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फ़ेबियन समाजवाद

समाजवाद की चर्चा के दौरान फ़ेबियन समाजवाद की चर्चा करना विशेष तौर पर महत्वपूर्ण है क्योंकि भारतीय संविधान पर जिस समाजवाद की सबसे अधिक प्रभाव है, वह इंग्लैंड का फ़ेबियन समाजवाद ही है। गौरतलब है कि कार्ल मार्क्स ने अपने जीवन के आखिरी तीस साल लंदन में ही गुजारे थे पर इंग्लैंड के समाज पर तब भी मार्क्सवाद का विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था। जिस समय जर्मनी में एडवर्ड बर्नस्टीन ‘विकासात्मक समाजवाद’ की रूपरेखा बना रहा था, लगभग उसी समय इंग्लैंड में उससे मिलता-जुलता समाजवाद उभर रहा था जिसे फ़ेबियन समाजवाद के नाम से जाना जाता है।

फ़ेबियन समाजवाद की वैचारिक शुरुआत 1884 ई. में ‘फ़ेबियन (अवसर की प्रतीक्षा करनेवाला) सोसायटी (समाज) ’ के गठन के साथ हुई थी और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में इसका महत्व काफी बढ़ गया था। जॉर्ज बर्नोर्ड शॉ, सिडनी वैब, ग्राहम वैलेस, ऐनी बेसेंट, रैम्जे मैकडॉनल्ड आदि इसके सदस्यों में शामिल थे। इस विचारधारा पर मार्क्सवाद की तुलना में जे. एस. मिल जैसे विचारकों का ज्यादा प्रभाव था। ब्रिटेन की लेबर (श्रम) पार्टी (दल) का जन्म इसी विचारधारा के आधार पर हुआ। ध्यातव्य हैं कि 1900 ई. में लेबर पार्टी के गठन के समय इसके संविधान का प्रमुख अंश ‘सिडनी वैब’ ने ही लिखा था।

फ़ेबियन सोसायटी का नाम एक प्रसिद्ध रोमन सेनापति क्विन्टस फ़ेबियस मैक्सिमस के नाम पर पड़ा है जिसने हेनीबॉल के साथ हुए प्रसिद्ध युद्ध को एक विशेष रणनीति से जीता था। रणनीति यह थी कि जब तक सही मौका न मिले, तब तक इंतजार करना चाहिये और जैसे ही सही मौका मिले, तभी पूरी शक्ति से प्रहार करना चाहिये। इसका तात्पर्य यह था कि अभी पूंजीवाद से सीधे तौर पर संघर्ष करना निरर्थक है क्योंकि अभी हमारी शक्ति उतनी नहीं हैं। इसलिये फ़ेबियन सोसायटी के सदस्यों ने धीमे प्रयासों, विशेषत: विधि-निर्माण के लिए आंदोलन चलाने तथा समाज की चेतना बदलने के माध्यम से समाजवाद की स्थापना का प्रयास किया। उन्होंने ज़मींदारों की अंधाधुंध आय के खिलाफ आंदोलन चलाया, 1906 में न्यूनतम मजदूरी की घोषणा करवाने का सफल आंदोलन चलाया तथा 1911 में सभी नागरिकों को नि: शुल्क चिकित्सा के अधिकार के लिये बड़ा आंदोलन चलाया। इन्होंने एडम स्मिथ के पूंजीवादी अर्थशास्त्र के विरोध में सहकारी अर्थशास्त्र की धारणा प्रस्तुत की तथा अपने समूह के कुछ धन से ‘लंदन विद्यालय ऑफ (का) इकॉनोमिक्स (अर्थशास्त्र) ’ की स्थापना की। इनका बल इस बात पर था कि शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में प्रयास करते हुए समाज की चेतना में ऐसे परिवर्तन लाये जाने चाहियें कि पूरा समाज, विशेषत: मध्यवर्ग शोषण के तंत्र को समझ सके तथा समाजवाद की जरूरत महसूस कर सकें। इन्होंने समाज को यह समझाने की कोशिश की कि समाजवादी होना उतना ही आसान है जितना कि उदारवादी या रूढ़िवादी होना, इन्हें विश्वास था कि चेतना का यह परिवर्तन हो जाने के बाद पूंजीवाद से सीधे-सीधे लड़ने का सही समय आ जाएगा।

फ़ेबियनवादियों ने पूंजीपतियों की जगह ज़मींदारों को अपने प्रहार का लक्ष्य बनाया क्योंकि इन ज़मींदारों ने बड़ी-बड़ी जागीरें बना रखी थीं जबकि समाज के बड़े वर्ग के पास कोई संपत्ति नहीं थी। इससे पूर्व जे. एस. मिल तथा टी. एच. ग्रीन आदि सकारात्मक उदारवादी विचारकों ने सामाजिक अन्याय की जड़ें-भूमि के स्वामित्व में देखी थीं, पूंजीवाद में नहीं। फ़ेबियनवाद ने इसी से प्रेरणा ग्रहण की। गौर करने की बात है कि फ़ेबियनवादी पूंजी या लाभ को ऐसी वस्तु नहीं मानते जिसे पूंजीपति ने मजदूर की मजदूरी से चुरा लिया हो। इस बिन्दु पर वे मार्क्स से असहमत हैं। उनका मानना है कि पूंजीपति अपने उद्यम और साधनों के बल पर समाज को लाभ पहुँचाता है और उसे उसका पारिश्रमिक ‘लाभ’ के रूप में मिलता है जो कि उसकी ‘अर्जित आय’ है। फ़ेबियन का समाजवादियों के प्रहार का वास्तविक लक्ष्य भूमि से प्राप्त होने वाली ‘अनर्जित आय’ अर्थातवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू बिना मेहनत की आय है। उनकी राय है कि यह आय ज़मींदार से वापस लेकर पूरे समाज को हस्तांतरित कर देनी चाहिए क्योंकि भूमि का मूल्य इसलिए है कि समाज को उसकी जरूरत है।

फ़ेबियन समाजवाद का असली योगदान सिद्धांत के जयादा व्यवहार के क्षेत्र में है। यह एक मध्यवर्गीय तथा बुद्धिजीवियों का आंदोलन था, मजदूरों या किसानों का नहीं। अपने मध्यवर्गीय चरित्र के कारण यह इंग्लैंड के मध्यवर्ग को यह समझाने में सफल रहा कि समाजवाद कोई अजीबोगरीब विचार नहीं है। इसके अलावा, इंग्लैंड के संसदीय लोकतंत्र को आम जनता के नजदीक पहुँचाने के कारण भी इसका महत्व है।

फ़ेबियन समाजवाद को समझना इसलिये भी जरूरी है कि जवाहरलाल नेहरू पर समाजवाद के इसी प्रारूप का प्रमुख प्रभाव था। उनकी रणनीतियों में भी वैज्ञानिक मनोवृत्ति का विकास, लोक कल्याणकारी राज्य जैसी योजनाओं का खासा महत्व था।