग्रेस अपने 44 विधायको को भारी दबाव से बचाने के लिए बैंगलुरू ले गई है। पहले उन्होने भाजपा छोड़ी और अब वे कांग्रेस छोड़ रहे हैं। वे 77 की उमर पार कर चुके। कांग्रेस छोड़ने के बाद वे भाजपा से जुड़े नही परन्तु वे कहते हैं कि उन्होन कांग्रेस छोड़ी है, राजनीति नही। जिस भाजपा से मतभेद था उनके ही सान्निध्य में वाघेला बापू के जाने कि चर्चा हो रही है। आरोप प्रत्यारोप जारी है। कांग्रेस का आरोप है कि उनके विधायको को तोड़ने के लिए 15 करोड़ रुपये तक के ऑफर (प्रस्ताव) दिए गए। प्यार व युद्ध की तरह राजनीति में भी सब कुछ जायज है। गुजरात में राज्यसभा के चुनाव में नोटा का भी उपयोंग होना है। इसके अलावा यदि क्रोस (पार करना) वोटिंग (मतदान) होगी तो अहमद पटेल का राजनीतिक भविष्य अनिश्चित हो सकता है। यदि पटेल जीते तो वाघेला व उनके समर्थकों का भविश्य भी अनिश्चित हो सकता है। फिलहाल तो ऐसा भी नही कहा जा सकता कि कोंग्रेस कि छावनी में चिंता ज्यादा है और भाजपा पूरी तरह से निश्चिंत है।
  • पिछले चार महिने से गुजरात में चल रहे हाई वाफल्टेज (उच्च तनाव) राजनीतिक ड्रामे का पटाक्षेप भी नाटकीय घटना क्रम के साथ ही हुआ। चुनाव तो गुजरात विधानसभा में राज्यसभा की तीन सीटो के लिए था, लेकिन इनमें से एक सीट को सत्ताधारी भाजपा व कांग्रेस ने अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया था। राज्यसभा चुनाव के राजनीतिक माहौल में इतनी गर्मी पहले कभी नही आई। पूरे देश के बड़े हिस्से के लोगो ने टेलिविजन पर अपनी पसंदीदा सीरियल (धारावाहिक) के साथ साथ देर रात तक गांधीनगर से लेकर दिल्ली तक पल पल में बदलते घटानाक्रम को भी सांस थामकर देखा। यह चुनाव गुजरात के दो चाणक्यों के बीच का सीयासी महायुद्ध है। अंतत: एक चाणक्य भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को मात देकर दूसरे चाणक्य कांंग्रेस के वरिष्ठ मितभाषी व हमेशा पर्दे के पीछे रहने वाले अहमद पटेल जीत गए। यानी राज्यसभा के उम्मीदवार के रूप में अमित शाह खुद भले ही जीत गए लेकिन अपनी पार्टी के तीसरे उम्मीदवार की पराजय हमेशा उन्हें सालती रहेंगी। अहमद पटेल की यह जीत दो प्रकार से याद रखी जायगी। पहली तो यह की वे देश के शक्तिशाली राजनीतिक दल भाजपा के खिलाफ जीते और दूसरी दिल्ली में ही कांग्रेस में बैठे आंतरिक विरोधीयों के सामने वे जीत गए। सच बात तो यह है कि देश में एक के बाद एक राज्य जीतते जा रहे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को राज्यसभा के इस छोटे चुनाव में इतनी रूची लेने की ज़रूरत ही नही थी। तीसरी सीट को अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा से जोड़कर उन्होने एक तरह से अपनी व अपनी पार्टी (दल) की विजेता की छवी को नुकसान ही पहुँचाया है। हमें यह देखना होगा कि अमित शाह अब सिर्फ गुजरात के नही बल्कि राष्ट्रय नेता है। रणनीतिक रूप से चुनावी समीकरण बनाने में वे माहिर माने जाते है। अपनी रणनीतियों में वे कामयाब भी रहें है। संख्या बल कमज़ोर होने के बावजूद जोड़ तोड़ के प्रयासों से भी कामयाबी नही मिलना किसमत का खेल ही कहा जाएगा। कांग्रेस के दिग्गज नेता शंकर सिंह वाघेला बागी सुरों के साथ पहले ही कांग्रेस को कमज़ोर करने की शुरुआत कर चुके थे। अमित शाह को अभी और इंतज़ार करना चाहिए था ताकी वे गुजरात में विपक्ष की नींव हिला सकें। अच्छा तो यह होता कि खुद राज्यसभा के लिए उम्मीदवार बनने के बजाए पार्टी के ही किसी नेता को मौका देते। वैसे गुजरात में कांग्रेस आज भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। कांग्रेस से बगावत करने वाले दो विद्यापकों का अपना वोट (मत) भाजपा के एजेंट (अभिकर्ता) को दिखाने की तकनीकी भूल ने अहमद पटेल को जिता दिया। वरना पासा पलटते देर नही लगने वाली थी। अहमद पटेल की इस जीत में भी किसी रणनीति के बजाए भाग्य ने ही साथ दिया है। अमित शाह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अत्यंत विश्वसनीय व पार्टी के रणनीतिकार है। एक छोटे से चुनाव में भाग लेकर वे गुजरात में भी इस तरह हार सकते हैं ऐसा अंदाज शायद किसी को नही होगा। मरणासन्न स्थिति में आई कांग्रेस को जो जीवनदान देने का काम खुद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी नही कर पाए वह इस चुनाव के पध्यम से भाजपा व उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष से अनानास ही कर दिखाया। अहमद पटेल की इस जीत से सिर्फ गुजरात में ही नही देश भर में हताश हो चुकी कांग्रेस में उर्जा का संचार हो गया। अहमद पटेल को हराने के लिए सरकारी तंत्र का बेजा इस्तेमाल भी खूब हुआ। बैंगलुरू में कांग्रेस के मंत्री के यहाँ छापेमारी सिर्फ इसलिए हुई क्योंकि वे गुजरात से आए कांग्रेस विधायकों की मेजबानी कर रहे थे। कर चोरों के खिलाफ कार्रबाई होनी चाहिए यह बात सही है। लेकिन छापे मारी के लिए जो समय चुना गया उसमें बदले की भावना ही साफ नज़र आई। अहमद पटेल को हराने में मतों को ध्रुविकरण के कयास भी गलत साबित हुए। जिन विधायकों को बैंगलुरू ले जाया गया उनमें से एक के अलावा सभी हिन्दू विधायक थे और एक के अलावा सभी अहमद पटेल के साथ रहे।
  • भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह बेशक चाणक्य है। लेकिन उन्होंने जिस व्यक्ति पर इस जीत का दारोमदार रखा था वह गलत साबित हुआ था। उन्होने शंकर सिह वाघेला पर पुरा जुआ खेला लेकिन शाह यह बात भूल गए की यह वही वाघेला है जो पहले भाजपा को छोड़ चुके है। वाघेला लोकप्रिय और करिश्माई नेता हैं, लेकिन गुजरात में केशूभाई पटेल, सुरेश मेहता व अपने ही गुट के दिलीप पारीख की सरकार को गिरा चुके हैंं। इसके बाद वे खुद गुजरात कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बने और तत्पश्चात गुजरात प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने। यूपीए सरकार में कपड़ा मंत्री भी बने और गुजरात विधानसभा में कांग्रेस ने उन्हें प्रतिपक्ष का नेता भी बनाया। लेकिन बावजूद इसके उन्होनें 77 वर्ष की उम्र में कांंग्रेस से बगावत कर पार्टी छोड़ दी। इस बगावत के कारण गुजरात विधानसभा में कांग्रेस के विधायकों की संख्या वे ज़रूर कम सके लेकिन अहमद पटेल को हराने में वे विफल रहे। इससे उलट देश के सबसे शक्तिशाली दल के नेता अमित शाह की इज्जत भी उन्होने दाव पर लगा दी। शंकर सिंह वाघेला को व्यक्तिगत रूप में क्या लाभ होगा यह कहना तो मुश्किल है लेकिन फिलहाल उनके राजनीतिक भविष्य पर प्रश्न चिंह लग गया है।

