नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize - In Hindi)

प्रस्तावना:-नोबेल पुरस्कारों के जरिए उल्लेखनीय कार्य करने वाले लोगों और संस्थाओं को सम्मानित करने के प्रयासों को सलाम। लेकिन पिछले कुछ दशकों के दौरान इस बड़े नाम वाले इनाम पर सवालियां निशान भी लगे हैं। क्या पुरस्कार देने के पीछे कोई एजेंडा (कार्यसूची) होता है? कई ऐसे लोगों को भी इनाम प्रदान किए गए, जिनकी उपलिब्धयों पर बहस हो सकती है। इस वर्ष का नोबल शांति पुरस्कार गुमनाम सी संस्था इंटरनेशनल (अंतरराष्ट्रीय) कैंपेन फॉर (के लिए) एबॉलिशमेंट (सजावट) टू (तक) न्यूक्लियर (नाभिकीय) वीपंस (हथियार) (आईसीएएन) को प्रदान किया गया है। उ. कोरिया की परमाणु धमकियां और जस का तस एटमी जखीरा, कैसे होगी भयमुक्त दुनिया? ऐसे में शांति के प्रयासों और नोबेल पुरस्कार में रार भी सामने आती है। वैसे अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी को अब तक नोबेल से नवाजा नहीं गया है … ये भी एक सवाल है?

खतरा:- वर्ष 2017 का नोबले शांति पुरस्कार आईकैन संस्था को दिया गया है। यह संस्था परमाणु युद्ध के खिलाफ चेतना जगाने और इन्हें रोकने के दिशा में कई वर्षो से अहम काम कर रही है। इस संस्था का चयन 215 व्यक्तियों और 103 संस्थाओं में से किया है। आईकैन लगभग डेढ़ सौ गैर सरकारी संस्थानों का समूह है। आईकैन के पास इस आशय के 122 देशों के हस्ताक्षर हैं। इसे मानवीय वचनबद्धता का नाम दिया गया है। लेकिन इनमें एटमी जखीरे वाले देश नहीं हैं। सवाल उठता है कि क्या यह संस्था सिर्फ कागजी कार्रवाई कर रही है या जमीनी हकीकत में काम हो पा रहा है। दुनिया को एटमी युद्ध की आशंका से बचाना जरूरी है। 70 वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र ने यह निर्णय किया था कि एटमी अस्त्र निर्माण, विकास, भंडारण और उपयोग गैरकानूनी है। इसके बावजूद दुनिया में 1500 एटमी हथियार बनाने और जमा करने पर रोक नहीं लग पाई है। दुखद बात है कि जिन देशों को एटमी अस्त्रों के खिलाफ मोर्चा लेना चाहिए या खिलाफ माहौल बनाना चाहिए वही देश सबसे अधिक आणविक हथियार बनाए, संभाले और उनका आतंक पैदा किए हुए हैं। नोबेल शांति पुरस्कारों पर उससे पहले भी विवाद होते रहे हैं और ये पुरस्कार ऐसे व्यक्तियों को मिलते रहे हैं जिन्होंने शांति का झंडा एक हाथ में उठा रखा और दूसरे हाथ से हथियार बेचने के लिए दुनिया भर में सौदेबाजी करते रहे। उम्मीद है कि आईकैन सिर्फ हस्ताक्षर जमा करने के अलावा ठोस काम करने की दिशा में पहल करे। नोबेल शांति पुरस्कार के बाद उसका दायित्व बढ़ा है। संस्था की प्राथमिकता में एटमी हथियारों को खत्म कराया। काम इतना आसान नहीं है।

नोबेल शांति:- वर्ष 1939 में स्वीडिश संसद के सदस्य ब्रेंडट ने जर्मन तानाशाह हिटलर का नाम नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नॉमिनेट (मनोनीत) किया। उस समय स्वीडिश संसद के अधिकांश सदस्यों ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविली चैंबरलिन का नाम नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया था। वैसे ब्रेंडट ने हिटलर का नाम व्यंग्य में नोमिनेट किया था। बाद में उन्होंने हिटलर का नाम वापस ले लिया। अंतत: चैबरलिन को नोबेल शांति पुरस्कार मिला।

हस्तियां:- प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार लेने से अब तक इतिहास में दो हस्तियों ने इनकार भी किया है। वर्ष 1964 में फ्रांस के ज्यां पॉल सात्रे ने साहित्य का नोबले लेने से इनकार कर दिया। वर्ष 1973 में वियतनाम के ली डुक थो ने शांति का नोबेल ठुकरा दिया। उस समय थो का कहना था कि जब वियतनाम में शांति स्थापित नहीं हुई तो पुरस्कार कैसा?

