Disaster Management: From Management to Mitigation of Disaster

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आपदा के प्रबंध से शमन तक (From Management to Mitigation of Disaster)

पहले आपदाओं के पश्चात्‌ आपदा के प्रबंध किये जाते थे। दूसरे शब्दों में, परंपरागत आपदा प्रबंधन प्रतिक्रियात्मक रुख अपनाये हुए था। परन्तु वर्तमान में इसमें अग्रमुखी शमन आधारित विचारों को लिया गया है। वर्तमान में आपदाओं के लिये अग्रिम चेतावनी की विभिन्न प्रणालियाँ मौजूद हैंं, फिर भी समुदाय आपदाओं से सुरक्षित रहे यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता। यहीं आकर आपदाओं के शमन की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। ‘शमन’ (Mitigation) का अर्थ प्राकृतिक आपदाओं के नकारात्मक प्रभाव को कम करना है। इसका अर्थ प्राकृतिक आपदाओं से मानव के जान-माल की दीर्घकालिक सुरक्षा करना है। जहाँ आपात प्रबंध घटना विशेष के होने पर प्रत्युत्तर और बहाली संबंधी अल्पकालिक व्यवस्था है, वहीं शमन के कार्यकलाप दीर्घकालिक व्यवस्था के अंग हैं।

मार्गदर्शक सिद्धांत (Guidelines)

कुछ मार्गदशक सिद्धांतों को सही ढंग से लागू करने पर शमन का कारगर कार्यक्रम सामने आ सकता है-

  • आपदा-पूर्व शमन आपदा के दुष्प्रभावों से तेजी से उबरने में मददगार साबित होता है।
  • शमन के उपायों से समुदायों के प्राकृतिक और सांस्कृतिक परिसंपत्तियों की रक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए।
  • आपदा कम करने के उपायों में समुदायों को प्रभावित करने वाली विभिन्न विपत्तियों, समुदाय की इच्छाओं और प्राथमिकताओं का अध्ययन किया जाना चाहिये।
  • शमन के किसी भी उपाय में सरकार, वैज्ञानिकों, निजी -क्षेत्र, गैर-सरकारी संगठन और स्थानीय समुदाय के बीच कारगर भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिये।

आपदा जोखिम शमन के उपाय (Measures of Disaster Mitigation)

संरचनात्मक उपाय (Structural Measures)

  • मौजूदा संरचनाओं का पुन: सृदुढ़ीकरण।
  • उपयुक्त भवन निर्माण मानक लागू करना।
  • स्वयं सहायता समूह निर्माण।
  • विभिन्न विकास योजनाओं को आपदा प्रबंधन से जोड़ना।

गैर -संरचनात्मक उपाय (Non-Structural Measures)

इसकी 2 श्रेणियाँ है-

जोखिम से बचाव के उपाय (Risk Aversion Measures)

  • भूमि उपयोग नियमन/अध्यादेश।
  • वित्तीय प्रोत्साहन अथवा दंड।
  • जोखिम संबंधी सूचनाओं का खुलासा।
  • सार्वजनिक अवसरंचना नीति।
  • प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन नीति का निर्धारण।

जोखिम के बिखराव के उपाय (Risk Mitigation Measures)

  • संपत्ति के नुकसान और राजस्व (आय) में ह्यस का बीमा।
  • फसल का विविधीकरण अथवा अन्य फसलों की खेती।

बाढ़ और शमन के उपाय (Floods and Mitigation Measures)

बाढ़ शमन के संरचनात्मक उपाय (Structural Measures of Flood Mitigation)

  • वर्षा का पानी रोकने के लिये जलाशय का प्रबंध जो बाढ़ के गुजरने के बाद नियंत्रित ढंग से पानी छोड़ते रहें।
  • बांध और बाढ़ रोधक दीवारें बनाकर पानी को उसके दव्ारा किनारे तोड़कर बहने से रोकना।
  • धारा में प्रवाह की दिशाओं में सुधार और कटाव रोकने के उपाय।
  • वनीकरण
  • जल विकास में सुधार

बाढ़ शमन के गैर-संरचनात्मक उपाय (Non-Structural Measures of Flood Mitigation)

  • आपदा के लिये तैयारी तथा बाढ़ प्रबंध, जैसे फ्लड प्लेन जोनिंग (Flood Plain Zoning) और फ्लड प्रुफिंग (Flood Proofing) ।
  • दलदली-भूमि का संरक्षण।
  • बाढ़ के पूर्वानुमान और चेतावनी संबंधी सेवाएँ।
  • आपदा-राहत और जन-स्वास्थ्य संबंधी कदम।
  • बाढ़ सीमा।
  • आमतौर पर बाढ़ लाने वाली नदियों के ऊपरी जल-ग्रहण क्षेत्र में निर्माण कार्य पर प्रतिबंध लगाना।
  • नदी वाहिकाओं पर बसे लोगों को अन्यंत्र बसाना।
  • बाढ़ के मैदानों में जनसंख्या के जमाव पर नियंत्रण रखना।

केस अध्ययन (Case Study)

वन प्रबंध (Forest Management)

बाढ़ को आने से रोकने में वनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। स्थानीय जनता को शामिल करके पेड़ उगाने के अनेक प्रयास किये गये हैं। सामाजिक वानिकी, खेत वानिकी और संयुक्त वन प्रबंध इसकी मिसालों में शामिल हैं।

केस अध्ययन (Case Study)

कैलादेवी अभ्यारण्य, सवाई माधोपुर, राजस्थान (Kailadevi Sanctuary, Sawai Madhopur, Rajasthan)