देवेन्द्र पटेल, राजनीतिक समीक्षक

कहते है इतिहास खुद को दोहराता है। गुजरात में भी ठीक 21 साल बाद राजनीतिक इतिहास दोहराया जा रहा है। तब गुजरात में जो राजनीतिक घटनाक्रम घूमा उसके केन्द्र में थे शंकर सिंह वाघेला। तब वहां भाजपा सरकार थी। वाघेला की भाजपा आलाकमान से ठन गई तो उन्होंने पार्टी से अलग होकर भाजपा सरकार गिरा दी और अलग पार्टी बना कांग्रेस के सहयोग से मुख्यमंत्री बन बैठे। भाग्य ने लंबे समय तक साथ नहीं दिया सो एक साल में ही वाघेला सरकार धराशायी हो गई। बाद मेें वाघेला ने अपनी पार्टी राष्ट्रीय जनता पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया। तब से ही वाघेला भाजपा सरकार अपदस्थ करने की कोशिशों में जुटे थे। ये अलग बात है कि गुजरात में विधानसभा चुनाव छह महीने में होने वाले है। वाघेला चाहते थे कि कांग्रेस उन्हें मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित करे। मांग नहीं मानी तो उनकी कांग्रेस आलाकमान से भी ठन गई। शक्ति प्रदर्शन के लिए वाघेला ने राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के ताकतवर नेता अहमद पटेल को हराने की ठान ली। स्वयं तो कांग्रेस छोड़ ही चुके हैं, छह अन्य कांग्रेसी विधायकों से पार्टी के साथ विधानसभा से भी इस्तीफा दिला चुके हैं। कांग्रेस को घर बचाने के लिए विधायकों को पार्टी शासित राज्य कर्नाटक ले जाना पड़ा। इस टूट को कांग्रेस धनबल और सत्ताबल का असर मान रही है। गुजरात में जो हो रहा है वह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता। विधायकों की टूट को भाजपा के खेल से जोड़कर कांग्रेस चुनाव आयोग का दरवाजा भी खटखटाने के साथ इसे लोकतंत्र की हत्या तक करार दे रही है। आज कांग्रेस जिस दौर से गुजर रही है, उसे भाजपा की हर चाल लोकतंत्र पर कुठराघात के रूप में ही नजर आ रही है। बड़ा सवाल ये कि कांग्रेस को लोकतंत्र की याद तब क्यों आ रही है जब वह केन्द्र के साथ तमाम राज्यों की सत्ता से बाहर हों चुकी। कांग्रेस को क्या याद नहीं कि उसके सत्तारूढ़ होते हुए बहुमत के बावजूद कैसे एन. टी. रामाराव और देवीलाल को सत्ता से बेदखल किया गया था? कांग्रेस सरकार के इशारे पर कैसे राज्यपाल काम करते थे? आज भाजपा सत्ता में है तो वह अपनी ताकत का इस्तेमाल कर रही है। लोकतंत्र की हत्या पहले भी होती थी, आज भी हो रही है और आगे भी होती रहेगी! जो दल सत्ता में होगा, वह अपने तरीके से काम करेगा और जो विपक्ष में होगा उसे लोकतंत्र पर आघात नजर आएगा।

भारत और अमरीका:-भारत अपनी उर्जा आवश्यकता की पूर्ती के लिए परंपरागत रूप से खाड़ी देश पर ही निर्भर रहता आया है। अब चूंकि हमारी उर्जा आवश्यकताएँ तेजी से बड़ रही है। भारत वर्ष 1990 में अपनी आवश्यकता का केवल तीन फीसदी कच्चा तेल (क्रूड ऑयल) आयात करता था और अब उसे लगभग 85 फीसदी कच्चा तेल आयात करना पड़ रहा है। उर्जा आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए ही नए विकल्प के रूप में उसने अमेरिका की और रूख किया है। अमरिका में तेल के निर्यात पर 40 साल पुराना प्रतिबंध हटाए जाने के करीब दो साल बाद कच्चा तेल भारत आ रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमरीकी राष्ट्रपति डॉनाल्ड ट्रंप की गत जून में हुई बैठक में उर्जा क्षेत्र में संबंधों को मजबूत बनाने पर सहमति बनी थी। मोदी की यात्रा के दौरान राष्ट्रपति डॉनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि उनका देश भारत को और उर्जा उत्पादों के निर्यात पर गौर कर रहा है। अब अमरीका में पहली दो किस्तो में 100 मिलियन (दस लाख) डॉलर (अमरीकी मुद्रा) मूल्य का दो मिलियन बैरल कच्चा तेल भारत आ रहा है। इसे अमरीकी मार्स क्रूड कहा जाता है और यह मार्च भारी उच्च सल्फर (गंधक) ग्रेड (वर्ग) का क्रूड (अपरिष्कृत) है जिसे पारादीप रिफाइनरी में रिफाइन किया जायगा। अनुमान है कि दोनो देशें के बीच तेल का व्यापार करीब दो मिलियन डॉलर से भी ज्यादा का हो जाएगा।

  • अमरीका से कच्चे तेल की पहली खेप 6 से 14 अगस्त के बीच रवाना हुई और सितंबर के आखिर में इसके पारादीप (ओडिशा) पहुँचने की संभावना है। दक्षिण कोरिया, जापान और चीन जैसे एशियाई देश भी अमरीका से तेल खरीदते हैं। अब इनमें भारत भी शामिल हो गया है। भारत को यह प्रतिस्पर्द्धी दर पर पड़ सकता है। इसकी गुणवत्ता खाड़ी देशों में सउदी अरब, ईरान जैसे देशों के क्रूड ऑयल के मुकाबले में हल्की होती है। अच्छी गुणवत्ता के क्रूड आयल को रिफाइन करने की लागत भी कम आती है। मार्स ऑयल को रिफाइन करने की लागत अपेक्षाकृत ज्यादा आती है। हमें यह भी देखना होगा कि अमरीका से दूरी की वजह से परिवहन लागत भी अधिक होगी। इसलिए मार्स ऑयल के बाजार में आने पर ही पता चल पाएगा कि यह खाड़ी के देशों के तेल के मुकाबले वास्तविक रूप में कितना मुफीद रहने वाला है। अमरीका अब सउदी अरब को पछाड़ कर दुनिया का सबसे बड़ा क्रूड ऑयल उत्पादक देश बन गया है। अमरीका ने जब शैल चट्‌टानों में तेल की खोज कर उत्पादन शुरू किया तो माना गया कि इसके उत्पादन की लागत अधिक आएगी और बाजार प्रतिस्पर्द्धा में नहीं टिक पाएगा। पर अमरीका इसकी उत्पादन लागत को 40 डॉलर प्रति बैरल के आस-पास ले आया है। दावा किया जा रहा है कि इसे 20 डॉलर प्रति बैरल तक लाया जा सकता है। यदि ऐसा हुआ तो कच्चे तेल के बाजार के लिए क्रांतिकारी कदम होगा और यह कच्चे तेल के निर्यातक देशों के लिए काफी नुकसानदेह होगा। इससे खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्था को बड़ा धक्का लग सकता है क्योंकि खाड़ी देशों के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कच्चे तेल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। सउदी अरब की जीडीपी में कच्चे तेल की आय की हिस्सेदारी 80 - 85 फीसदी रहती है। यही हाल अन्य अरब देशों का है। केवल संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ही इनमें ऐसा देश हैं जिसने कच्चे तेल की आय पर निर्भरता कम की है। इसका हिस्सा उसकी जीडीपी में लगभग 6 फीसदी के आस-पास है। कच्चे तेल के बाजार में अब तक निर्यातक देशों के संगठन ओपेक का एकाधिकार चलता रहा है।
  • ओपेक के सदस्य देश आपसी सहमति के आधार पर कच्चे तेल का उत्पादन घटा- बढ़ा कर दरों का निर्धारण करते आए हैं। अमरीका में तेल का उत्पादन बढ़ने से इनका एकाधिकार टूटेगा और ये देश दरों को ज्यादा ऊंची नहीं रख पाएंगे। इससे भारत जैसे कच्चे तेल के बड़े आयातक देशों को फायदा होगा। यह भी एक तथ्य है कि भारत अब अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए केवल खाड़ी देशों पर ही निर्भर नहीं रहना चाहता है इसलिए उसने उत्तर अमरीका में विकल्पों को तलाशा है। भारत ने अमरीका से पहले कनाडा से भी क्रूड ऑयल आयात किया है। खाड़ी के अधिकतर देशों से हालांकि भारत के संबंध मधुर रहे हैं लेकिन वहां पर अशांति का वातावरण और युद्ध के हालात बने रहना भी भारत के इस रुख का एक कारण है। इससे हमें खाड़ी में किसी संकट के हालात में ज्यादा मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ेगा। कुछ विशेषज्ञ इसे अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप का भारत के साथ व्यापार संतुलित करने की रणनीति का हिस्सा मान रहे हैं। व्यापार में संतुलन हर देश बनाना चाहता है लेकिन जरूरी नहीं कि यह सभी के साथ संभव हो पाए। आखिर भारत को नुकसान होगा तो वह क्यों कच्चा तेल खरीदेगा? अमरीका इस समय दुनिया का सबसे ज्यादा घाटे के व्यापार वाला देश बना हुआ है और यह व्यापार घाटा लगभग 800 अरब डॉलर का है। चीन के साथ तो यह लगभग 365 अरब डॉलर का है। जिसे वह चाह कर भी कम नहीं कर पा रहा है। जबकि भारत के लिए अमरीका ही एक ऐसा देश है जहां 21 अरब डॉलर के सरप्लस का व्यापार है। इसलिए दबाव की बात बेमानी हो जाती है। भारत ने अपनी जरूरत के अनुसार ही यह फैसला किया है।
  • भारत ने अमरीका से पहले, कनाडा से भी क्रूड ऑयल का आयात किया हैं। हालांकि खाड़ी के अधिकतर देशों से भारत के संबंध मधुर रहे हैं लेकिन वहां युद्ध के हालात बने रहना भी भारत के इस बदले रुख का कारण है। खाड़ी में संकट के हालात में हमें ज्यादा मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ेगा।

