केरल कोल्लम का पुत्तिंगल मंदिर हादसा (Kerala՚s Temple Tragedy - April 2016 - In Hindi)

प्रस्तावना:- केरल के कोल्लम जिले के पेरावुर कस्बे की पुत्तिंगल देवी मंदिर में आतिशबाजी के दौरान हुए हादसे में लगभग कई जानें जा चुकी हैं और सैंकड़ों घायल हैं। जानकारियों के मुताबिक जिला न्यायधीश ने आतिशबाजी नहीं करने के आदेश दिए थे। इसके बावजूद यह आतिशबाजी हुई। समझा जा रहा हैं कि ऐसा स्थानीय नेताओं की सांठगांठ और पुलिस के सहयोग से हुआ। प्रश्न यह है कि इस मामले में पुलिस ने जिला न्यायाधीश के आदेश की अनदेखी क्यों की? राजनेता पुलिस के कामकाज में हस्तक्षेप क्यों करते हैं? पुलिस क्यों दबाव में आ जाती हैं? ऐसे हादसों के लिए स्थानीय प्रशासन और पुलिस कितने जिम्मेदार हैं?

केरल मंदिर:- केरल में छोटे-बड़े 36 हजार मंदिर हैं। सभी में सालाना जलसे होते हैं, जिस पर 25 हजार करोड़ रु. तक खर्च हो जाता है। 2000 करोड़ तो सिर्फ पटाखों पर लुटाया जाता है। इस मामले पर शोध कर रहे पाला एम जयसूर्या बताते हैं कि यहां आतिशबाजी शक्ति प्रदर्शन का माध्यम हैं। कोल्लम पुत्तिंगल देवी मंदिर राज्य के उन चुनिंदा मंदिरा में है जहां का जलसा नामी है। कबम नामक इस जलसे में दो पक्षों के बीच आतिशबाजी की प्रतिस्पर्धा होती हैं। इस बार की प्रतिस्पर्धा वरकला कृष्णकुट्टी और कजाकुटम सुरेंद्रन गुटों के बीच प्रतिस्पर्धा का ब्योरा था। सभी मंदिरों में समारोहपूर्वक सालाना महोत्सव मनाए जाते हैं। खास तौर से प्रसिद्ध ऐतिहासिक मंदिरों में तो ऐसे समारोह में आतिशबाजी का रिवाज है। न केवल आतिशबाजी की जाती है बल्कि इसमें भी प्रतिस्पर्धाएं होती हैं। हर मंदिर में आतिशबाजी के दौरान दो गुट होते हैं जो एक-दूसरे से बेहतर आतिशबाजी की होड़ करते दिखते हैं।

हादसा:-यदि रात 11 से 12 बजे के बीच होता तो। आतिशबाजी का दौर रात करीब 11 बजे से शुरू हुआ। यह हादसा तड़के तीन बजे के आसपास हुआ। तब तक यहां मौजूद भीड़ काफी कम हो गई थीं। वृद्ध, महिलाएं और बच्चे अधिकतर घर कार्यक्रम स्थल से जा चुके थे। प्रतियोगिता के दौरान उत्साही युवकों की तादाद ज्यादा थी। एक बात यह भी कि जिन गोदामों में आतिशबाजी की सामग्री रखी हुई थी उसमें से करीब 80 फीसदी काम में आ चुकी थी। यह आतिशबाजी घंटे या दो घंटे की नहीं होती बल्कि कई घंटो की होती है। हमारे यहां किसी तरह की घटना-दुर्घटना होने पर लोगों में उत्सुकता से घटना स्थल तक जाने की प्रवृत्ति ज्यादा है। मरने वालों में कई ऐसे थे जो सिर्फ यह जानने आसपास जमा हुए थे कि आखिर हुआ क्या? इनमें कुछ आतिशी चिंगारियों और कुछ मकानों के टूटते मलबों की चपेट में आकर जाना गंवा बैठे। मलयालम कैलेंडर मीनम माह का पहला दिन विभीषका में बदल गया। समारोह में हाथी भी शामिल थे लेकिन आतिशबाजी के धमाकों के चलते उन्हें दूर कर दिया गया।

