महान सुधारक (Great Reformers – Part 27)
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रामकृष्ण परमहंस:-
रामकृष्ण परमहंस का जन्म पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में कामारपुकर नामक ग्राम के नेक दिल एवं धर्मनिष्ठ परिवार में 18 फरवरी, 1836 ई. को हुआ। बाल्यावस्था में वह गदाधर के नाम से प्रसिद्ध थे। उनकी संगीतात्मक प्रतिभा, चरित्र की पवित्रता, गहरी धार्मिक भावनाएँ, सांसारिक बातों की ओर से उदासीनता, आकस्मिक रहस्यमयी समाधि और सबसे ऊपर उनकी अपने माता-पिता के प्रति अगाध भक्ति ने उन्हें पूरे गाँव का आकर्षक व्यक्ति बना दिया था। गदाधर की शिक्षा तो साधारण ही हुई, किन्तु पिता की सादगी और धर्मनिष्ठा का उन पर पूरा प्रभाव पड़ा।
रामकृष्ण परमहंस 17 वर्ष की अवस्था में कलकता चले आये और रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर मंदिर (कोलकाता) में पूजा के लिये नियुक्त हुए। यहीं उन्होंने मां महाकाली के चरणों में अपने को उत्सर्ग कर दिया। रामकृष्ण परमहंस भक्ति भाव में बहुत ज्यादा तन्मय रहते। उन्होंने असाधारण दृढ़ता और उत्साह से बारह वर्षों तक लगभग सभी प्रमुख धर्मों एवं संप्रदायों का अनुशीलन किया। परमहंस अद्धैत मत के समर्थक थे। उनके व्यक्तित्व से ब्रह्य समाज के अध्यक्ष केशवचन्द्र सेन जैसे विदव्ान भी प्रभावित थे। उनके प्रभाव एवं आध्यात्मिक शक्ति ने नरेन्द्र जैसे नास्तिक, तर्कशील युवक को परम आस्तिक भारत के गौरव का प्रसारक स्वामी विवेकानंद बना दिया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी का अधिकांश जीवन प्राय: समाधि की स्थिति में ही व्यतीत हुआ। जीवन के अंतिम तीस वर्षों में उन्होंने काशी, वृन्दावन, प्रवाण आदि तीर्थों की यात्रा की। उनकी उपदेश-शैली बड़ी सरल और भावग्राही थी। वे एक छोटे दृष्टांत में पूरी बात कह जाते थे। स्नेह, दया और सेवा के दव्ारा ही उन्होंने लोक सुधार की सदा शिक्षा दी।
समय जैसे-जैसे व्यतीत होता गया, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रयस्थल हो गया। 16 अगस्त, सन् 1886 को उनका निधन हो गया। उनके प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानंद ने उनके नाम पर ही ‘रामकृष्ण मठ’ की स्थापना की।
महादेव गोविन्द रानाडे:-
महादेव गोविन्द रानाडे भारत के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी, समाज सुधारक, विद्धान और न्यायविद थे। गोविंद रानाडे का जन्म 1842 ई. में पुणे में हुआ था। पुणे में आंरभिक शिक्षा पाने के बाद रानाडे ने ग्यारह वर्ष की उम्र में अंग्रेजी शिक्षा आरंभ की। बाद में वे पुणे के एलफिंटन महाविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक नियुक्त हुए थे। एल. एल. बी. पास करने के बाद वे उप-न्यायाधीश नियुक्त किए गए। वे निर्भीकतापूर्वक निर्णय देने के लिए प्रसिद्ध थे। उन्होंने देश में अपने ढंग के महाविद्यालय स्थापित करने के लिए विशेष प्रयास किए। वे आधुनिक शिक्षा के हिमायती तो थे ही, लेकिन भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप।
रानाडे ने समाज के कार्यो में आगे बढ़कर हिस्सा लिया। वे प्रार्थना समाज और ब्रह्य समाज आदि के सुधार कार्यो से अत्यधिक प्रभावित थे। सरकारी नौकरी में रहते हुए भी उन्होंने जनता से संपर्क बनाये रखा। दादाभाई नौरोजी के पथ प्रदर्शन में वे शिक्षित लोगों को देशहित के कार्यो की ओर प्रेरित करते रहे। प्रार्थना समाज के मंच से रानाडे ने महाराष्ट्र में अंधविश्वास और हानिकार रूढ़ियों का विरोध किया। धर्म में उनका अंधविश्वास नहीं था। वे मानते थे कि देश-काल के अनुसार धार्मिक आचरण बदलते रहते हैं। उन्होंने स्त्री शिक्षा का प्रचार किया। वे बाल विवाह के कट्टर विरोधी और विधवा के समर्थक थे। इसके लिए उन्होंने एक समिति ‘विधवा विवाह मंडल’ की स्थापना भी की थी। महादेव गोविन्द रानाडे ‘दक्कन एजुकेशनल (शैक्षिक) सोसायटी (समाज) ’ के संस्थापकों में से एक थे।