डॉ. राकेश, इंडियन (भारतीय) इंस्टीटयूट (संस्थान) ऑफ (के) फॉरेन ट्रेड (व्यापार) (आईआईएफटी) ,

नई दिल्ली में प्रोफेसर (प्राध्यापक) , अंतरराष्ट्रीय व्यापार मामलों के जानकार

नए भारत:-राजनीतिक वक्ता के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक बड़ा हुनर है लोगो के मन में छा जाने वाले जुमले गड़ लेना। यदि 2016 का साल मेक इंडिया और स्वच्छ भारत का था तो 2015 स्टार्टअप (उद्धाटन) व स्टैंडअप (खड़े हो जाओ) इंडिया (भारत) 2016 डिजिटल (अंकसंबधित) इंडिया (भारत) और अब 2017 नए भारत का साल है लेकिन यदि जुमले फैंकने के प्रधानमंत्री के हुनर और अच्छे इरादे को हटा दे तो नए भारत का वास्तव में अर्थ क्या है? क्या नया भारत वह है जिसमें गोरखपुर के सरकारी असपताल में साठ से ज्यादा मारे जाते है और जो देश के पिछड़े इलाको में हर मानसून में होने वाली रस्म हो गई है। क्या प्रधानमंत्री हमे आश्वस्त कर रहें हैं कि जापानी एनसिफेलाइटिस (मस्तिष्क ज्वर) को काबू कर लिया जाएगा, सेहत के क्षेत्र में सरकारी निवेश दोगुना हो जाएगा अथवा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र मजबूत किए जाएंगे। सच तो यह है कि देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली आइसीयू में है।

  • क्या यह वह नया भारत है जहा असम में हर साल बाढ़ आती है और हज़ारों लोग इस सलाना आपदा के कारण स्थापित होते है। क्या हमें इमानदारी से आश्वासन दिया जा रहा है कि नदी किनारों पर अतिक्रमण को रोकने की ईमानदार कोशिश होगी। ड्रेनेज का अभाव बेकाबू वन विनाश खत्म होगा यह सब मिलकर उस कहर में योगदान देते हैं जो उफन्ती हुई ब्रह्यपुत्र असहाय लोगो पर बरपा देती है। क्या यह नया भारत है जिसमें सरकारी स्कूल (विद्यालय) लाखों छात्रों को गुणवत्तापुर शिक्षा देने के लिए संघर्ष करते दिखाते है। दिसंबर 2016 में संसाधन विकास मंत्री ने संसद में माना था कि सरकारी प्राथमिक स्कूलों (विद्यालयों) में शिक्षकों के 18 फीसदी और माध्यमिक स्कूलों में 15 फीसदी पद रिक्त हैं। क्या सरकार आश्वासन देगी की इस संकटपूर्ण स्थिति को निकट भविष्य में सुधार लिया जाएगा।
  • क्या यह नया भारत है जिसमें कृषि भूमि सिकुड़ती जा रही है, जहां छोटे किसान गांवों के सूदखोरों के कर्ज तले दबें हैं और बम्पर फसल होने पर भी उपज के लिए पर्याप्त कीमत नहीं पाते? मसलन, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में दलहनों के रिकॉर्ड (प्रमाण) उत्पादन के बाद भी आत्महत्याओं में आई तेजी की व्याख्या हो सकती हैं? वहीं किसान आत्महत्या कर रहे हैं, जबकि बड़े बिजनेस (कारोबार) घराने के मुनाफे पर दलहनों का आयात कर रहे हैं? क्या यह नया भारत है, जहां लाखाेें किशोर नौकरी बाजार में आकर्षक सपने लेकर आते हैं और पातें हैं कि इस बाजार में तो उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए जगह ही नहीं हैं? क्या सरकार रोजगारहीन तरक्की की समस्या को लेकर नकार की मुद्रा में हैं? सेंटर (केन्द्र) फॉर (के लिए) मॉनिटरिंग (निगरानी) द (यह) इंडियन (भारतीय) इकोनॉमी (अर्थशास्त्री) के मुताबिक नोटबंदी के बाद 2017 के शुरुआती चार माह में 15 लाख नौकरियां चली गई।
  • क्या यह नया भारत है, जहां नगर पालिकाएं गड्‌ढों से मुक्त सड़के देने में लगातार नाकाम रहती हैं, जहां हर साल दर्जनों नागरिक सड़क दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं, जिन्हें बेहतर बुनियादी ढांचा मुहैयाकरा कर टाला जा सकता है? पिछली बार कब नगर पालिका के किसी सड़क ठेकेदार को निर्माण की शर्तो पर खरा न उतरने का दोषी ठहराया गया? जवाबदेही के बिना घ्वस्त होता नागरिक सुविधाओं का बुनियादी ढांचा शहरी दुस्वप्न ही है, जो स्मार्ट सिटीज (आकर्षक शहर) के विचार को खींच-तानकर पैदा की गई मरिचिका भर बना देता है। क्या यह नया भारत है, जहां अदालतों में लंबित मामलों का पहाड़ बढ़ता ही जा रहा है, जहां देश के लाखों याचिकाकर्ताओं के लिए तीव्र न्याय की अवधारणा किसी क्रूर मजाक से कम नहीं है? अधीनस्थ न्यायालयों में कुल जरूरी पदों का 20 - 25 फीसदी रिक्त पड़ा है।

क्या यह नया भारत है जहां डरे हुए अल्पसंख्यकों से नियमित रूप से देशभक्ति की परीक्षा ली जाती है, जहां दाढ़ी रखने या मदरसे में पढ़ने, अजान देने या वंदे मातरम गाने से इनकार करने को राष्ट्र विरोधी क्लब में अपनेआप प्रवेश की तरह देखा जाता है? क्या नया भारत भ्रमपूर्ण पशुवध विरोधी नियमों के आधार पर बनाया जा रहा है, जो गोरक्षकों को पशुधन के व्यापारियों के खिलाफ अपनी भुजाएं फड़काने के लिए प्रोत्साहित करने दिखाई देते हैं? इंडिया (भारत) स्पेन्डस की रिपोर्ट (विवरण) से उजागर होता है कि 2010 के बाद से गोवंश से जुड़ी हिंसा में जो 23 लोग मारे गए उनमें 86 फीसदी मुस्लिम है। 97 फीसदी ऐसी घटनाएं मई 2014 के बाद हुई हैं।

