महान सुधारक (Great Reformers – Part 41)
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महात्मा गांधी के जाति संबंधी विचार:-
महात्मा गांधी का जन्म वैष्णव परिवार में हुआ था। पारिवारिक संस्कारों का उन पर पर्याप्त प्रभाव था जिसकी गहरी छाप उनके सामाजिक दर्शन पर स्पष्टत: दिखती है। गांधी जी वर्ण व्यवस्था के समर्थक हैं, हालांकि जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता का उन्होंने हमेशा कठोर विरोध किया।
वर्ण व्यवस्था संबंधी विचार
महात्मा गांधी जी ने अपनी कई पुस्तकों तथा लेखों में वर्ण व्यवस्था से संबंधित विचार प्रस्तुत किए हैं जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है उनकी पुस्तक- ‘हिन्दू धर्म’ । उनके प्रमुख विचार इस प्रकार हैं-
1. वे बताते हैं कि वर्ण व्यवस्था मनुष्य दव्ारा निर्मित नहीं बल्कि प्राकृतिक या ईश्वरीय व्यवस्था है। वे लिखते हैं- “यह मानवीय आविष्कार नहीं, अपितु प्रकृति का अपरिवर्तनीय नियम है जो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियम के समान सर्वत्र विद्यमान तथा सदैव क्रियाशील रहता है।” उन्होंने यह भी कहा है कि वर्ण व्यवस्था सिर्फ भारत के लिए आदर्श नहीं हैं बल्कि सार्वभौमिक व्यवस्था है जो विश्व के सभी मनुष्यों की समस्याओं का समाधान कर सकती है।
2. गांधी जी के अनुसार वर्ण व्यवस्था हिन्दू धर्म का अनिवार्य अंग है, वैकल्पिक नहीं। यदि कोई व्यक्ति वर्ण व्यवस्था को नहीं मानता है तो उसे हिन्दू मानना उनके लिए संभव नहीं है। वे लिखते हैं- “कुरान को न मानकर कोई मनुष्य मुसलमान और बाइबिल को न मानकर कोई मनुष्य ईसाई कैसे रह सकता है? मैं नहीं जानता कि जो व्यक्ति जाति भेद अर्थात् वर्ण को नहीं मानता, वह अपने को हिन्दू कैसे कह सकता है?”
3. गांधी जी के अनुसार वर्ण व्यवस्था श्रम विभाजन की प्रणाली है जो समाज में श्रम की जरूरत और श्रम की उपलब्धता में समन्वय करती है। उनके अनुसार वर्ण व्यवस्था का मतलब सिर्फ इतना है कि ″ हम जीविकोपार्जन के लिए उन पैतृक व्यवसायाओं का अनुसरण करें जो हमारे -पूर्वज करते रहे हैं।
4. गांधी जी ने वर्ण व्यवस्था को वंशानुगत माना है अर्थात व जानते हैं कि वर्ण का निर्धारण जन्म से ही होता है। इसके लिए उन्होंने तर्क यह दिया है कि “जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने पूर्वजों से विशेष आकृति ग्रहण करता है उसी प्रकार का उनसे विशेष गुण भी प्राप्त करता है।” तात्पर्य यह कि माता पिता में जो कौशल होता है, वह संतान में शारीरिक गुणों के रूप में स्थानांतरित होता है।
5. गांधी जी स्पष्टत: मानते हैं कि हर व्यक्ति को अपने पैतृक व्यवसाय का ही चयन करना चाहिए। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि निम्न वर्ण के व्यक्तियों को ज्ञान प्राप्ति से वंचित करते हैं। वे चाहते हैं कि ज्ञान की प्राप्ति हर व्यक्ति करे किन्तु आजीविका का निर्धारण अपने वर्ण के अनुसार करे। उन्होंने लिखा है “शूद्र को ज्ञान प्राप्त करने का उतना ही अधिकार है जितना ब्राह्यण को किन्तु यदि वह अध्यापन दव्ारा जीविकोपार्जन का प्रयास करता है तो वह अपनी स्थिति से पतित होता है।” गांधी जी इस बात को लेकर इतने आग्रहशील हैं कि यदि किसी व्यक्ति को अपने वर्ण आधारित व्यवसाय में रुचि न हो तो भी उसे परिवर्तन का अवसर नहीं देते। वे साफ कहते है कि “प्रत्येक व्यक्ति की केवल अपने पैतृक व्यवसाय में रुचि रखनी चाहिए क्योंकि पैतृक व्यवसाय का चयन अनुचित नही बल्कि एक महान आदर्श है।”
वर्ण व्यवस्था के लाभ
गांधी जी ने कई तर्को के दव्ारा वर्ण व्यवस्था में अपने विश्वास को पुष्ट किया। उनके अनुसार वर्ण व्यवस्था का पहला काम यह है कि इससे आजीविका की प्राप्ति होती है। और प्रत्येक व्यक्ति निरर्थक प्रतिस्पर्धा से बच जाता है। इससे उसे आध्यात्मिक विकास का मौका मिलता है। दूसरा लाभ यह है कि इसके कारण प्रशिक्षण की औपचारिक आवश्यकता नहीं पड़ती है। तीसरा, इससे अधिक सामाजिक विकास भी ज्यादा होता है क्योंकि व्यक्ति लंबे अभ्यास के कारण अपना कार्य ज्यादा कुशलता से करता है। चौथा लाभ यह है कि इससे व्यक्ति की सांसारिक इच्छाएं नियंत्रित रहती हैं और उसे आध्यात्मिक विकास का ज्यादा अवसर मिलता है।