महादेव गोविन्द रानाडे ने ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ की स्थापना का सम्मान किया था और 1885 ई. के उसके प्रथम बंबई अधिवेशन में भाग भी लिया। राजनीतिक सम्मेलनों के साथ-साथ सामाजिक सम्मेलेनों के आयोजन का श्रेय उन्हीं को है। वे मानते थे कि मनुष्य की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक प्रगति एक दूसरे पर आश्रित है। अत: ऐसा व्यापक सुधारवादी आंदोलन होना चाहिए, जो मनुष्य की चतुर्मुखी उन्नति में सहायक हो। वे सामाजिक सुधार के लिए केवल पुरानी रूढ़ियों को तोड़ना पर्याप्त नहीं मानते थे। उनका कहना था कि रचनात्मक कार्य से ही यह संभव हो सकता है। वे स्वदेशी के समर्थक थे और देश में निर्मित वस्तुओं के उपयोग पर बल देते थे। देश की एकता उनके लिए सर्वोपरी थी। उन्होंने कहा था कि - “प्रत्येक भारतवासी को यह समझना चाहिए कि पहले मैं भारतीय हूँ और बाद में में हिन्द, ईसाई, पारसी, मुसलमान आदि कुछ और।” वे एक प्रकांड विदव्ान थे। उन्होंने अनेक ग्रंथो की रचना की थी, जिनमें से प्रमुख हैं- विधवा पुनर्विवाह, मालगुजारी कानून, राजा राममोहन राय की जीवनी मराठों का उत्कर्ष धार्मिक एवं सामाजिक सुधार। भरपूर सेवा करने वाले और समाज को नई राहे दिखाने वाले गोविंद रानाडे का निधन 16 जनवरी, 1901 ई. को हुआ।
डॉ. धोंडो केशव कर्वे:-
डॉ. धोंडो केशव कर्वे (18 अप्रैल, 1858 - 9 नवंबर 1962) की गिनती आधुनिक भारत के उच्च कोटि के समाज सुधारकों एवं उद्धारकों में होती है। उनका जन्म महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले के ‘मुरूड़’ नामक गांव के गरीब ब्राह्यण परिवार में हुआ। मात्र 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह कर दिया गया था। लेकिन जल्द ही उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई।
महर्षि कर्वे में छोटी आयु से ही समाज सुधार के प्रति रुचि दिखायी देने लगी थी। उनके गांव के ही कुछ विदव्ान और समाज के प्रति जागरूक कुछ लोगों जैसे राव साहब मांडलिक और सोमन गुरुजी ने उनके मन में समाज सेवा के प्रति भावना और उच्च चारित्रिक गुणों को उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उनके वही गुण दिन-प्रतिदिन निखरते चले गये। 1891 में वे राष्ट्रवादी नेताओं दव्ारा संचालित पूना के ‘फर्ग्युसन महाविद्यालय’ में गणित के प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। अपनी मेहनत और प्रतिभा में वह ‘दक्कन शिक्षा समिति’ के आजीवन सदस्य बने। महाविद्यालय में अध्यापन करते समय उन्होंने समाज सुधार के क्षेत्र में पदार्पण किया। वह महात्मा गांधी दव्ारा चलाई गयी नई शिक्षा नीति और महाराष्ट्र समाज सुधार समिति के कार्यो में भी व्यस्त रहे थे।
1893 में उन्होंने अपने मित्र की विधवा बहन ‘गोपूबाई’ से विवाह किया। विवाह के बाद गोपूबाई का नया नाम ‘आनंदीबाई’ पड़ा। उनके इस कार्य के परिणामस्वरूप पूरे महाराष्ट्र में विशेषकर उनकी जाति बिरादरी में बड़ा रोष और विरोध उत्पन्न हो गया। इसी विरोध ने महर्षि कर्वे को समाज दव्ारा उपेक्षित विधवाओं के उद्धार और पुनर्वास के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कुछ स्थानों पर अपने तत्वाधान में विधवाओं के पुनर्विवाह भी संपन्न कराये। धीरे-धीरे महर्षि कर्वे के इस विधवा उद्धार के कार्यों को प्रशंसा, मान्यता और धन-जन सब मिलने लगा। 1896 में उन्होंने पूना में एक विधवा आश्रम और अनाथ बालिका आश्रम की स्थापना की। 1907 में महर्षि कर्वे ने महिलाओं के लिए ‘महिला विद्यालय’ की स्थापना की। जब उन्होंने विधवा और अनाथ महिलाओं के इस विद्यालय को सफल होते देखा तो उन्होंने इस काम को आगे बढ़ाते हुए महिला विश्वविद्यालय की योजना पर भी विचार करना आरंभ कर दिया। अंतत: महर्षि कर्वे के अथक प्रयासों से 1916 में ‘महिला विश्वद्यािलय’ की नींव रखी गयी।
महर्षि कर्वे का कार्य केवल महिला विश्वविद्यालय या महिलाओं के पुनरोत्थान तक ही सीमित नहीं रहा, वरन उन्होंने ‘इंडियन (भारतीय) सोशल (सामाजिक) कान्फ्रेंस’ (सम्मेलन) के अध्यक्ष के रूप में समाज में व्याप्त बुराइयों को समाप्त करने से भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। एक महान सुधारक होने के साथ-साथ वह एक अच्छे शिक्षा शास्त्री भी थे। गाँवों में शिक्षा को सहज सुलभ बनाने और उसके प्रसार के लिए उन्होंने चंदा एकत्र कर लगभग 50 से भी अधिक प्राइमरी (मुख्य) विद्यालयों की स्थापना की थी। 1958 में जब महर्षि कर्वे ने अपने जीवन के सौ वर्ष पूरे किए, तब देश भर में उनकी जन्म शताब्दी मनायी गयी। इस अवसर को अविस्मरणीय बनाते हुए भारत सरकार दव्ारा इसी वर्ष उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। 9 नवंबर, 1962 को उनका निधन हो गया।