  • क्या यह नया भारत है जहां प्रधानमंत्री बहादुरी से नौकरशाही और राजनीति भ्रष्टाचार खत्म करने का वादा करते हैं, लेकिन ऊंचे पद वाले भ्रष्ट अफसरों पर लगाम लगाने के केन्द्र में किए प्रयासों के बावजूद औसत नागरिक को स्थानीय भ्रष्टाचार और लालफीताशाही अभी भी आतंकित करते हैं? हफ्ता संस्कृति आज भी हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है: भारत अब भी ट्रांसपरेंसी (पारदर्शिता) इंटनरेशनल (अंतरराष्ट्रीय) के भ्रष्टाचार सूचकांक पर 175 देशों में 79 वें स्थान पर है। यदि आप मानें कि मंत्री के स्तर पर भ्रष्टाचार खत्म हो गया है तो जरा गोवा चले जाइए, जहां सरकार बनाने के लिए विधायकों की कीमत पर खुलेआम मोलभाव होता है।
  • सच तो यह है कि कम से कम फिलहाल तो नया भारत पहुंच से बाहर का सपना है, जो जानता है कि उसे 2014 के आम चुनाव में जीत दिलाने वाला अच्छे दिन का वादा उससे पैदा हुई अपेक्षाओं की कसौटी पर कभी खरा नहीं उतर सकता। मोदी शासन के पहले पांच वर्षों में वादे न पूरे होने से मोहभंग होने की संभावना के कारण संदेश देने में बदलाव की जरूरत महसूस की गई। प्रधानमंत्री अब मतदाताओं को लुभाने के लिए और मोहक यात्रा पर निकल पड़े है। इसलिए नया भारत का लक्ष्य तत्काल कुछ देने की बजाया 2022 का लक्ष्य सामने रख रहा, तब सारी संभावनाओं को देखते हुए एक और चुनाव जीता जा चुका होगा।
  • नए भारत की आविष्कृत फैंटसी के बावजूद तथ्य तो सही है कि यदि आज आम चुनाव होते हैं तो इंडिया (भारत) टुडे (आज) मूड (मनोदशा) ऑफ (का) द (यह) नेशन (राष्ट्रीय) जनमत संग्रह में पूर्वानुमान व्यक्त किया गया है कि मोदी के नेतृत्व वाला गठबंधन 350 के करीब सीटें जीत सकता है। स्पष्ट है कि जब भ्रम को चतुराई के साथ वास्तविकता की तरह गढ़ा गया हो तो मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व के रूप में बेहतर भारत की उमीद अब भी जीवित है बशर्ते विभाजित व हताश विपक्ष अपना प्रभावी विकल्प तैयार नहीं करता।

राजदीप सरदेसाई, वरिष्ठ पत्रकार

चीन:-चीन के हांगझोऊ में दुनिया की पहली इंटरनेट कोर्ट (न्यायालय) शुरू की गई है। इस कोर्ट (न्यायालय) में सब कुछ सिर्फ ऑनलाइन होता है। कामकाज की प्रक्रिया आम अदालतों से बिल्कुल अलग और आसान है। यहां कोई भी अपना केस (प्रकरण) ऑनलाइन दायर कर सकता है। पीड़ित, केस से जुड़े संबंधित पक्षों, गवाह और वकीलों को पेशी पर अदालत में उपस्थित होने की भी जरूरत नहीं है। वे कहीं से भी कोर्ट में बैठे जज से स्मार्टफोन, कंप्यूटर (परिकलक) , लैपटाप आदि से वीडियो चैट कर अपना पक्ष रख सकते हैं। जज अपना फैसला ऑनलाइन ही सुनाते हैं। फैसले की कॉपी (नकल) भी संबंधित पक्षों को उनकी मेल आईडी पर ही सिर्फ मिलती है।

  • कोर्ट (न्यायालय) कमरा को काफी हाईटेक (उच्च प्रोद्यौगिकी) बनाया गया है। जजों को बकायदा ट्रेंड (प्रशिक्षित⟋प्रवृत्ति) किया गया है कि वे किस तरह ऑनलाइन सबूत जुटाकर केस की सुनवाई करेंगे। इस इंटरनेट कोर्ट में ऑनलाइन शॉपिंग (खरीददारी) , बैंक (अधिकोष) ट्रांजेक्शन (लेन-देन) , इंटरनेट पर किसी के बारे में गलत जानकारी देने, कॉपीराइट, करार, हैकिंग (हैक करना) , लोन (ऋण) आदि से जुड़े मामलों की लाइव (सीधा) सुनवाई होगी। बीजिंग यूनिविर्सिटी (विश्वविद्यालय) के प्रोफेसर (प्राधाध्यापक) सी यांगजियांग कहते हैं कि इस कोर्ट का मकसद इंटरनेट के माध्यम से लोगों की लाइफ (जिंदगी) में बदलाव लाना है। कोर्ट में इंफार्मेशन टेक्नोलॉजी (सूचना प्रौद्योगिकी) , का बखूबी इस्तेमाल किया गया है। इससे लोगों को न्याय भी जल्दी मिलेगा। कम्यूनिकेशन (संचार) यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) ऑफ (का) चाइना में लॉ (विधि) प्रोफेसर (प्राध्यापक) वांग शिझिन कहते हैं कि यह कोर्ट दुनिया में ज्युडीशियल सिस्टम (न्यायप्रणाली) के लिए मॉडल (आदर्श) बनेगा। यह इंटरनेट कोर्ट दुनिया के देशों के सामने उसके कामकाज को समझने का एक स्टडी सेंटर भी है। इस इंटरनेट कोर्ट की स्थापना जून में की गई थी। इसे बनाने के पीछे सरकार का मकसद देश में बढ़ते साइबर अपराध को कम करना और उससे जुड़े मामलों को जल्द निपटाना है। इस कोर्ट को हांगझोऊ में इसलिए बनाया गया, क्योंकि देश की सभी बड़ी ऑनलाइन कंपनियों (समूह) के हेड (नेता) कार्यालय यहीं पर है। जिनमें अलीबाबा भी शामिल है। इसी साल जून में हांगझोऊ की कोर्ट ने अलीबाबा के ई-कॉमर्स (वाणिज्य) प्लेटफॉर्म (मंच) टाओबाओ के बारे में फेक (ताकत) रिव्यू (समीक्षा) लिखने पर एक व्यक्ति को 5 साल 9 महीने की जेल की सजा सुनाई थी।
  • 2016 में दुनिया में करीब 1.58 लाख करोड़ रु. की ऑनलाइन ठगी हुई। दुनिया में 2015 में 4.33 अरब नॉन (गैर) कैश (नकदी) बैंक (अधिकोष) ट्रांजेक्शन (लेन-देन) हुए। यह 2014 से करीब 11 फीसदी ज्यादा है। भारत में 2016 में 480 करोड़ रु. का ऑनलाइन ट्रांजेक्शन हुआ। यह 2015 से 22 प्रतिशत ज्यादा है। 2015 में अप्रैल से दिसंबर के बीच 11,977 ऑनलाइन फ्रॉड (धोखा) के केस (प्रकरण) देश में आए। नोएडा में 3,700 करोड़ रु. का फेक (ताकत) लाइक (हरा देना) स्कैम (घोटाला) हुआ।

यूरोप और अन्य देश:- यूरोप में सामाजि, आर्थिक व राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में वैश्विक मंच पर नए शक्ति समीकरण बन रहे हैं। यूरोप लंबे समय से अमरीका की छाया से मुक्त होने का प्रयास कर रहा है तो ब्रेग्जिट की वजह से अमरीका से रिश्ते यूरोपीयन यूनियन (संघ) से तनावपूर्ण हो सकते हैं।