नोबेल पुरस्कार मिला पर विवाद क्यों:-

  • बराक ओबामा- अमरीकी राष्ट्रपति बनने के नौ महीने बाद ही नोबेल मिला, वर्ष 2015 में नोबेल इंस्टीटयूट (संस्थान) के पूर्व निदेशक ने भी फैसले को गलत बताया।
  • यूरोपीयन यूनियन (संघ) - वर्ष 2012 में नोबेल दिया गया, पर विश्व में सबसे ज्यादा हथियार निर्माण यूरोपीय देशों द्वारा ही होता है।
  • आन सांग सू की- म्यांमार की इस मानवाधिकार नेत्री को विश्व शांति और मानवाधिकारों के लिए नोबेल मिला, पर रोहिंग्याओं के मुद्दे चुप्पी के लिए आलोचना।
  • फ्रिट्‌ज हेबर- अमोनिया के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए पुरस्कार, प्रथम विश्व युद्ध में ये हथियार के रूप में प्रयुक्त, हेबर ने इसका समर्थन किया था।
  • हेनरी किसिंगर- अमरीका के विदेश मंत्री रहे लेकिन वियतनाम युद्ध में उनकी भूमिका और हनोई में भारी बमबारी के आदेश आलोचना का मुख्य कारण।
  • यासर अराफात-ओस्लो संधि पर हस्ताक्षर किए, लेकिन शांति स्थापना नहीं हुई, नोबेल समिति सदस्य ने इस्तीफा दिया।

नोबेल पुरस्कार इन क्षेत्रों में मिला- 06 क्षेत्र मेडिसन, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, साहित्य, शांति और अर्थशास्त्र में नोबेल 923 को अब तक नोबेल पुरस्कार मिल चुका है, इसमें पुरस्कार पाने वाले 896 लोग और 27 संगठन शामिल हैं।

वे भारतीय जिन्हें मिला नोबेल सम्मान-

  • क्षेत्र साहित्य

रविन्द्र नाथ टैगोर- उपलब्धि, वर्ष 1913 में उत्कृष्ठ साहित्य सृजन के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। रविन्द्र नाथ टैगोर नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय होने के साथ-साथ पहले गैर यूरोपीय भी थे।

  • क्षेत्र भौतिकशास्त्र-

सीवी रमन- उपलब्धि, वर्ष 1930 में नोबले मिला। वर्ष में 1888 में जन्मे सीवी रमण ने प्रकाश से जुड़े जिन प्रभावों की खोज की थी। उनके इस आविष्कार को रमन इफेक्ट (प्रभाव) के नाम से जाना जाता है।

  • क्षेत्र विश्व शांति-

मदर टैरेसा- उपलब्धि, वर्ष 1979 में मदर टैरेसा को गरीबों और जरूरतमंदो की सेवा कार्य के लिए नोबेल से नवाजा गया। गरीबों और पीडित लोगों के लिए जो किया वो दुनिया भर में अपूर्व माना जाता है।

  • क्षेत्र अर्थशास्त्र-

अमर्त्य सेन-उपलब्धि, अर्थशास्त्र के गूढ़ सिद्धांतों को सेन ने आसान तरीकों में प्रतिपादित करने का कार्य किया। वर्ष 1998 में लोककल्याणकारी अर्थशास्त्र की परिकल्पना के लिए नोबेल से नवाजा।

  • क्षेत्र विश्व शांति-

कैलाश सत्यार्थी- उपलब्धि- वर्ष 2014 का शांति का नोबेल पुरस्कार कैलाश सत्यार्थी को मिला, बाल अधिकारों के लिए संघर्ष और बच्चों की शिक्षा के लिए कार्यो की स्वीकृति के रूप में नोबेल मिला।

  • क्षेत्र चिकित्सा-

हर गोविंद खुराना-उपलब्धि- वर्ष 1968 में मानव शरीर में जेनेटिक कोड और प्रोटीन सिन्थेसिस पर कार्य के लिए नोबेल मिला। सुराना का जन्म ब्रिटिश भारत के रायपुर में हुआ। अमरीका में जा बसे थे।

  • क्षेत्र एस्ट्रो फिजिक्स- (खगोल भौतिकी)

एस. चंद्रशेखर-उपलब्धि वर्ष 1983 में सितारों की आकृति और कैसे सितारे बने इसके सैद्धांतिक शोध के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला। चंद्रशेखर का जन्म अविभाजित भारत के लाहौर में हुआ था।

  • क्षेत्र रसायन शास्त्र-

वी. रामाकृष्णनन-उपलब्धि- वर्ष 2009 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित। राइबोसोम के स्ट्रक्चर (संरचना) और कार्यप्रणाली के क्षेत्र में शोध। तमिलनाडु के चिदंबरम में जन्म, फिलहाल अमरीकी नागरिकता प्राप्त है।

इनका भी भारत से कनेक्शन (संबंध) -रोनाल्ड रॉस, रुडयार्ड किपलिंग, वीएस नॉयपाल, राजेन्द्र पचौरी।