विस्फोट व पत्रकार:- आजिशबाजी देख रहे पत्रकार लालू बताते है कि समारोह खत्म होने वाला था कि एक जोरदार धमाका हुआ। बड़ा-सा आग का गोला दिखा और सब तहस नहस हो गया मौके पर पहुंचे तो लाशों ही लाशें थी।

मलायम डेली के एक पत्रकार ने बताया कि अस्पताल के एक कमरे में लाशें पड़ी थी वहीं एक कोने में एक प्लासिटक बैग में क्षत-विक्षत अंग थे जिनकी पहचान बिना डीएन जांच नहीं हो सकती थी। विस्फोट में मंदिर के पास कई इमारतें ध्वस्त हो गई। अधिकतर मौत कांक्रीट के नीचे दबने से हुई है। बाकी की जलने से भी हो गई हैं।

पाबंदी:- पहली बार केरल उच्च न्यायालय ने ऐसी प्रतिस्पर्धाओं पर पाबंदी लगाई थी। पुत्तिंगल मंदिर में आतिशबाजी की प्रतियोगिता के दौरान जो हादसा हुआ उसमें जो बात खास तौर से सामने आ रही है, वह यह है कि जिला प्रशासन ने मंदिर प्रशासन को न केवल प्रतियोगिताओं बल्कि किसी भी तरह की आतिशबाजी करने की अनुमति नहीं दी थी। लेकिन कार्यक्रम के आयोजकों की ओर से जो प्रचार सामग्री पोस्टर आदि जारी किए गए उनमें इन प्रतियोगिताओं का जिक्र तो था ही विजेताओं को बड़ा पुरस्कार देने की बात भी कही गई थी। जाहिर है कि आयोजकों ने जिला प्रशासन के आदेश की परवाह नहीं की।

भूमिका:- आम तौर पर प्रशासनिक आदेशों की पालना की जिम्मेदारी पुलिस पर होती है। ऐसे में स्थानीय पुलिस की यह जिम्मेदारी बनती थी कि वह इस तरह के आयोजन नहीं होने देती। पुलिस ने यह आयोजन होने दिया इसका मतलब यही है कि उनकी भी इस आयोजन के पीछे सहमति थी। कहा तो यह भी जा रहा है कि जिला कलक्टर ने आयोजकों को स्थानीय निवासियों का अनापत्ति प्रमाण पत्र लाने के लिए भी कहा था कि उन्हें इस आयोजन से कोई आपत्ति नहीं है। मंदिर प्रबंधन में ताकतवर लोगों की धमकी के चलते किसी ने असहमति नहीं जताई सिर्फ एक परिवार को छोड़कर। हालांकि कुछ परिवार पहले भी जिला प्रशासन को आतिशबाजी के आयोजन के कारण उनके घरों में नुकसान होने व बीमार लोगों को परेशानी की शिकायत कर चुके थे। पुत्तिंगल मंदिर का यह हादसा और भयावह हो सकता था।

सदमा:- केरल के कोल्लम स्थित पुत्तिंगल मंदिर हादसे में पटाखों ने कई लोगों की जिन्दगी ले ली। उस एक खौफनाक मंजर ने 41 परिवार के लोगों को पागलपन की कगार तक पहुंचा दिया है। अवसाद और सदमा इस कदर छाया है कि चूल्हे की आग देख कर भी इन घरों के लोग बाहर भागने लगते हैं। बरतन भी गिरता है तो उसकी आवाज सुन चीख पड़ते हैं। रोने लगते हैं। कोई शोर हो तो या गाड़ी आ जाये तो बिलकुल सहम जाते हैं। इन लोगों की हालत इतनी गंभीर है कि प्रशासन ने पांच मनोचिकित्सकों की एक दल इस इलाके में तैनात कर दी है। ताकि इन लोगों का इलाज किया जा सके। जो लोग गंभीर रूप से सदमें हैं यदि समय रहते उनका इलाज नहीं हुआ तो वे पागलपन की जद में जा सकते हैं। अब भी सैकड़ों लोग ऐसे हैं जिनके जेहन पर हादसे भयावह दृश्य चिपक सा गया है। घटना के छह दिन बाद भी कई लोग इतने तनाव में है कि घर में चूल्हा जलता देख चीखते हुए घर से बाहर भागते हैं। घटना स्थल के पास बारूद की गंध है। इसी से पता चलता है कि कितनी मात्रा में वहां पटाखे फूटे थे। मलबा भी चारों ओर बिखरा पड़ा है। वह जगह सील है जहां लोगों के शरीर के चीथड़े पड़े थे।