राजस्थान के कैलादेवी अभ्यारण्य की संरक्षण और पुर्नजीवन में स्थानीय समुदाय की पहल भी शामिल है। वन विभाग ने वन सुरक्षा समितियों के गठन में गाँव वालों का साथ दिया। अपने संसाधनों की सुरक्षा में गाँव वालों की भागीदारी से स्पष्ट लाभ हुए। गैर कानूनी कटाई बंद हो गई। वन संसाधनों के स्थानीय उपयोग पर निगरानी रखी जाने लगी। ये समितियाँ अभ्यारण्य में खनन कार्य को रोकने में कामयाब रहीं। लोग न केवल अपने वनों को सुरक्षित रख रहे हैं बल्कि उनके संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग भी कर रहे हैं।

सूखा और शमन के उपाय (Drought and Mitigation Measures)

  • पर्यावरण और समाज पर सूखे का सोपानी प्रभाव पड़ता है। फसलें बर्बाद होने से अन्न की कमी हो जाती है, जिसे अकाल कहा जाता है। चारा कम होने की स्थिति को तृण अकाल कहा जाता है। जल आपूर्ति की कमी जल अकाल कहलाती है; तीनों परिस्थितियाँ मिल जाए तो त्रि-अकाल कहलाती हैं, जो सर्वाधिक विध्वसंक है। सूखा प्रभावित क्षेत्रों में वृहत पैमाने पर मवेशियों की मौत, मानव प्रवास तथा पशु पलायन एक सामानय परिवेश है। पानी की कमी के कारण लोग दूषित जल पीने को बाध्य होते हैं। परिणामस्वरूप पेयजल संबंधी बीमारियाँ जैसे आंत्रशोध, हैजा, हेपेटाईटिस आदि हो जाती हैं।
  • सामाजिक और प्राकृतिक पर्यावरण पर सूखे का प्रभाव तात्कालिक और दीर्घकालिक होता है। इसलिए सूखे से निपटने के लिये तैयार की जा रही योजनाओं को उन्हें ध्यान में रखकर बनाना चाहिये। सूखे की स्थिति में तात्कालिक सहायता में सुरक्षित पेयजल वितरण दवाइयाँ, पशुआंे के लिए चारे और जल की उपलब्धता तथा लोगों और पशुओं को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाना शामिल है।
  • सूखे से निपटने की दीर्घकालिक योजनाओं में भूमिगत जल के भंडारण का पता लगाना, जल आधिक्य क्षेत्रों से अल्पजल क्षेत्रों में पानी पहुँचाना, नदियों को जोड़ना और बांध व जलाशयों का निर्माण इत्यादि कदम उठाये जा सकते हैं। नदियाँ जोड़ने के लिये द्रोणियों की पहचान तथा भूमिगत जल भंडारण की संभावना का पता लगाने के लिए सुदूर संवेदन और उपग्रह से प्राप्त चित्रों का प्रयोग करना चाहिए।
  • सूखे से लड़ने के लिए सूखा प्रतिरोधी फसलों के बारे में प्रचार-प्रसार एक दीर्घकालीन उपाय है। वर्षा जल संचयन सूखे का प्रभाव कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता हैं।

केस अध्ययन (Case Study)

इज़राइल की ड्रिंप सिंचाई खेती (Israel՚s Drip Irrigation Farming)

छोटा -सा और शुष्क मौसम वाला देश इज़राइल ड्रिप सिंचाई प्रणाली का प्रयोग करता हैं, क्योंकि वहाँ पानी की कमी है। इस तकनीक से इज़राइली किसानों ने सिंचाई की क्षमता में 25 प्रतिशत की वृद्धि की हैंं। खेती के लिए जल का उपयोग बढ़ाए बिना इज़राइल का खाद्य उत्पादन दोगुना हो चुका है। आज इज़राइल दुनिया में फलों और सब्जियों के प्रमुख निर्यातकों में एक है।

भारत में नगरों और कस्बो के कुछ परंपरागत समुदाय अपने आंगन में घरों के बेकार पानी का ही उपयोग करके अपनी सब्जियाँ खुद उगाया करते थे। कोलकाता अपना बेकार जल आसपास के समुद्रतलों में छोड़ता है, जहाँ मछलियाँ पाली जाती हैं। सब्जियाँ उगाने के लिये भी इस जल का उपयोग किया जाता हैं।

केस अध्ययन (ज्ल संरक्षण) (Case Study) (Water Conservation)

पानी पंचायत, पुणे, महाराष्ट्र (Pani Panchayat, Pune, Maharashtra)

महाराष्ट्र के पुणे जिले का माहुर गाँव सूखाग्रस्त क्षेत्र में स्थित है। यहाँ पीने तथा सिंचाई हेतु जल का अभाव था। इस सूखाग्रस्त क्षेत्र में जल संरक्षण के लिए बिलासराव सलुंखे नामक व्यक्ति ने ‘पानी पंचायत’ नामक आंदोलन शुरू किया। एक मंदिर की बंजर और गैर-खेतिहर भूमि पर जनविभाजक निर्माण कार्य आरंभ किया गया। लघु स्तर पर विशाल जलविभाजन प्रबंध के जरिए जल संरक्षण और जल संचय के भरण से गाँव में धीरे-धीरे जल की अधिकता हो गई। गाँव की जमीन पर अधिक सिंचाई होने लगी, अधिक वन लगाए गए और 4 हेक्टेयर क्षेत्र को रिसाव की टंकी बना दिया गया। कुएँ खोदे गए और खेतों में बांध बनाए गए। इसलिए और ग्रामीणों ने भी पानी पंचायत में भाग लेना शुरू किया तथा यह क्षेत्र तेजी से हरा-भरा और उत्पादक बन गया।