शोध कार्य:- वर्ष 1930 में सी. वी. रमन को नोबेल के बाद किसी भारतीय को ये पुरस्कार नहीं मिला है। ऐसा क्यों? हम यदि अमरीका से इसकी तुलना करें तो फर्क साफ नजर आता है। 2015 की विश्व बैंक एंव यूएनईएससीओ रिपोर्ट (विवरण) के अनुसार भारत जीडीपी का 0.63 फीसदी शोध एवं विकास पर खर्च करता जबकि अमरीका 2.79 फीसदी। भारत सरकार वैज्ञानिक शोध पर गंभीर तो लगती है, पर बहुत करना बाकी है। दव्तीय विश्वयुद्ध के बाद अमरीकी वैज्ञानिकों ने फंडामेंटल (मूलभूत) विज्ञान पर काफी शोध किया। सुविधा मिली व राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त रखा गया। भारत में शोध ढांचे में बदलाव हो। भारतीय विवि में आधुनिक लैब (प्रयोगशाला) , स्टाफ (सदस्य) और बजट का अभाव है। डिग्री (उपाधि) देने की बजाए शोध पर ज्यादा काम हो। अमरीका के ज्यादातर विवि में अप्लाइड (तुरंत उपयोग में आने वाले) शोध होते हैं भारत में भी इस दिशा में काम हो। भारत के सरकारी शोध संस्थानों में भी इस दिशा में काम होना चाहिए। साथ ही देश में विश्वविद्यालयों में स्टाफ (सदस्य) को परफॉर्मेंस (प्रदर्शन) बेस (आधार) बनाना चाहिए। जैसे कि अमरीका सहित अन्य विकसित देशों मेंं होता है। इससे विज्ञान के प्रति छात्रों में सहज आकर्षण उत्पन्न होगा।

डॉ. रमेश रलिया, वैज्ञानिक वॉशिंगटन विवि.

अहिंसा का पुजारी:- राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को नोबेले शांति पुरस्कार देने के लिए पांच बार नामांकित किया गया। महात्मा गांधी का नामांकन सबसे पहले वर्ष 1937 फिर 1938,1939, 1947 और फिर 1948 में किया गया। वर्ष 1947 में महान स्वतंत्रता सेनानी गोविंद वल्लभ पंत और बीजी खेर ने उनका नामांकन किया था।

गांधी जी को नोबेल न देने कारण निम्न है-

  • नोबेल कमेटी (समिति) के सामने वर्ष 1948 में एक बार फिर महात्मा गांधी का नाम आया। मंथन चल ही रहा था कि 30 जनवरी, 1948 में महात्मा गांधी की हत्या हो गई। कमेटी ने नोबेल अवार्ड महात्मा गांधी को मरणोपरांत देने का विचार किया, पर फिर निर्णय किया कि उस वर्ष किसी को भी अवार्ड (पुरस्कार) नहीं दिया जाए।
  • महात्मा गांधी को 1948 में मरणोपरांत नोबेल पुरस्कार नहीं देने पर नोबेल कमेटी का तर्क था कि महात्मा गांधी किसी संगठन से जुड़े नहीं थे। नोबेल फाउंडेशन (नींव) की वेबसाइट के अनुसार गांधी की कोई वसीयत या संपत्ति भी नहीं थी, ऐसे में पुरस्कार राशि किसे दें?
  • महात्मा गांधी को नोबेल पुरस्कार नहीं दिये जाने पर पहली बार वर्ष 1989 में नोबेल कमेटी ने उल्लेख किया। दलाई लामा को शांति को नोबेल देते समय कमेटी (समिति) अध्यक्ष ने गांधी का जिक्र किया। इसके बाद वर्ष 2006 में नोबेल कमेटी के सचिव गीयर लुंडस्टैड ने कहा कि महात्मा गांधी तो नोबेल के बिना भी महान है पर सवाल ये है कि क्या गांधी के बिना नोबेल कमेटी पूर्ण है? इस पर कमेटी को विचार करना होगा।