पंजक्षम्मा:-यह हादसा टल सकता था अगर 80 साल की पंजक्षम्मा की बात मान ली गई होती। उनका घर मंदिर के पास ही है। वे कई बार चेता चूकी थीं कलेक्टर से लेकर मंदिर प्रशान तक को लिखित शिकायत की। कहा किसी दिन बड़ा हादसा हो सकता है। इस हादसे में घर गंवाने वाली पंजक्षम्मा की बेटी अनिता प्रकाश ने बताया कि नजारा जंग के मैदान जैसा था, अाखरी धमाका तो ऐसा था जैसे कोई बम गिराया गया हो। शिकायत के बाद प्रशासन ने आतिशबाजी बंद करने की बात कही थी उसके बावजूद ऐसा नहीं हुआ था जिसका परिणाम सामने हैं।

बचाव:- यह अब तक का सबसे तेज और सटीक बचाव कार्य किया गया। प्रधानमंत्री मोदी दिल्ली से अपने साथ एम्स की बर्न (जलना) यूनिट (दल) के 6 चिकित्सक के दल को लेकर कोल्लम पहुंचे। साथ ही आदेश दिया कि प्रोटोकॉल (औपचारिक अवसरों के लिए नियमों की व्यवस्था) का पालन न किया जाए।

नौसेना ने 3 जहाज और चिकित्सकों के दल को भेजा। एयरफोर्स ने 10 हेलिकॉप्टर भेजे ताकि घायलों को जल्द चिकित्सको तक पहुंचाया जाए। एनडीआरफ की 4 दल चेन्नई से भेजी गई। केरल में चुनाव हैं। पर भाजपा समेत सभी दलों ने सभी चुनावी रैलियां रद्द कर दी।

राजनीतिक:- आम तौर पर ऐसे कार्यक्रमों की यदि जिला प्रशानसन अनुमति देता है तो वह दमकल आदि की व्यवस्था करता है। यहां तो सब कुछ बिना अनुमति के हो रहा था। और फिर आग इतनी भयानक थी के दमकलें भी बौनी साबित होती दिखाई दे रही थीे। अब इस हादसे की एसीपी आनंद कृष्णन जांच कर रहे हैं जो पुलिस की भूमिका भी देखेंगे। ऐसी बात भी सामने आ रही है। आयोजकों ने कार्यक्रम की शुरुआत से पहले बाकायदा स्थानीय नेताओं को धन्यवाद दिया। जाहिर है कि जिला प्रशासन के आदेश को धता बताकर कार्यक्रम करने की हिम्मत बिना राजनीतिक शह के नहीं हो सकती। हां अनुमति नहीं मिलने पर आयोजकों ने इसको दूसरा रंग देने की भी भरपूर कोशिश की थी क्योंकि जिला कलेक्टर समुदाय विशेष से हैं। हालांकि जनता ने इसे ज्यादा ध्यान नहीं दिया है।

नोटिस:- आए दिन मंदिरों, धार्मिक स्थलों पर होने वाली भगदड़ और बदइंतजामी को लेकर सुप्रीम न्यायालय ने वर्ष 2013 में केंद्र और राज्य सरकारों से प्रतिक्रिया मांगी थी। न्यायालय ने भीड़ वाली जगहों पर भगदड़ से बचने के लिए भीड़ प्रबंधन के बारे में पूछा था। तत्कालीन मुख्य न्यायाध्शी पी. सदाशिवम के नेतृत्व वाली बेंच ने केंद्र और राज्य सरकारों को इस संबंध में नोटिस जारी किए थे।