  • पिछले कुछ सालों में यूरोप में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन के मद्देनजर भारत और ऐसे ही अन्य देश यूरोप की ओर देख रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी की जर्मनी, रुस जैसे देशों की यात्रा और अन्य प्रस्तावित यात्राओं के संदर्भ में भारत और यूरोपीय देशों के बीच संबंधों में आए सुधार को एक शुरुआत मानना चाहिए। देखा जाए तो शीत युद्ध के बाद से यूरोपीय यूनियन (संघ) (ईयू) अपने पुननिर्माण में लगा हुआ। है। भारत भी कमोबश इसी प्रक्रिया से गजुर रहा है। रूस वैश्विक तो नहीं लेकिन एक नई यूरोपीय शक्ति के रूप में उभर रहा है। भारत के लिए चीन व पाकिस्तान के साथ रूस की बढ़ती नजदीकियां चिंता का विषय हैं। इसका असर यूरोप में भी दिखाई देता है। ब्रेग्जिट के उदय ने आज अर्थ केन्द्रित यूरोप को जन्म दिया है। दव्तीय विश्व युद्ध के बाद यूरोपीय एकता की बात की जाए तो ब्रिटेन (यूके) की स्थिति एक दव्ीप जैसी ही है जो यूरोपीय देशों के एकजुट होने में बाधा डाल रहा है। यूरोप में हाल ही में हुए कुछ बदलावों ने यूरोपीय देशों को इसका समसामयिक इतिहास बदलने पर मजबूर कर दिया है। ब्रेग्जिट की वजह से अमरीका के यूरोप व ईयू के साथ संबंध तनावपूर्ण भी हो सकते हैं। दरअसल अमरीका पर निर्भर यूके, ईयू के बाकी देशों को खुद से अलग ही मानकर चलता है। वह अन्य यूरोपीय देशों को हमेशा तो अमरीका की बात मानने पर राजी नहीं कर सकता लेकिन यूके ने ईयू के कई ऐसे निर्णयों को बेअसर कर दिया जो अमरीका के पक्ष में नहीं थे। यूरोप लंबे समय से अमरीका छाया से अलग होने के लिए संघर्षरत है। पर ऐसा नहीं हो सका, इसके पीछे बड़ा कारण उसकी अपनी ही कुछ मजबूरियां हैं। बावजूद इसके अमरीका संबंधी कुछ मुद्दे और चिंताओं के चलते ईयू देशों को अपने राजनीतिक निर्णयों की धार कमतर रखनी पड़ी है, क्योंकि उनसे आर्थिक व सैन्य परिदृश्य प्रभावित होने की आशंका बनी रहती है।
  • इस संदर्भ में रूस का उदाहरण देखें, सोवियतसंघ के विघटन के बाद रूस ने अपने अंदरूनी मामलों को पश्चिमी यूरोप के मुकाबले बेहतर ढंग से संभाला। पुतिन के नेतृत्व में रूस की सरकार पिछले दो दशकों से यूरोपीय देशों में सबसे स्थायी सरकार है। यूरोप केन्द्रित विदेश नीति और सामरिक सुरक्षा के संदर्भ में यह काफी महत्वपूर्ण है। सोवियत यूनियन (संघ) के विघटन के बाद यूरोप के क्राइमिया प्रायदव्ीप में रूस का हस्तक्षेप मास्को का पहला बड़ा अंतरराष्ट्रीय कदम था। सोवियत संघ के विपरीत पुतिनवादी रूस ने तेल की आपूर्ति बाधित करने की धमकी देकर पश्चिम यूरोप के आर्थिक प्रतिबंध में भी हस्तक्षेप करने की कोशिश की थी। उसी समय रूस को भी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा था। रूस की तुलना में यूरोप अपने अंदरूनी मसलों जैसे यूरो संकट, आर्थिक संकट और ब्रेग्जिट जैसी समस्याओं से लगातार जूझ रहा है। भारत के आर्थिक हितों को भी इसका खमियाजा भुगतना पड़ा है। सोवियत संघ के अचनाक हुए विघटन के बाद भी तो ऐसा ही हुआ था। उम्मीद है कि दोबारा जर्मन चांसलर निर्वाचित एंजेलामर्केल व फ्रांसीसी राष्ट्रपति एमानुएल मैक्रां अपने-अपने देशों में ही बदलाव को दिशा देंगे। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी अपने सहयोगी यूरोपीय देशों की किसी प्रकार की मदद की स्थिति में दिखाई नहीं देते।
  • हम देख रहे हैं कि अमरीका वैश्विक संदर्भ में अपनी नीतियों में लगातार बदलाव कर रहा है। मई के अंत में जब जर्मन चांसलर मर्केल अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप से मिली थीं तो उन्होंने कहा था कि यूरोप दूसरों पर निर्भर नहीं रह सकता। ट्रंप भी जर्मनी को निशाना बनाए हुए हैं। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मई में जब बर्लिन पहुंचे, उसी दिन ट्रंप ने जर्मनी को आड़े हाथों लिया। पेरिस जलवायु संधि से अमरीका के अलग होने की घोषणा कर ट्रंप ने भारत और चीन को चौका दिया। यह स्पष्ट होता जा रहा है कि ट्रंप भले ही कठोर रवैया अपनाएं या कुछ अरुचिकर बोलें लेकिन वे उन मुद्दों पर बाले रहे हैं, जिन पर पिछले कई अमरीकी राष्ट्रपतियों न कभी कुछ नहीं कहा। यह बात यूरोप के साथ-साथ भारत पर भी लागू होती है। यह और बात है कि शीत युद्ध के बाद भारत-अमरीका संबंध अच्छे ही रहे हैं, चाहे दोनों ही देशों में कोई भी सरकार रही हो। जलवायू परिवर्तन पर पेरिस संधि से अलग होने का अमरीका का निर्णय एक झलक मात्र है। एक नया विश्व समूह तैयार हो रहा है, जिसमें अमरीका तो है ही, चीन और रूस के अलावा भारत जैसे देश मध्यवर्ती ताकत के रूप में उभरते नजर आ रहे हैं। भारत सामरिक आत्मनिर्भरता के रास्ते पर चलते हुए स्वयं को अमरीका खेमे में शामिल कर रहा है। ट्रंप को भारत के साथ वैसे ही संबंध जारी रखने होंगे जैसे कि बुश व ओबामा के समय थे। रूस भी न तो बोरिस येल्तसिन के जमाने वाला रहा और ना ही भारत अभी तक वैसा ही है। बात जब वैश्विक मुद्रा की है तो भारत को तैयार रहना होगा। ज्यादा पुरानी बात नहीं है, जब श्रीलंका और मालदीव जैसे देशों ने वैश्विक विनिमय के लिए भारतीय मुद्रा चुनी थी। भारत को आने वाले दशकों में यूरोप पर नजर रखनी होगी। भारत के सामरिक संबंधों के लिए यह महत्वपूर्ण है।
  • रूस की तुलना में यूरोप अपने अंदरूनी मसलों जैसे यूरो संकट, आर्थिक संकट और अब ब्रेग्जिट जैसी समस्याओं से लगातार जूझ रहा है। भारत को भी आर्थिक सहयोगी होने के नाते इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है। सोवियत संघ के अचनाक हुए विघटन के बाद भी तो ऐसा ही हुआ था।

एन. सत्यमूर्ति, वरिष्ठ टिप्पणीकार

आतंक और सुरक्षा:- बढ़ती आतंकी घटनाओं के मद्देनजर बीते डेढ़ दशक में लगभग हर देश के सुरक्षा तंत्र में बड़े बदलाव देखने को मिले हैं। इसी बीच आतंकियों की रणनीतियां भी बदली हैं। बम धमाके, हवाई जहाज अपहरण से जमीनी छोटे हमले और अंधाधुंध गोलीबारी से कार-ट्रक से हमले भी हुए। इससे सुरक्षा बलों की मुश्किलें बढ़ी हैं, लेकिन कुछ सबक भी मिले। कुछ देश निम्न हैं-

1. अमरीका-राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता नहीं-सदी की शुरुआत में बड़ा आतंकी हमला हुआ। 2001 के बाद अपने घरेलू और बाहरी सुरक्षा तंत्र में राष्ट्रीय सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। 2001 में आए देश भक्त अधिनियम के बाद अमरीका ने 9⟋11 हमले की जांच के लिए एक कमीशन (आयोग) बनाया और सुरक्षा मानकों को बेहद कड़ा किया गया।

उपाय-निम्न हैं-

  • दुनियाभर के सभी देशों को आतंक के खिलाफ एक मंच पर जुटाया।
  • संदिग्ध की पहचान के लिए 30 से ज्यादा बिंदुओं पर काम।
  • घरेलू स्तर पर हर नागरिक की जानकारी की प्रमाणिकता की जांच जरूरी की।
  • एयरपोर्ट (हवाईहड्‌डा) सिक्योरिटी (सुरक्षा) को कड़ा कर तीन स्तरीय सुरक्षा तंत्र विकसित किया।