जातिगत भेदभाव का विरोध
यहांँ ध्यान रखना जरूरी है कि जब गांधी वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हैं तो सामाजिक विषमताओं का समर्थन नहीं करते। उनका स्पष्ट मत हे कि सभी वर्ण बराबर है क्योंकि सभी के कार्य समाज के स्वस्थ संचालन के लिए जरूरी है। ‘हिन्दू स्वराज’ में उन्होंने स्पष्ट राय जाहिर की है कि बौद्धिक और शारीरिक श्रम में मूल्य का कोई भेद नहीं होता है। व्यक्ति का वेतन या उसकी उपलब्धियां मांग-पूर्ति के अंध नियम से नहीं बल्कि उसकी जरूरतों से निर्धारित होनी चाहिए। उनका प्रसिद्ध कथन है कि “नाई और वकील को बराबर वेतन मिलना चाहिए क्योंकि दोनों की मानवीय जरूरतें समान है।”
स्पष्ट है कि गांधी जी वर्ण व्यवस्था के जन्ममूलक तथा वंशानुगत स्वरूप के समर्थक हैं किन्तु वे इसे ऊँच-नीच या स्तरीकरण की व्यवस्था नहीं मानते। वे जाति भेद को स्तरीकरण की व्यवस्था मानते हैं और अस्पृश्यता को उसका सबसे घृणित रूप। वे लिखते हैं कि “मै अस्पृश्यता के अपवित्र धब्बे को बड़ी गहराई से अनुभव करता हूँ और मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि यदि इसे हिन्दू धर्म से पूर्णतया न हटाया गया तो धर्म का विनाश निश्चित है।”
गांधी जी अस्पृश्यता का अंत करना चाहते हैं किन्तु उसके लिए किसी हिंसक क्रांति या तीव्र परिवर्तन की वकालत नहीं करते। अपने वेदांती दर्शन की मान्यताओं के अनुरूप उनका गहरा विश्वास हृदय परिवर्तन करना चाहते है। वे लिखते हैं- “मै बल प्रयोग अथवा अन्य किसी प्रकार की बाध्यता दव्ारा अस्पृश्यता को नहीं हटाना चाहता हूँ। अस्पृश्यता का निराकरण कानून अथवा दबाव दव्ारा संभव नहीं है। करोड़ों हिन्दुओं के हृदय परिवर्तन तथा पूर्ण विशुद्धिकरण दव्ारा ही अस्पृश्यता का निवारण हो सकता है।”
गांधी जी ने स्पष्टत: दावा किया है कि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म का अनिवार्य अंग नहीं है। वे कहते है कि महान ऋषि-मुनियों ने वेद उपनिषद जैसे महान ग्रंथों की रचना की, वे इस अमानवीय व्यवस्था का समर्थन कैसे कर सकते हैं? वे यहां तक कहते हैं कि यदि शास्त्र इसका समर्थन करें तो भी मैं इसे नहीं स्वीकारूंगा क्योंकि यह मानवीय अनुभव और तर्कवृद्धि के खिलाफ है। इसी विश्वास के तहत उन्होंने ‘हरजिन’ शब्द का प्रयोग किया, निम्न वर्णों के मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलन चलाया और सवर्णा के हृदय परिवर्तन के उद्देश्य से अंतर्जातीय सहभोज और अंतर्जातीय विवाह जैसे कार्यक्रमों को काफी बढ़ावा दिया।
आलोचना
1. हृदय परिवर्तन का मार्ग पर्याप्त नहीं माना जा सकता। जब गांधी जी जैसा राष्ट्रनायक हिन्दुओं का हृदय परिवर्तन नहीं कर सका तो किसी और से ऐसी उम्मीद करना व्यर्थ ही हैं।
2. वर्तमान में विज्ञान तकनीक के विकास के कारण अनेको प्रकार के नए-नए व्यवसाय विकसित हुए है जिनके लिए अपेक्षित योग्यता इतनी ऊँची है कि उन्हें वंशानुगत बनाया ही नहीं जा सकता। उदाहरण के लिए क्या एक चिकित्सक का बेटा अनिवार्यत: चिकित्सक ही बन सकता हैं?
3. गांधी जी ने वर्णव्यवस्था को गुरुत्वाकर्षण के नियम की तरह प्राकृतिक और सार्वभौमिक माना जबकि सच यह है कि कोई भी नैतिक नियम न तो सार्वभौम होता है, न ही प्राकृतिक। सभी नैतिक नियम मनुष्यों दव्ारा ही बनाए जाते हैं।
4. गांधी जी का यह तर्क कि माता-पिता के गुणों का संक्रमण संतान में होता है, गलत है। आज तक कोई मनोवैज्ञानिक इसे सिद्ध नहीं कर सकता है। विस्मन जैसे मनोवैज्ञानिकों ने इस मान्यता का विरोध किया है और कहा है कि संतान में माता-पिता जैसे गुण समान माहौल के कारण पैदा होते हैं न की आनुवांशिक कारणों से।
गांधी जी मानकर चलते हैं कि आवश्यकताएँ पूरी होते ही व्यक्ति आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ता है, किन्तु यह मान्यता सभी व्यक्तियों पर लागू नहीं होती।