सबक:- राज्य सरकारों के भीड़ प्रबंधन और सुरक्षा के दावों के बीच किसी-न-किसी राज्य में धार्मिक प्रतिष्ठानों में भगदड़ की खबरें आती रहती हैं। कहीं लोग घायल होते हैं तो कईओं को जान गंवानी पड़ती है। हैरत की बात है कि जिन राज्य में ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं, वे तत्काल कोई सबक भी नहीं सीखते है। वहां ऐसे हादसे फिर होते हैं और फिर लोग बेमौत मारे जाते हैं। केरल, एमपी जैसे राज्य इसके उदाहरण हैं।

हादसे:- ये वो प्रमुख हादसे हैं, जिनमें मरने वालों की तादाद कही बहुत कम थी तो कहीं ज्यादा पर कारण एक-सा ही था। जो निम्न हैं-

  • 26 जनवरी 2005 महाराष्ट्र (सतारा) - मंढेर देवी मंदिर में वार्षिक आयोजन पर करीब 3 लाख श्रद्धालु एकत्र हुए थे। इसी दौरान वहां दुकानों में आग लगी, सिलेंडर फटे, लोगों में अफरातफरी मच गई रास्ता पहाड़ी और संकरा था। जबरदस्त भगदड़ मची और 265 लोग बेमौत मारे गए।
  • 4 मार्च 2010 उत्तरप्रदेश (प्रतापगढ़) - संत कृपालु महाराज के मनगढ़ मंदिर में गरीबों को मुफ्त खाना, बर्तन और नकदी बांटी जा रही थी। वहां एकत्र भीड़ को नियंत्रित करने का कोई इंतजाम नहीं था। परिणाम वही, भगदड़ मची और 65 लोगों को खाना नहीं बल्कि मौत हाथ लगी।
  • 13 अक्टूबर 2013 मध्यप्रदेश (दतिया हादसा) - दतिया में सिंध नदी पर बने संकरे पुल पर भीड़ रत्नगढ़ मंदिर की ओर जा रही थी। इस दौरान भगदड़ मची। 115 श्रद्धालु मारे गए। 30 बच्चे थे और 100 से अधिक घायल हुए। 2006 में इसी जगह 50 श्रद्धालु बह गए थे।
  • 3 अगस्त 2008 हिमाचल (नैना देवी हादसा) - पहाड़ी में स्थित नैना देवी मंदिर में श्रावण अष्टमी मेंले में दर्शन के लिए अनुमानित 25 हजार लोग जमा थे। मंदिर में जगह कम थी। एक रेलिंग गिरी और भगदड़ मच गई। 146 श्रद्धालुओं को जान गंवानी पड़ी। ज्यादातर बच्चे व महिलाएं थी।
  • 14 जनवरी 2011 केरल (शबरीमला हादसा) - श्रद्धालु मकराज्योति दर्शन के लिए मंदिर में एकत्र थे। भीड़ ने नियंत्रण खोया, भगदड़ हुई। 100 श्रद्धालुओं को जान गंवानी पड़ी। मंदिर में बड़ी तादाद में श्रद्धालुओं के प्रवेश व उन पर नियंत्रण न कर को लेकर सरकारी एजेंसिया कठघरे में थी।
  • 14 जुलाई 2015 आंध्र प्रदेश (राजमुंद्री) - गोदावरी पुष्करम के पहले दिन गोदावरी के घाटों पर स्नान के लिए लाखों की तादाद में लोग जमा थे। स्नान के लिए लोग पंक्तिबद्ध थे। ज्यों ही प्रवेश द्वार खुले तो एक घाट पर लोग गिर पड़े और भगदड़ हुई, 27 लोगों को जान गंवानी पड़ी।
  • 30 सितंबर 2008 जोधपुर (मेहरानगढ़ किला) - चामुण्डा देवी मंदिर में बड़ी तादाद में श्रद्धालु जमा हुए। लोगों की तादाद अंदर बढ़ती चली गई। मंदिर के भीतर आने वाले लोगों पर बाहर से बढ़ते दबाव के कारण लोग दबते चले गए। भगदड़ मची, 216 लोगों को जान गंवानी पड़ी।
  • 10 फरवरी 2013 उत्तरप्रदेश (इलाहाबाद कुंभ) - विश्वविख्यात आयोजन में करोड़ों श्रद्धालु दुनियाभर से पवित्र स्नान के लिए एकत्र होते हैं। 2013 में महाकुंभ का आयोजन था। रेलवे स्टेशन पर एक फुटब्रिज गिर पड़ा भगदड़ मची और 36 लोग मारे गए। 39 घायल हुए।
  • 10 अगस्त 2015 झारखंड (देवगढ़ हादसा) - सावन महीने में बैद्यनाथ मंदिर में हजारों की तादाद में श्रद्धालु पंक्तिबद्ध थे। आगे खड़े श्रद्धालुओं पर पीछे से दबाव बढ़ा। कुछ श्रद्धालु फिसल गए। भगदड़ मची और 11 लोग मारे गए। मंदिर प्रवेश द्वार पर बेरिकेडिंग तक नहीं थी।