विनाश:-इंटरनेशल (अंतरराष्ट्रीय) कैपेन फॉर (के लिए) एबॉलिशमेंट (सजावट) टू (तक) न्यूक्लियर (नाभिकीय) वीपंस (हथियार) (आईसीएएन) को इस वर्ष नोबेल शांति पुरस्कार दिया जाना परमाणु हथियारों की वजह से दुनिया भर में मंडरा रहे संकट की तरफ सभी का ध्यान आकृष्ट करना है। इस समय उ. कोरिया-अमरीका परमाणु संकट के साथ ही ईरान के परमाणु हथियारों को मसला भी उठ रहा है। आईसीएएन, परमाणु निशस्त्रीकरण के लिए काम करने वाली एक निर्विवादित संस्था है इसलिए पुरस्कार पर किसी तरह के विवाद न होने की स्थिति को देखते हुए भी पुरस्कार मिलना एक कारण रहा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब तक परमाणु निशस्त्रीकरण के लिए ताकतवर देशों में आपस में सहमति नहीं बन जाती है तब तक यह पुरस्कार कितना प्रभाव छोड़ पाएगा कहा नहीं जा सकता। फिलहाल अंतरराष्ट्रीय राजनीति जितनी उलझी हुई है उससे लगता नहीं कि पुरस्कार सीधा कोई प्रभाव डाल पाएगा। परमाणु निशस्त्रीकरण के लिए संयुक्त राष्ट्र पिछले दो दशकों में उल्लेखनीय काम नहीं कर पाया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने परमाणु निशस्त्रीकरण के लिए एक प्रस्ताव पास किया था लेकिन वो ज्यादा महत्व नहीं रखता है। इस मुद्दे पर कार्य करने के लिए तीन-चार बिन्दुओं के लिए सहमति बनी थी लेकिन अब तक उसकी कोई विस्तृत कार्ययोजना नहीं बन पाई एएन को पुरस्कार सही है पर वर्तमान अंतरराष्ट्रीय राजनीति में शयद ही इसका कोई सीधा प्रभाव पड़े।

संयुक्त राष्ट्र में कई मुद्दों पर न्यूनतम सहमति की बात भी नहीं बन पा रही है। संयुक्त राष्ट्र में वर्ष 1992 में रासायनिक हथियारों प्रतिबंध को लेकर समझौते का मसोदा तैयार हुआ था, उसको लागू करने में काफी वक्त लगा। संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न एजेंसियों (शाखओं) के कमजोर होने के पीछे एक मुख्य वजह है कि इनमें न्यूनतम मुद्दों पर भी सहमति नहीं बन पाती है। जैसे सीटीबीटी पर सभी स्थाई सदस्य सहमत हो गए थे पर इस पर भी भारत और पाकिस्तान जैसे देशों ने सहमति नहीं दी है। परमाणु निशस्त्रीकरण के साथ-साथ परमाणु अप्रसार और हथियारों के दुरुपयोग पर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहस चलती रही है। अल-कायदा और आईएसआईएस के उभार के बाद के परमाणु हथियारों के आतंकियों के हाथ में पड़ने की आशंका व्यक्त की गई। हालांकि हथियारों के चुराने पर भी उनको तकनीकी रूप से चलाना आसान नहीं होता है। पर ऐसी परिस्थितियों में विनाश की आशंका बनी रहती है। अब विकसित देश परमाणु हादसों से बचने के लिए धीरे-धीरे परमाणु बिजलीघर भी बंद कर रहे हैं और इस तकनीक को भारत और चीन जैसे विकासशील देशों को बेच रहे हैं। विकसित देशों में आवश्यकता की पूर्ति के लिए पर्याप्त बिजली है और परमाणु हादसे का खतरा भी खत्म हो जाता है। भारत और चीन जैसे देशों की ऊर्जा आवश्यकताएं बढ़ रही है और बढ़ती ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरे देशों पर निर्भर है क्योंकि अपनी जरूरत का ज्यादातर क्रूड ऑयल (कच्चा तेल) इन्हें आयात करना पड़ता है। इसलिए फिलहाल ये देश किसी प्रकार की ऊर्जा पर पूर्णतया प्रतिबंध नहीं लगा सकते हैं और परमाणु ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहे हैं।

प्रो. राजेश राजगोपालन, अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और सामरिक मामलों के विशेषज्ञ

समीकरण:- अल्फ्रेड नोबेल ने 27 नवंबर 1895 को अपनी आखिरी वसीयत में लिखा था-वह व्यक्ति जिसने देशों के बीच भाईचारे के लिए, सेनाओं के खात्मे के लिए और शांति सम्मेलनों के लिए सबसे अधिक काम किया हो, उसे यह पुरस्कार दिया जाए। अल्फ्रेड नोबेल का आशय विश्व शांति के लिए दिए जाने वाले नोबेल पुरस्कार से था। पिछले 117 वर्षो में 98 लोगों और संस्थाओं को दिए गए इस पुरस्कार ने अमन चैन कायम करने की कोशिशों में लगे अनेक लोगाेे की मुहिम को बल दिया। लेकिन दूसरी तरफ यह भी बहुत साफ दिखता है कि पश्चिमी दुनिया के अपने हित इसके निर्णय में एक अहम भूमिका निभाते रहे हैं। उ. कोरिया के खिलाफ अमरीका और दूसरे पश्चिमी देशों के लगातार चल रहे अभियान के मद्देनजर इस बार परमाणु हथियारों के खात्मे के लिए काम कर रही संस्था आईसीएएन को मिले पुरस्कार से यह बहस एक और बार फिर शुरू हो गई है। इसमें कोई दो राय नहीं कि परमाणु बम मानवता की सबसे खौफनाक इजाद है और इनका वजूद इंसानी वजूद पर एक खतरे की तरह है। लेकिन उ. कोरिया की तरफ उठी अंगुली के बरक्स अमरीका और उसके दोस्तों की तरफ मुड़ी चार अंगुलियो को नजरअंदाज कर दुनिया से एटमी खतरे को दूर करने का कोई सवाल ईमानदार कैसे हो सकता है?

शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अमरीका ने जिस तरह थानेदार की भूमिका अपनाई है उसमें उसके विरोधियों के लिए कोई जगह नहीं है। वह उ. कोरिया में लोकतंत्र की बात करता है लेकिन अरब देशों से मिल रहे तेल के बरक्स वहां के निजाम पर खामोशी इख्तियार कर लेता है। वह लैटिन अमरीकी देशों में उठती जनता की आवाजों को खामोश करने के लिए वहां कि अमरीकापरस्त शासकों की हर सही-गलत हरकत पर आंख मूंद लेता है, लेकिन क्यूबा में फिदेल की हत्या की अनगिनत कोशिशें करता है। वर्ष 2005 में भी तुर्की के डॉ. मुहम्मद अल-बारदेई को भी उनकी संस्था आईएईए के एटमी हथियार विरोधी कामों के लिए यह पुरस्कार मिला था, लेकिन इसका असर इसी बात से समझा जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र से संबंद्ध यह संस्था बगल के ईरान में भी परमाणु हथियार के निर्माण को नहीं रोक सकी। पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति अल गोर को उनकी संस्था आईपीसीसी के लिए यह पुरस्कार मिला तो पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार देने के लिए जिमी कार्टर की तरह कार्यभार से मुक्त होने का भी इंतजार नहीं किया गया। यदि गौर से देखें तो पिछले वर्षों में यह कोफी अन्नान सहित अनेक ऐसे लोगों के खाते में गया है जो संयुक्त राष्ट्र से और इस तरह अमरीकापरस्त शांति प्रयासों से संबंद्ध रहे हैं। एक उदाहरण मलाला युसुफजई को मिला पुरस्कार है, जिसका उद्देश्य अमरीका के लिए अफगानिस्तान तथा दूसरे इलाकों में किए अपने हमलों को न्यायसंगत ठहराना अधिक था। दुनिया आज जिस मुकाम पर है वहां एक बड़ा युद्ध उसकी तबाही का कारण हो सकता है और इसे रोकने की हर कोशिश महत्वपूर्ण है, लेकिन यह भी तय है कि कोई भी एक देश या समूह सारी दुनिया को अपनी छतरी के नीचे लेकर उसके बाहर रहने की कोशिश करने वालों को यदि नेस्तनाबूद कर देना चाहेगा तो यह खतरा कम होने की जगह बढ़ता चला जाएगा।

अमरीकी अर्थशास्त्री:- अर्थशास्त्र को मनोविज्ञान से जोड़कर उसे मानवीय चेहरा प्रदान करने वाले अमरीकी अर्थशास्त्री शिकागो यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) के प्रोफेसर (प्राध्यापाक) रिचर्ड थेलर को वर्ष 2017 के अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया है। थेलर के अनुसार आर्थिक एवं वित्तीय फैसले हमेशा तार्किक नहीं होते बल्कि ज्यादातर वे मानवीय हदों से बंधे होते है। रिचर्ड थेलर ने अर्थशास्त्र में बिहेविरियल इकोनॉमिक्स यानी व्यवहार अर्थशास्त्र को परंपरागत नजरिए से हटकर पेश किया है। आमतौर पर यह माना जाता है कि उपभोक्ता वित्तीय मामलों में हमेशा समझदारी से फैसले लेता है। थेलर ने इसी मान्यता को खारिज किया। वर्ष 2008 में नज नामक किताब लिखने वाले थेलर का मानना है कि लोग विवेक को ताक पर रखकर भी कई आर्थिक फैसले लेते हैं। उन्होंने अपनी रिसर्च (खोज) में बताया कि लोग एक समान तरीके से तार्किक स्थिति से दूर हो जाते हैं, ऐसे में उनके व्यवहार के बारे में पता लगाया जा सकता है। उन्होंने एक उदाहरण द्वारा इसे स्पष्ट करने की कोशिश की। पेट्रोल की कीमतें कम होने की स्थिति में अर्थशास्त्र के मान्य सिद्धांतों के तहत उपभोक्ता बचे हुए पैसे से बहुत जरूरी समान ही खरीदेगा। हकीकत यह है कि वह इस हालत में भी बचे हुए धन को पेट्रोल पर ही खर्च करेगा। उन्होंने सिद्ध किया कि लोग आमतौर पर उस वस्तु के लिए ज्यादा खर्च करते हैं जो उनके पास पहले से मौजूद है। उन्होंने इसे एंडोवमेंट (अक्षय निधि) इफेक्ट (प्रभाव) की संज्ञा दी। दरअसल थेलर ने अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान के बीच की खाई को पाटने की कोशिश की है। थेलर का शोध यह पड़ताल करता है कि वित्तीय मुद्दों पर किसी व्यक्ति, व्यक्तियों या समूहों द्वारा किए गए फैसलों पर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारकों का क्या असर रहता है। थेलर के शोध ने निर्णय की प्रक्रिया में आर्थिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के बीच सेतु का काम किया है। इसमें सीमित तर्कसंगतता, सामाजिक प्राथमिकताएं और स्व नियंत्रण की कमी के परिणामों की पड़ताल करते हुए उन्होंने दिखाया है कि ये मानवीय गुण व्यक्तिगत फैसलों और बाजार के परिणामों को किस प्रकार प्रभावित करते हैं। उनका अनुभव आधारित शोध परिणाम और सैद्धांतिक परख नए और तेजी से फैलते व्यवहारिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र के लिए मददगार साबित हुए हैं। उनके दिए सूत्रों से लोग खुद पर बेहतर तरीके से नियंत्रण रख सकते हैं। कई लोगों को देखा होगा कि वे अत्यधिक अतार्किक निर्णय से खर्च करते हैं, फलत: उनका बजट बिगड़ जाता है। आर्थिक मनोविज्ञान फिजुलखर्ची की वजह बताकर फिजुलखर्ची रोकने में अत्यंत आवश्यक है।