2. ब्रिटेन-पुलिस फोर्स (बल) पर किया भरोसा-2005 के लंदन हमले के बाद अपने सुरक्षा तंत्र में व्यापक बदलाव किए। 2005 हमले में सामने आई सुरक्षा चूकों के आधार पर पुलिस की कार्यप्रणाली को बदला गया। हर पुलिसकर्मी की भूमिका और जवाबदेही तय की गई।

उपाय-निम्न किए-

  • सिक्योरिटी (सुरक्षा) एंड (और) काउंटर (विरोध) टैरेरिज्म (आतंकवाद) विभाग को ताकत दी।
  • खुफिया विभागों में समन्वय स्थापित किया गया। इससे पहले तक कई सुरक्षा विभाग स्वतंत्र स्तर पर काम करते थे।
  • अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों (संस्था) और अन्य देशों के आतंक विरोधी अभियानों में हिस्सेदारी

3. फ्रांस-में आतंकवाद की धमकी 2007 के बाद बढ़ी है। हालांकि 2007 के पेरिस हमले के बाद 2012 में दो हमले हुए, लेकिन 2015 के बाद फ्रांस लगातार आतंकी हमलों को झेल रहा है। जुलाई 2016 के नीस हमले के बाद फ्रांस ने व्यापक स्तर पर सुरक्षा प्रबंध संबंधी नियम बदले हैं।

उपाय-

  • पुलिस, सेना और स्थानीय बलों के बीच सूचनाओं का आदान-प्रदान।
  • संदिग्धों की पहचान के लिए खुफिया तंत्र को विकसित किया।
  • विदेशियों के बारे में पुख्ता सूचनाएं और देश से बाहर जाने वालों की निगरानी।

4. ऑस्ट्रेलिया - 2014 के बाद सात बड़े हमले हुए लेकिन हताहतों की संख्या कम रही । ऑस्ट्रेलिया ने दूसरे देशों में हुए हमलों से सबक सीखा है। हालांकि ऑस्ट्रेलिया की भौगोलिक स्थिति भी उसे बड़ों हमलों से बचाव देती हैं। व्यापक निगरानी तंत्र के जरिये ऑस्ट्रेलिया ने अपने सुरक्षा तंत्र को बेहतर बनाया है।

उपाय-

  • किसी भी बड़े आयोजन के पहले हमले से निपटने की मॉक (नकली) ड्रिल (अभ्यास) की जाती है।
  • साल में दो बार आतंक विरोधी अभियान के लिए सुरक्षा बलों को प्रशिक्षित किया जाता है।
  • नागरिकों के बीच शांति और सामाजिक कार्यक्रमों की पहल को बढ़ावा दिया गया।

नई सुरक्षा रणनीतियां-बदलते वक्त के साथ आतंकियों के तौर-तरीकों में खासा बदलाव आया है। बीती सदी के आखिरी दशक में जहां आतंकी बम धमाकों के जरिये दहशत फैलाते थे, वही अब अंधाधुंध गोलीबारी और लोन (ऋण) वुल्फ (भेड़िया) अटैक (हमला) जैसी रणनीतियां अपनाई गई हैं। इनसे बचने के लिए दुनियाभर में कारगर रणनीतियां बनाई जा रही हैं।

  1. निगरानी- निगरानी तंत्र को मजबूत किया गया है संदिग्ध की पहचान के तरीके निर्धारित किए गए हैं। आतंकियों के आसान शिकार होने वाले युवकों पर नजर।
  2. वर्चुअल (वास्तविक) सूचनाएं -इंटरनेट को आतंकियों ने हथियार बनाया जवाब में सुरक्षा एजेंसियों (संस्था) ने भी तकनीक का ही सहारा लिया। खास शब्दों का इस्तेमाल करने वालों की पहचान की गई।
  3. सीसीटीवी- सुरक्षा के लिए सार्वजनिक स्थानों, आवासीय इमारतों और सड़कों पर सीसीटीवी का तंत्र मजबूत किया गया।
  4. जानकारी- कई देशों ने अपने नागरिकों की जानकारियां एकत्रित की हैं। इससे संदिग्ध की पहचान में आसानी हुई।
  5. आर्थिक ढांचा -आतंकियों के आर्थिक ढांचे पर चोट सुरक्षा का बड़ा उपाय माना गया है। दुनिया भर के देशों ने एक मंच पर आकर इसकी कोशिश की है।
  6. सामाजिक हालात -आतंक की वजहें हल करने की दिशा में काम किया। यूरोपीय समाज में भेदभाव और आर्थिक असमानता ज्यादा नही है। फिर भी हमले हुए। वजह शरणार्थी बने।

उदाहरण-

  • लंदन: ने अपने सुरक्षा तंत्र में नागरिकों की हिस्सेदारी बढ़ाई है। नागरिक समितियों से समय-समय पर सूचनाएं ली जाती हैं।
  • नीस: में लोगों को आतंकी हमले के दौरान सुरक्षा के उपाय बताने के लिए अलग से कार्यक्रम चलाए गए।
  • बर्लिन: में अकेले रहने वालों और अवसादग्रस्त लोगों के लिए सामाजिक कार्यक्रमों में तेजी आई।

अमरीका व चीन:-अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पिछले सप्ताह एशिया में एक नई लड़ाई शुरू करने की कगार पर थे। इस बार निशाने पर चीन था और उसके खिलाफ ट्रेड वॉर (व्यापार युद्ध) की योजना थी। अमेरिका बार-बार यह कहता रहा है कि चीन की गतिविधियों के चलते अमेरिका उसके व्यावसायिक संबंधों पर दबाव बढ़ा सकता है और एकबार भी ऐसा लगने लगा कि अब अमेरिका कार्रवाई कर सकता है। हालांकि, उ. कोरिया के खिलाफ सुरक्षा परिषद के प्रतिबंधों के मामलें में चीन के सहयोग से उसके खिलाफ कार्रवाई फिलहाल टल गई। राष्ट्रपति ट्रंप ने 14 अगस्त को चीन द्वारा अमेरिका की इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी (बौद्धिक संपदा) की चोरी के मामले में विस्तृत जांच की घोषणा की। जबकि लोग चीन के खिलाफ कड़े आर्थिक फैसलों की उम्मीद कर रहे थे।

  • इस घोषणा से जहां चीन पर दबाव बना रहेगा, ट्रंप को अपनी अगली योजना बनाने का समय मिल जाएगा। अधिकतर लोग यह मानते हैं कि व्यावसायिक लड़ाई गंभीर स्वरूप्प ले सकती है और दोनों पक्ष को काफी नुकसान हो सकता है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि जीत अमेरिका की ही होगी। इसके कारण भी हैं। चीन का पक्ष ज्यादा कमजोर है। अमेरिका के साथ उसका व्यापार घटा 300 अरब डॉलर से ज्यादा है। चीन अमेरिकी कंपनी (समूह) और उपभोक्ताओं को नुकसान पहुंचा सकता है। खासकर कृषि जैसे क्षेत्रों में। अंतरराष्ट्रीय व्यवसाय का स्वरूप कुछ ऐसा है कि चीन में नौकरियों पर ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। लेकिन चीन अर्थव्यवस्था के लिए व्यापार ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि देश की जीडीपी का करीब 40 फीसदी इसी से आता है। दूसरी ओर, अमेरिका की जीडीपी में व्यापार की हिस्सेदारी 30 फीसदी से कम है। चीन पर बढ़ता कर्ज भी बड़ी कमजोरी है। अर्थव्यवस्था की तेज वर्षों से धीमी हो रही है। इससे उबरने के लिए सरकार ने बड़े पैमाने पर कर्ज देने की नीति अपनाई। इस साल जून में आई इंस्टीट्‌यूट (संस्थान) ऑफ (का) इंटरनेशनल (अंतरराष्ट्रीय) फाइनेंस (वित्त) की रिपोर्ट (विवरण) के अनुसार चीन का कुल कर्ज उसकी जीडीपी के 304 फीसदी से भी ज्यादा हो चुका है। कभी चीन की ताकत रहे कारक भी अब उतने महत्वपूर्ण नहीं रहे। तकनीक के आने के बाद से श्रम का महत्व कम हो गया। चीनी श्रमिकों से काम लेना लगातार महंगा भी हो रहा है। कंसल्टिग (परामर्श) फर्म (व्यवसाय-संघ) ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक्स (अर्थशास्त्र) की नई रिपोर्ट (विवरण) के मुताबिक चीन में प्रति यूनिट (इकाई) श्रम की लागत अमेरिका से केवल 4 फीसदी कम है। अब चीन के मुकाबले जापानी श्रमिकों से काम लेना सस्ता है। चीन के लिए हालात नाजुक हैं, क्योंकि इसी साल पार्टी (दल) कांग्रेस में देश में फैसले लेने वाली सर्वोच्च संस्था के सात में से पांच सदस्य बदल सकते हैं। सरकार में अलग-अलग स्तरों पर और भी कई बदलाव होंगे। ऐसी हालत में कम्युनिस्ट (साम्यवादी) पार्टी (दल) का शीर्ष नेतृत्व झगड़ों से दूर रहने की कोशिश करता है। लेकिन चीन राष्ट्रपति शी जिनपिंग यदि खुद को कमजोर महसूस करेंगे तो उनके लिए ट्रंप के उकसावों की अनदेखी करना मुश्किल होगा।
  • अमेरिका को भी यह ध्यान रखना होगा कि चीन के खिलाफ कड़े आर्थिक फैसले भविष्य में खुद उसकी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छे साबित हों। इसके लिए जरूरी है कि वह अपने राजनीतिक और सैन्य संबंधों को मजबूत बनाए। हालांकि, हाल ट्रांस (समाधि) -पैसिफिक (शांत) पार्टनरशिप (साझेदार) व्यापार समझौते से खुद को अलग कर अमेरिका ने अपने एशियाई सहयोगियों से संबंध मजबूत करने का मौका खो दिया है। ट्रंप को यह भी समझना होगा कि चीन उनके समर्थक वोटरों (मतदाता) वाले इलाकों में अमेरिकी कंपनियों (समूह) और उद्योगों को नुकसान पहुंचाने की हरसंभव कोशिश करेगा। इसलिए व्यापारिक लड़ाई जीतकर भी उसके लिए चुनौतियां बढ़ जाएंगी।