लापरपाही:- पुत्तिंगल मंदिर हादसे में जानकार के अनुसार वहां प्रशासन ने अनुमति नहीं दी इसके बावजूद आतिशबाजी की गई। इस कारण से 100 से अधिक लोगों की मौत हुई और 300 से अधिक घायल हुए। ऐसे हालात को देखते हुए अब सवाल किए जा रहे हैं कि क्या वहां पुलिसबल कम था? आतिशबाजी करने वालों को रोका क्यों नही गया? कुछ भी हो जांच में सभी तथ्य सामने आएंगे। जांच से सब स्पष्ट होने के बावजूद हो सकता है लापरवाही बरतने वालों के विरुद्ध कार्रवाई भी हो लकिन हम कुछ सीखेंगे, इस बात की गारंटी नहीं है। इस तरह की लापरवाही बरती जाती रहेगी और इसका कारण यही है कि हम ऐसी बातों से सीखते ही नहीं हें।

अनुशासन:- यह बात सही कि हमारे देश में पुलिसकर्मियों को समय-समय पर धार्मिक कार्यक्रमों के प्रबंधन का प्रशिक्षण दिया जाता हे। लेकिन, यह प्रशिक्षण उस समय कुछ काम का नहीं रह जाता जब आयोजकों की ओर से ही अनुशासनहीनता को बढ़ावा दिया जा रहा हो। एक समय में एक स्थान पर कितने लोग रहें, इसकी पहले ही पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए। कब-कब कार्यक्रम होंगे एवं उनमें कौन से लोग उपस्थित होंगे। इसके पास दिए जाने चाहिए। कार्यक्रम स्थल तक पहुचने के लिए पर्याप्त बेरिकेड्‌स, पकड़ने के लिए रैलिंग होने चाहिए। आग लगने की स्थिति में लोगों की संख्या और कार्यक्रम स्थल के फेलाव को देखते हुए दमकलों की व्यवस्था की जानी चाहिए। सूचना, खोया-पाया केंद्र बनाए जाने चाहिए। भीड़ को अगर नियंत्रण करना है तो वैष्णों देवी स्थल के प्रबंधन से सीखना चाहिए।

कानून:- पूर घटनाक्रम को देखें तो यह बात साफ लगती है स्थानीय लोग दबंग हों और उनको पुलिस की भी शह हो तो फिर लाख पाबंदियों बावजूद ऐसे कार्यक्रम हो ही जाते हैं। भक्ति के आगे सुरक्षा मामलों को दरकिनार करने से ही ऐसे हादसे होते हैं। अब जब इतना बड़ा हादसा हो गया तो राज्य सरकार भी चेती है और जल्दी ही आतिशबाजी से संबंधित कार्यक्रमों की मंजुरी को लेकर कठोर नियम बनाने की बात कह रही हैं। काश! सारी कवायद पहले ही हो जाती तो निर्दोष लोगों को जान तो नहीं गंवानी पड़ती। देखना यह है कि जांच में किसी की लापरवाही निकलती है या महज लीपा-पाती का दौर शुरू हो जाएगा। ऐसे हादसों को तो सख्त कानून बनाकर रोकना ही होगा।