राहुल लाल, टिप्पणीकार, अंतरराष्ट्रीय मामलों पर सतत लेखन

  • इन्हें मनोविज्ञान से मिलने वाली अंतर्दृष्टि को उन मॉडल्स (आदर्श) में विलय करने के लिए सराहना मिली है, जिन्हें अर्थशास्त्री व्यक्तिगत निर्णय प्रक्रिया के अध्ययन के लिए इस्तेमाल करते हैं। हालांकि, मुख्यधारा के अर्थशास्त्री व्यक्तिगत स्तर पर लिए जाने वाले निर्णयों का परीक्षण करने और अनुमान लगाने के लिए अत्याधुनिक मॉडलों (आदर्श) का प्रयोग करते हैं पर ये मॉडल मानव के व्यवहार संबंधी कई प्रश्नों के उत्तर देने में नाकाम रहते हैं।
  • जैसे क्यों भारत में कई राज्य सरकारें महीने की पहली तारीख को शराब बेचने नहीं देती? थैलर का सिद्धांत इस फैसले की व्याख्या कर सकता है। पहली तारीख को वेतन मिलने के बाद खुद पर काबू न रखने वाले असंयमी लोग शराब की दुकान के बाहर कतार में लग आएंगे और कड़ी मेहनत की कमाई शराब में उड़ा देंगे व उनके परिवार परेशानी में पड़ जाएंगे। इसी तरह राजमार्गों पर शराब दुकाने बंद करने का सुप्रीम (सर्वोच्च) कोर्ट का फैसला शराब पीकर वाहन चलाने और दुर्घटनाएं घटाने में मददगार हो सकता है। दूसरे शब्दों में कई बार मानव को आत्म-विनाश के फैसले करने से रोकना पड़ता है।
  • आर्थिक मॉडल (आदर्श) तर्कसंगत लोगों को ध्यान में रखकर चलता है। इन लोगों को यह बताने की जरूरत नहीं होती कि उनके लिए क्या सर्वोत्तम है। इसके विपरीत थैलर कहते हैं कि लोगों का खुद पर नियंत्रण नहीं होता और वे भोजन व मदिरा पान, धूम्रपान, सेवानिवृत्ति के बाद के लिए बचत और अन्य दूर के लक्ष्यों के बारे में अतार्किक चयन कर लेते हैं। उनके मुताबिक संज्ञानात्मक सीमाएं और मानवीय कमजोरियों के कारण गलत फैसले ले लिए जाते हैं। यही 2008 - 09 में दुनिया में मंदी लाने वाले अमेरिकी सब-प्राइम (प्रधान) संकट के पीछे का कारण था।
  • किसी सुपरमार्केट (बड़ा बाजार) में खरीददारी करते समय सारे विकल्पों पर विचार करके सर्वश्रेष्ठ पेशकश चुनने की बजाय लोगों का रुझान वे वस्तुएं खरीदने पर होता है, जिन पर उनकी निगाह सबसे पहले पड़ती है। इसलिए उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माता अपने प्रोडक्ट (उत्पाद) प्रमुखता से प्रदर्शित करने पर जोर देते है। बाय (खरीद) वन (एक) गेट (प्राप्त) वन (एक) फ्री (निशुल्क) जैसे मार्केटिंग (विपणन) के तरीके उपभोक्ताओं की इसी अतार्किकता को भुननों में बनाए गए है।
  • उनका शोध जिस दूसरी बात पर जोर देता है वह है डिफाल्ट (दोष) ऑप्शन (विकल्प) का महत्व-यानी ऐसा विकल्प, जो तब अपने आप लागू हो जाएगा, जब आप सक्रिय रूप से कोई अन्य चुनाव न करें। मानव आलसी प्राणी है और प्राय: वह डिफाल्ट (दोष) ऑप्शन (विकल्प) से काम चला लेता है, फिर चाहे विकल्प बेहतर क्यों न हो। उदाहरण के लिए स्वास्थ्य बीमा और पेंशन योजनाओं में शामिल होने का विकल्प हो तो वह न शामिल होने के डिफाल्ट विकल्प को ही चुनेगा। एक माह के फ्री (निशुल्क) ट्रायल (परीक्षण) जैसी पेशकश ऐसे ही व्यवहार को भुनाने के लिए है। अमेजन (वीरांगना) प्राइम (प्रधान) और नेटफ्लिक्स जैसी मनोरंजन प्रदान करने वाली कंपनियां (संघ) प्राय: ऐसे फ्री (निशुल्क) ऑफर (प्रस्ताव) देती हैं, जिनका नवीनीकरण या अवधि विस्तार ट्रायल (परिक्षण) अवधि खत्म होने के बाद अपने आप हो जाता है। कंपनियां जानती हैं कि ज्यादातर लोग उसे