अमेरिका:- के प्रमुख नेताओं में डोनाल्ड ट्रंप अकेले हैं, जिन्हें शैरलट्‌सविल के विरोध प्रदर्शन, जिसके चलते पूरे सप्ताह उसकी गलियों में मुठभेड़ का माहौल रहा, में अच्छी बात दिखाई दी। श्वेत राष्ट्रवादियों ने कू क्लूक्स आंदोलन के दिनों की यादें ताजा कर दीं। उन्होंने नाजियों के पुराने नारे ब्लड एंड सॉइल (रक्त और मिट्टी) को भी दोबारा जीवित कर दिया जो 1945 में बंद हो चुका था। उन्होंने इसमें एक और लाइन (रेखा) जोड़ दी, यहूदी हमारी जगह नहीं ले सकते। यह अप्रत्यक्ष रूप से श्वेतों की राष्ट्रीय एकता की घोषणा थी। लेकिन ट्रंप की राय में प्रदर्शन कर रहे अलगाववादी, फासीवादी और नस्लवादी लोगों में कुछ ऐसे भी थे, जिनके इरादे नेक हैं। ट्रंप की मानें तो वे लोग रॉबर्ट ई ली की प्रतिमा को हटाए जाने का विरोध कर रहे थे।

  • उन्हें लगता है कि रॉबर्ट की प्रतिमा हटाने की मांग गलत है क्योंकि इससे देश के इतिहास और संस्कृति पर असर पड़ेगा। 15 अगस्त को प्रेस कॉन्फ्रेंस (पत्रकार सम्मेलन) में ट्रंप ने बताया कि ऐसी मांगों का कोई अंत नहीं होता। लेकिन अमेरिकी जनता भी यही सोच रही है कि हाल में हुई घटनाओं का अंत कहा होगा। हिंसा में 32 वर्षीय हीथर हेयर की जान चली गई, 30 से ज्यादा लोग घायल हुए। कट्‌टर लोगों द्वारा शुरू हुई हिंसा के बीच श्वेतों ने पिछले दशक में अपनी ताकत का सबसे बड़ा प्रदर्शन किया, लेकिन राष्ट्रपति रूप से घृणा फैलाने वाली विचारधारा का समर्थन भी कर रहे थे। उन्होंने नस्लवाद और कट्‌टरवाद की आलोचना की, लेकिन इनका विरोध कर रहे उदारवादियों को भी हिंसा का जिम्मेदार ठहराया।
  • ट्रंप के इस बयान ने स्थिति को नियंत्रित करने की व्हाइट हाउस की कोशिशों को तो कमजोर किया ही, यह उम्मीद भी खत्म कर दी कि राष्ट्रपति अपने पद का इस्तेमाल कर एक बंटे हुए राष्ट्र को एकता से बांधने की कोशिश करेंगे। अमेरिका में जब भी कोई राष्ट्रीय हादसा हुआ है, तत्कालीन राष्ट्रपति ने उसी के बहाने पूरे देश को साथ लाने की कोशिश की है। चैलेंजर (दावेदार) विस्फोट के बाद रोनाल्ड रीगन, ओक्लाहोमा में विस्फोट के बाद बिल क्लिंटन, 9⟋11 के बाद जॉर्ज बुश और चार्ल्सटन चर्च में गोलीबारी के बाद बराक ओबामा, सब ने ऐसा ही किया था। लेकिन ट्रंप से जब घटनास्थल पर जाने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने मजाकिया लहजे में जवाब दिया। विरोधियों के साथ ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी (प्रजातंत्री वादी दल) के समर्थकों ने भी इसकी आलोचना की। लेकिन उनका यह तरीका नया नहीं है। व्यावसायिक कामयाबी के लिए वे नस्लीय और धार्मिक विभाजनों का फायदा उठाते रहे हैं। धार्मिक मतभेदों को कम करने के लिए सांस्कृतिक परंपराओं को अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ माना जाता है, लेकिन ट्रंप इसे राजनीतिक रूप से सही मानते हैं। अपने चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने बार-बार नस्लवादी बयान दिए, मुसलमानों की तुलना जहीरले सांप से की। अब पद पर पहुंचने के बाद वे ऐसी भावनाओं को न केवल बर्दाश्त कर रहे हैं, बल्कि उन्हें हवा दे रहे हैं।
  • उनके पुराने राजनीतिक सहयोगी रोजन स्टोन कहते हैं कि राजनीति का संबंध लोगों को जोड़ने से नहीं होता। यह तो उन्हें विभाजित करने के लिए है ताकि राजनीतिज्ञ बहुमत के लिए जरूरी 51 फीसदी वोट (मत) पा सकें। करीब-करीब यही तरीके और लक्ष्य श्वेत-राष्ट्रवादी आंदोलन के भी हैं। ट्रंप की सबसे बड़ी समस्या यही है कि वे अपने स्वभाव के साथ बढ़ी हुई जिम्मेदारियों का तालमेल नहीं बिठा पाए हैं। सहयोगियों की सलाह पर कुछ समय के लिए अपने ऊपर नियंत्रण रखते हैं, लेकिन थोड़े समय बाद ही स्वभाव सामने आ जाता है। श्वेत राष्ट्रवादी आंदोलनकारियों को उनका यह रवैया पसंद आता है।
  • अमेरिका में घृणा फैलाने वाले महाविद्यालय में शिक्षित युवा हैं जो इंटरनेट पर ट्रॉलिंग (घूमना) करते हैं। अति- दक्षिणपंथी कहे जाने वाले ये छोटे ऑनलाइन ग्रुप्स (समूह) का समूह है जो कूट भाषा में बातचीत करता है, लेकिन सोशल (सामाजिक) मीडिया (संचार माध्यम) और यूट्‌यूब के कमेंट (टिप्पणी) सेक्शन (अनुभाग) से आगे इनका प्रभाव नही ंके बराबर है। ये समूह यूरोपीय फासीवादी संगठनों जैसे ग्रीस में गोल्डन (स्वर्ण) टाउन (शहर) , नॉर्डि के रेजिस्टेंस (प्रतिरोध) मूवमेंट (पल) और रूसी दार्शनिक अलेक्जेंडर डगिन जो ब्लादीमिर पुतिन के निकट सहयोग भी हैं, से प्रेरित हैं। इनका गुस्सा अमेरिका में श्वेत वर्किंग क्लास (श्रमिक वर्ग) के प्रभाव में लगातार आ रही कमी है। ट्रप भी इस मुद्दे को उठा चुके हैं। शैरलट्‌सविल इन समूहों के लिए खुलकर सामने आने का मौका था और इस लिहाज से ये सफल रहा। इसके आयोजकों का कहना है कि वे हाल के वर्षो में ब्लैक (काला) लाइव्स (रहता है) मैटर (मामला) मूवमेंट (पल) और माइकल ब्राउन तथा ट्रेवन मार्टिन की मौतों पर हुए विरोध प्रदर्शनों से प्रभावित हुए। शैरलट्‌सविल की रैली का आयोजक जैसन केसलर यूनिटी (इकाई) एंड (और) सिक्योरिटी (सुरक्षा) नामक एक ग्रुप चलाता है, जो श्वेतों के पक्ष में आप्रवासी नीति का पक्षधर है। सहयोगियों में वेनगार्ड अमेरिका जो खुद को अमेरिकी फासीवाद का चेहरा बताता है, आइडेंटिटी (अभिज्ञान⟋समानता) एवरोपा जो श्वेत अलगाववाद का समर्थक है। और परंपरावादी वर्कर (मज़दूर) पार्टी (दल) में शामिल थे। इन संगठनों के लिए ट्रंप का राष्ट्रपति बनना किसी सुखद संयोग जैसा है। ट्रंप की राजनीति भी कुछ इसी तरह रही है। 2015 के अंत में ही उन्होंने अपनी राजनीतिक कामयाबी के दो कारण बताए थे-अप्रवासन और इस्लामिक आतंकवाद। चुनाव अभियान के दौरान भी उन्होंने इन मुद्दों पर बार-बार जोर दिया।
  • रिपब्लिकन (प्रजातांत्रिक वादी) पार्टी (दल) की पिछली दो पीढ़ियों ने अतिवादी समूहों से दूरी बनाकर रखी। पार्टी के पहले चुने गए राष्ट्रपति जैसे रोनाल्ड रीगन, जॉर्ज बुश आदि ने स्वत्रतां और समानता पर जोर दिया। पार्टी के साथ ट्रंप के रिश्ते कभी उनके जैसे नहीं रहे, न ही वे इसकी परंपराओं को ज्यादा महत्व देते हैं। रिपब्लिकन पार्टी के कई सांसद ट्रंप द्वारा श्वेत-राष्ट्रवादियों को दोषी नहीं ठहराए जाने का विरोध कर रहे हैं। पार्टी पहले भी ट्रंप की आलोचना कर चुकी है। उनके चुनाव जीतने के बाद वह उनका समर्थन कर रही है क्योंकि एक लोकप्रिय राष्ट्रपति से झगड़े का जोखिम नहीं लेना चाहती। उनकी लोकप्रियता भले कम हो रही हो, लेकिन देश में दक्षिणपंथी कट्‌टरवाद को वैधानिक रूप देने के लिए उन्हें अभी हिसाब देना बाकी है।
  • अमेरिका की 28 प्रतिशत आबादी का मानना है कि अल्पसंख्यकों के चलते श्वेतों के लिए अवसरों का कम होना बड़ी समस्या है। अल्पसंख्यकों के लिए भी अवसर कम हो रहे हैं, वे इसे बड़ी समस्या नहीं मानते। ट्रंप के कट्‌टर समर्थकों में भी 46 प्रतिशत श्वेतों के लिए अवसरों में कमी को बड़ी समस्या मानते हैं।