पुलिस:- हमें पुलिस को पेशेवर बनाना होगा। उसका राजनीतिकरण होने से बचाना होगा। गैर पेशेवर पुलिस काम में ढिलाई बरतती है और इसका दुष्परिणाम हादसें के रूप में सामने आता है। एक लाख की जनसंख्या पर 22 पुलिसकर्मी होने चाहिए। लेकिन, किसी राज्य में एक लाख पर 170 या किसी में 160 की स्वीकृति होती । फिर स्वीकृति के मुकाबले उपलब्धता भी सीमित रहती है। इसमें से बहुत से पुलिसकर्मी राजनेताओं की शानो शौकत में हाजिरी भेजे जाते है। इस तरह में 90 - 100 पुलिसकर्मियों की वास्तविक उपलब्धता होती है। ऐसे में यदि कार्यक्रम आयोजकों की ओर से ही अनुशासन भंग हो तो पुलिसकर्मी गैर पेशेवर अंदाज में उसकी उपेक्षा करने लगते हैं। लेकिन, यही उपेक्षा कभी-कभी घातक हो जाती है।

पुलिस ने इस मामले में मंदिर के वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज किया है। मामला दर्ज होने के बाद वे फरार हो गए हैं। वहीं, पुलिस ने इलाके में परमिट से 10 गुना अधिक पटाखे का भंडारण करने वाले एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया हैं। आतिशबाजी का आयोजन करने वाले सुरेंद्रन व उसके पुत्र उमेश के खिलाफ भी मामला दर्ज किया गया है। वहीं माकपा नेता कोदियेरी बालाकृष्णन ने सरकार पर पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम न करने का आरोप लगाया है।

प्रबंधन:- आपदा प्रबंधन के जानकार मानते हैं कि किसी भी धार्मिक और पवित्र स्थान पर भीड़ जमा होने से पहले पुलिस और स्थानीय प्रशासन को मिलकर एक रास्ता निकाल लेना चाहिए। जहां संकरा रास्ता हो या भीड़ जमा होने का संदेह हों, वहां खास ध्यान रखा जाए। फिर आयोजन वाले दिन सही तरीके से भीड़ पर नियंत्रण हो और भीड़ का प्रवाह सतत बनाए रखा जाए। इससे भगदड़ से होने वाले हादसों से बचा जा सकता है। हादसे के अन्य प्रबंध हम पूर्व में मक्का हादसा के निबंध में बता चुके हैं।

प्रवृत्तिया:-इस घटना से हमारे समाज में व्यापक सतर पर मौजूद तीन प्रवृत्तियों पर ध्यान केंद्रित हुआ है। जो इस प्रकार से हैं-