कैंसल (रद्द करना) करने की जहमत नहीं उठाएंगे। अध्ययन बताते हैं कि ऐसे ऑफर (प्रस्ताव) का नतीजा सबस्क्रिप्शन (चन्दा) की 80 फीसदी तक ऊंची दरों में होता है। इसके अलावा क्रेडिट कार्ड कंपनियां (संघ) , बीमा कराने वाले, बैंक (अधिकोष) , जोखिमभरें उत्पादों के निर्माता, इंटरनेट सेवाएं देने वाले और सॉफ्टवेयर कंपनियां प्राय: बहुत जटिल और असानी से समझ में न आने वाली शर्ते बनाती हैं। यह सिर्फ देनदारी से बचने के लिए ही नहीं बल्कि इसके पीछे डिफाल्ट (कमी) ऑप्शन (विकल्प) चुनना भी होता है।
  • अपनी ख्यात किताब नज में थैलर और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के कैस सस्टीन दलील देते हैं कि संज्ञानात्मक यानी इन्द्रियों से मिली सूचनाओं के आधार पर किए पक्षपात को डिफाल्ट के उचित नियमों के जरिये दूर किया जा सकता है। ग्राहक के हितों की रक्षा के लिए निजी कंपनियों के डिफाल्ट नियमों का नियमन किया जा सकता है। सरकारी अधिकारी ऐसे डिफाल्ट का चुनाव कर सकते हैं, जिससे व्यक्तिगत निर्णय प्रक्रिया की दिशा वह हो जाए, जो उन्हें ग्राहक के हित में उचित लगती है।
  • भारतीय संदर्भ में बीमा अनुबंध (फसल व थर्ड (तीसरा) पार्टी (दल) बीमा सहित) , प्राइवेट (निजी) लोन (ऋण) के बेहर डिफाल्ट (कमी) नियम बनाने की काफी गुंजाइश है। शोध बताते हैं कि यदि लोगों को रिटायरमेंट (सेवानिवृत्त) बाद की योजनाओं जैसे पेंशन (निवृत्ति वेतन) फंड (मूलधन) आदि के लिए आवेदन करना हो तो बहुत कम लोग ऐसा करते हैं। लेकिन, यदि शामिल न करने के लिए आवेदन करने वालो को छोड़कर हर किसी का नामांकन करने का नियम हो, तो ज्यादातर लोग नामांकन कराएंगे और उसके लिए आवश्यक भगुतान भी करेंगे। इसका मतलब है कि सरकार को निजी क्षेत्र से कहना चाहिए वे ऐसी योजनाओं में कर्मचारियों को अपने आप नामांकित करने का नियम रखें। उनका शोध यह भी बताता है कि लोगों का रूझान आम चलन अपनाने का रहता है। जैसे यह पाया गया है कि अपने इलाके के औसत से ज्यादा बिजली-पानी खर्च करने वाले लोगों को उनकी ज्यादा खपत के बारे में बताया जाए तो ऐसे लोगों को व्यवहार सुधारने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। इस तरह की नीतियों के तहत सरकार लोगों को कथित सही व्यवहार की ओर प्रेरित कर पाई है।
  • ऊपर बताए संरक्षणवादी लिबर्टेरियन (मुक्तिवादी) पैटर्नलिस्ट (स्वरूप सूची) तरीकों का ब्रिटेन व अमेरिका सहित सभी नीति निर्माताओं ने बहुत स्वागत किया है। कई देशों में तो नज यूनिट (ईकाइ) स्थापित की गई हैं। यानी ऐसी एजेंसियां (शाखा) जिनका उद्देश्य व्यवहार अर्थशास्त्र से मिली अंतर्दृष्टि का इस्तेमाल कर लोक प्रशासन में सुधार लाना है।
  • इसी के साथ नीति के प्रति थैलर के एप्रोच (पहुंच) ने चिंताएं खड़ी की हैं। अकादमिक (शैक्षिक) हलकों में लिबर्टेरियन पैटर्नलिस्ट तरीके की आलोचना की गई है कि यह आमलोगों को अपने हिसाब से ढालने का नया रूप है। यूरोप में कुछ अग्रणी मनोवैज्ञानिकों ने लोगों की मानसिक खमियों की जगह राज्य की मानसिक खमियों को लाने में सवाल उठाए हैं। नीतिगत दृष्टि से चुनौती यह सुनिश्चित करने की है कि सरकार आमजन व दबे-कुचले लोगों के हितों को बढ़ाने वाली नीति बनाएं। ऐसे में लाख टके का सवाल है: नजर (किसी दिशा में धकेलने वाला यानी सरकार) को सही दिशा में नज (धकेलना) कौन करेगा?