मोदी कैबिनेट (मंत्रिमंडल) :- प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में कहा जाता है कि वे शासन के पहले तीन साल एक सीईओ की तरह बेहतरीन प्रशासक बने रहते हैं और आखिरी के दो साल में विशुद्ध राजनीतिज्ञ। अब 2019 के आम चुनाव के लिए महज 20 महीने ही बचे हैं। ऐसे में वे राजनीतिक तैयारी को अंतिम रूप देने में जुट गए हैं। उनकी नजर मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक के विधानसभा चुनाव पर भी है।

भाजपा संगठन और केन्द्रीय कैबिनेट (मंत्रिमंडल) में बड़े फेरबदल कर वे सियासी समीकरणों के अलावा सामाजिक समीकरणों को भी साधना चाहते हैं। अब जनता दल यू के एनडीए में आने के बाद उनकी कोशिश तमिलनाडु की सत्ताधारी अन्नाद्रमुक को साथ लाने की है। गणेश चतुर्थी (25 अगस्त) के बाद और पितृपक्ष से पहले मंत्रिमंडल फेरबदल हो सकता है।

तमिलनाडु में जयललिता के निधन के बाद अन्नाद्रमुक पूर्व मुख्यमंत्री ओ. पन्नीरसेलवम और मौजूदा मुख्यमंत्री ई. पलानीसामी के दो गुटों में बंटा हुआ है। भाजपा के उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक इन दोनों गुटों को एकजुट कर एलडीए में शामिल करने की कमान खुद पीएम मोदी ने संभाल रखी है। मोदी दोनों नेताओं से खुद बात कर रहे हैं। केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली और राष्ट्रीय महासचिव पी. मुरलीधर राव दोनों पक्षों के बीच समझौता कराने में जुटे है। दोनों गुटों में सीएम पद और महासचिव पद की रार ठनी हुई है। भाजपा सूत्रों के मुताबिक अब बीच का रास्ता निकालते हुए पन्नीरसेलवम को मुख्यमंत्री और पलानीसामी को महासचिव बनाने के फार्मूले (सूत्र) पर काम हो रहा है। भाजपा के एक रणनीतिकार का दावा है कि इस महीने में ही दोनों गुटों का विलय हो जाएगा और अगले सप्ताह में अमित शाह के दौरे के बाद कुछ तस्वीर उभर कर सामने आएगी।

संकेत-17 अगस्त को हुई मिशन (दूतमंडल) 350 की बैठक में जिन मंत्रियों को अमित शाह की बैठक में बुलाया गया था। उन्हें संगठन में लाने पर विचार हो रहा है। इसमें जे. पी. नड्‌डा, धर्मेन्द्र प्रधान, निर्मला सीतारमन, पीयूष गोयल, रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावड़ेकर, मनोज सिन्हा समेत नौ मंत्री थे। प्रवक्ताओं में अनुभवी नेताओं की कमी खल रही है। इससे संघ भी नाराज है।

आसार-

  • सुरक्षे प्रभु, राधामोहन सिंह, राजीव प्रताप रूड़ी बदलाव की जद में आ सकते हैं।
  • नितिन गडकरी ने रेलवे को मिलाकर चीन की तर्ज पर एक ट्रांसपोर्ट (यातायात) विभाग बनाने का प्रर्जेंटेशन (प्रदर्शन) दिया था, यह नया विभाग उन्हें मिल सकता है।
  • रोहित वेमूला केस (प्रकरण) में एक सदस्यीय आयोग के अध्यक्ष रहे ए. के. रुपनवाल मध्य प्रदेश के राज्यपाल बनाए जा सकते हैं, इन्होंने वेमूला के दलित नहीं होने वाली रिपोर्ट (विवरण) दी थी।
  • गुजरात से एक ओबीसी, कनार्टक से एक लिंगायत, छत्तीसगढ़ राजस्थान से नया चेहरा, शिवसेना से एक, जेडी यू से एक मंत्री बनाने पर विचार।
  • 10 से 12 मंत्रियों की छुट्‌टी कर संगठन में लाने की तैयारी। 18 से 30 मंत्रियों के विभागों में बदलाव की रणनीति पर विचार चल रहा है।
  • कैबिनेट, भाजपा संगठन और राज्यपालों की नियुक्तियों के पैकेज पर एक साथ काम हो रहा है, संघ नेतृत्व से भी लगातार हो रहा मंथन।
  • इन मंत्रियों समेत दर्जन भर को हटाने पर हो रही है चर्चा, अभी फाइनल (अंतिम) नहीं: विष्णुदेव साय (छत्तीसगढ़) , सुरदर्शन भगत (झारखंड) , संजीव बात्यान (यूपी) , महेश शर्मा (यूपी) , कृष्णा राज (यूपी) ।

Examrace Team at Aug 20, 2021