  • पहली बात -तो धर्म, प्रदर्शन का रूप लेता जा रहा है। मेरा विश्वास हैं कि हिंदू धर्म एक नितांत निजी धर्म है। ऐसा धर्म जिसमें ईश्वर के साथ आपके व्यक्तिगत संबंध का ही महत्व होता है। लेकिन हिन्दु मंदिर अब धर्म-निष्ठा के सार्वजनिक प्रदर्शन में मस्जिदों व चर्चों से प्रतिस्पर्धा कर रहा हैं। ज्यादातर हिन्दू मंदिर में अपने प्रिया देवता की एकांत अराधना के लिए जाते हैं। लेकिन आज वहां सबसे अधिक उपस्थित तब होती जब वहां कोई दर्शनीय आयोजन होता है। यह जूलस से लेकर पटाखें छोड़ देने तक कुछ भी हो सकता हैं। यह मंदिरों को लगता है कि पटाखों की चकाचौंध से वे भक्तों की आस्था बरकरार रख सकते हैं तो वाकई हमारा धर्म खेदजनक दौर में पहुंच गया है। इसलिए देवी मंदिर केरल में जब पटाखों चलाने पर प्रतिबंध की मांग उठी तो केरल के मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने जनता पर धर्म के गहरे प्रभाव को देखते हुए यही कहा कि धार्मिक संस्थाओं से जुड़े आयोजनों पर ऐसी पाबंदी व्यावहारिक नहीं है। भारत में परंपरा हमेशा ऐसी दलील है जिसका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसके लिए बहुत साहस की आवश्यकता होती है। खास तौर में चुनाव के मौसम में बहुत ही कठिन हैं। क्योंकि केरल में अभी चुनाव होनें हैं।
  • दूसरी बात- यह है कि चिंता प्रक्रियाओं में शिथिलता और कानुन के लिए सम्मान से सबंधित है। जिसमें पटाखों की अनुमति न देने के बाद भी पटाखें फोड़े गए। यह बात कानून पालन के प्रति हमारा रुख लापरवाही भरा है, जो हमारे समाज के लिए अच्छा नहीं है। दुनिया में सबसे सुरक्षित जगहे वे हैं जहां हर नियम-कानून का पालन होता है। हमारे राजनीति में आमतौर पर यह रवैया होता है कि जनता का समर्थन करो, फिर चाहे वह गलत ही क्यों न हो। जब तक यह रवैया नहीं बदलेगा, हम सच्चे अर्थों में आधुनिक समाज नहीं बना सकते हैं।
  • तीसरा बात -हर छोटा-मोटा राजनेता त्रासदी की जगह पर पहुंच कर काफी सार्वजनिक धन बर्बाद कर वहां काम कर रहे अधिकारियों का ध्यान बांट देता है। नेता भी क्या करे नहीं तो त्रासदी के स्थान में न जाने पर उसके खिलाफ इस्तमाल किया जायेगा।

जो प्रवुतियां मेने बताई वे सामाजिक हैं इसमें हम सब भागीदार हैं चाहे कांग्रेस, भाजपा या अन्य कोई पार्टी हो। खामी हमारे भीतर है और भीतर ही हमें प्रायश्चित करना होगा।। इन खामियों के लिए एक-दूसरे को दोष देने का फायदा नहीं, क्योंकि हम खुद इनसे मुक्त नहीं हैं। देवी मंदिर की त्रासदी हम लंबे समय तक भुला नहीं पाएंगे, लेकिन यदि हम चाहते हैं। कि ऐसी त्रासदी दोहराई न जाएं तो यही समय है हम अपने समाज में पैदा गलत तौर-तरीकों को सुधार लें, जिन्होंने इस त्रासदी को जन्म दिया है।

शशि थरूर, विदेश मामलों की संसदीय समिति के चेयरमैन व पूर्व केंद्रीय मंत्री

जांच:- केरल सरकार ने मंदिर में आग लगने की न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं। उम्मीद है कि यह निष्कर्ष तक पहुंचेगी। केरल पुलिस की अपराध शाखा को भी त्रासदी की जांच करने को कहा गया है। जो अतिरिक्त महानिदेषक स्तर के अधिकारी करेंगे। इससे साजिश की आशंका जताने वाले भी संतुष्ट होगें। न्यायिक जांच के लिए 6 माह का समय दिया गया है।

उपसंहार:-पुत्तिंगल मंदिर में हुआ हादसा देश में हुआ पहला हादसा नहीं है दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हम कभी पूर्व में हुए हादसों से सीखने की कोशिश नहीं करते। देश के अनेक मंदिरों में कार्यक्रम होते हैं। वहां परंपराएं निभाने में भीड़ को देखते हुए सख्त अनुशासन की आवश्यकता होती है। इन मामलों में हम बाते तो अनुशासन की बहुत करते हैं। लेकिन जब उसे खुद पर ही लागू करने की बात आती है तो सबसे पीछे नजर आते हें। यही नहीं हम चाहते हैं कि अनुशासन तोड़ने में पुलिस और प्रशासन भी सहयोग करे। फिर बिगड़ जाए तो उसकी जिम्मेदारी पुलिस और प्रशासन पर डाल देने की परिपाटी सी बन गई है। इसलिए हमें पूर्व में हुए हादसों से सबक लेना बहुत आवश्यक है ताकि आगे आने वालो हादसों को पूर्ण तैयारी करके रोका जा सके।

Examrace Team at Aug 24, 2021