राम सिंह, प्रोफेसर (प्राध्यापक) , दिल्ली स्कूल (विद्यालय) ऑफ (के) इकोनॉमिक्स (अर्थशास्त्री)

नोबेल पुरस्कार:- नोबेल पुरस्कार की घोषणा के साथ हर साल जिज्ञासु भारतीय के दिमाग में सवाल कौंधता है कि भारतीयों को विज्ञान के क्षेत्र में यह पुरस्कार क्यों नहीं मिलता? वैज्ञानिकों तथा इंजीनियरों (अभियंतो) की संख्या के लिहाज से भारत का दुनिया में तीसरा स्थान है। फिर भी हम अमेरिका तथा यूरोप के देशों से वैज्ञानिक साहित्य, शोध और आविष्कार में इतने पीछे क्यों है? आजादी के बाद जितने भी भारतीय या भारतीय मूल के लोगों को विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार मिले, उनका कार्य क्षेत्र विदेशी धरती थी। इससे देश में विज्ञान अध्ययन तथा शोध का क्या माहौल है यह जाहिर होता है। हमारे यहां विज्ञान के ग्रेजुएट (स्नातक) -पोस्ट ग्रेजुएट (स्नातकोत्तर) मेधावी छात्र शोध व अनुसंधान की ओर आकर्षित नहीं होते। वे या तो आईएएस या आईपीएस अधिकारी बनना चाहते हैं या फिर मार्केटिंग (विपणन) मैनेजर (प्रबंधक) । वजह है वैज्ञानिकाें तथा शोधकर्ताओं के पेशे की सामाजिक प्रतिष्ठा व उसमें आर्थिक सुरक्षा न होना। अमेरिका तथा यूरोप में शोध की बहुत क्रद है। भारत में प्रति दस हजार की आबादी पर चार लोग वैज्ञानिक शोध में लगे हुए है, वहीं अमेरिका तथा ब्रिटेन में 79 लोग शोधरत है। हमारे यहां उच्च शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों में महज एक फीसदी छात्र ही शोध करते हैं। अखिल भारतीय उच्चतर शिक्षा सर्वेक्षण के अनुसार देशभर में हर वर्ष 7,048 शोधार्थी ही विज्ञान विषयों में पीएचडी करते हैं। इनमें भी अधिकतर शोधर्थियों की पीएचडी थीसिस (शोध) से उस विषय मेें कोई नया इनोवेटिव (अभिनव) विचार नहीं आता। अधिकतर शोध सतही होते हैं।

भारत में आज भी स्कूलों (विद्यालय) से लेकर विश्वविद्यालय तक की प्रयोगशालाओं का स्वरूप वहीं है, जो 1950 - 60 में आधुनिक माना जाता था। अब वक्त की मांग है कि प्रयोगशालाओं को नया स्वरूप दिया जाए तथा शोध संस्थानों में पनप रही साइंस (विज्ञान) ब्यूरोक्रेसी (नौकरशाही) पर लगाम लगाने के लिए कठोर कदम उठाए जाएं, ताकि देश में शोध परक संस्कृति विकसित की जा सके। भारत में विज्ञान की स्थिति को सुधारने के लिए मेधावी छात्रों को शोध कार्य के लिए आकर्षित करने की भी जरूरत है, साथ ही विज्ञान के शोधार्थियों को रोजगार की गांरटी दी जाए।

उपसंहार:- नोबेल पुरस्कार दिये जाने व न दिये जाने पर विशेषज्ञों ने कई कारण बताये गये है। आगे यह पुरस्कार उचित रूप से किसे दिया जाता है यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

Examrace Team at Aug 21, 2021