Science and Technology: National Biotech Development Strategy

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जैव प्रौद्योगिकी (Bio Technology)

राष्ट्रीय जैव प्रोद्योगिकी विकास रणनीति (National Biotech Development Strategy)

  • जिस गति से भारत में प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में अनुसंधान और विकास के लिए कार्य किए जा रहे हैं तथा जिस प्रकार भारत ने इस दिशा में प्रगति की है, उसके आलोक में एक ऐसी विकासोन्मुखी रणनीति की आवश्यकता है जो न केवल समन्वित हो बल्कि शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता में भी योगदान दे सके। एक और बात जो महत्वपूर्ण है वह यह है कि विगत दशकों में जैव प्रोद्योगिकी की पहचान तीव्र विकास के लिए उत्तरदायी प्रोद्योगिकी के रूप में की गई है। यह सही है कि जैव प्रोद्योगिकी स्वास्थ्य तथा पोषण और सतत्‌ पर्यावरणीय विकास के लिए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी है। जीव विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्रों में तेजी से हो रहे विकास ने जैव प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहित किया है। जहां एक भारत में इस प्रौद्योगिकी के विकास का प्रश्न है, भारतीय जैव प्रोद्योगिकी को विश्व स्तर पर पहचान मिल गई है, इस कारण इस क्षेत्र में निवास की संभावनाएँ भी बढ़ गई हैं। इसी पृष्ठभूमि में भारत सरकार दव्ारा राष्ट्रीय जैव प्रोद्योगिकी विकास रणनीति का प्रस्ताव किया गया है। इस रणनीति के तहत यह माना गया है कि भारत जैसे विकासशील देश के जैव प्रोद्योगिकी कृषि, स्वास्थ्य, औद्योगिकी प्रसंस्करण तथा सतत्‌ पर्यावरण विकास की दृष्टि से क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती है। दूसरी ओर, भारत के लिए यह प्रौद्योगिकी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसके माध्यम से रोजगार सृजन, उद्यमशीलता के विकास की संभावनाओं में वृद्धि बौद्धिक संपदा का विस्तार तथा औद्योगिकी उत्पादन की दर में वृद्धि की जा सकती है।
  • रणनीति में यह कहा गया है कि भारत में 2010 तक जैव प्रोद्योगिकी व्यवसाय के 5 अरब डलर का हो जाने की आशा है। साथ ही, इस क्षेत्र में लगभग 10 लाख रोजगार के अवसरों का सृजन भी किया जा सकेगा। वस्तुत: जैव प्रोद्योगिकी में दवाओं के निर्माण का बाजार भी लगभग 2 अरब डालर का हो जाएगा।
  • रणनीति में यह भी उल्लेख है कि भारत की पहचान एक ऐसे देश के रूप में की गई है जहाँ जैव विविधता की प्रचुरता है। ऐसी स्थिति में देश में उपलब्ध जैव संसाधनों को आर्थिक परिसंपत्तियों में रूपांतरित करने के लिए जैव प्रोद्योगिकी का व्यापक स्तर पर प्रयोग किया जा सकता है।
  • तेजी से बढ़ती हुई मानव तथा पशुधन जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कृषि उत्पादन में विविधता तथा वृद्धि अनिवार्य है। साथ ही, प्रति व्यक्ति भूमि तथा जल संसाधनों में होने वाली कमी भी एक बड़ी चुनौती है।
  • रणनीति में कहा गया है कि जैव प्रौद्योगिकी देश में लगभग 110 मिलियन कृषक परिवारों को जीविका सुरक्षा प्रदान करने में पूरी तरह सक्षम है। औद्योगिक क्षेत्र में जैव प्रौद्योगिकी की भूमिका के विस्तार के लिए एक ओर, जहाँ निवेश तथा अवसरंचनात्मक सुविधाओं की पर्याप्तता अनिवार्य है, वहीं दूसरी ओर, इस प्रौद्योगिकी से निर्मित उत्पादों की कम कीमत पर उपलब्धता भी अनिवार्य है। इस पृष्ठीभूमि में ऐसी नीतियों का निर्धारण अपेक्षित है जो नवाचारों तथा प्रौद्योगिकी प्रसार के बीच संतुलन बना सके। इसी प्रकार, देश में कई सामाजिक चुनौतियां भी विद्यमान हैं जिनका सामना तभी किया जा सकता है जब उपलब्ध जैव संसाधनों का अनुकूलतम अनुप्रयोग हो तथा उन्हें संरक्षित भी किया जा सके।

रणनीति के प्रमुख तथ्य (Key Facts of the Strategy)

  • सरकार तथा उद्योग के बीच साझेदारी।
  • जैव प्रौद्योगिकी पार्कों की स्थापना।
  • मानव संसाधन विकास तथा शैक्षणिक संस्थान-उद्योग अंतरापृष्ठ (Interface) का निर्माण।
  • कृषि तथा खाद्य, औद्योगिक, चिकित्सकीय जैव प्रौद्योगिकी, जैव अभियांत्रिकी, नैनो-जैव प्रौद्योगिकी, जैव तकनीक, अनुसंधान सेवाओं का विस्तार तथा जैव संसाधनों के सरंक्षण तकनीक का विकास एवं प्रसार।
  • एक राष्ट्रीय कार्य बल का गठन ताकि जैव विज्ञान के क्षेत्र में स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठयक्रम का निरूपण किया जा सके।
  • विश्वविद्यालय प्रणाली में जीव विज्ञान तथा जैव प्रौद्योगिकी से संबंधित अनुसंधान और विकास की उच्च प्राथमिकता।
  • अंतरराष्ट्रीय स्तर की अवसरंचनाओं का निर्माण।
  • विश्वविद्यालयों तथा औद्योगिक इकाइयों के एक नेटवर्क का निर्माण ताकि संसाधनों का सही उपयोग संभव हो सके। इस नेटवर्क को बायो-एजु-ग्रिड (Bio-edu-grid) की संज्ञा दी गई है।
  • अनुबंध अनुसंधान संगठन (Contract Research Organisation) , अनुबंध विनिर्माण संगठन (Contract Manufacturing Organisation) जैसी संकल्पनाओं का तेजी से विकास।
  • उत्पादों की सुरक्षा तथा विनियमों का निर्धारण।
  • प्रभावशाली नियमों तथा विनियमों का निर्धारण।
  • जैविक उत्पादों के आयात-निर्यात को तार्किक बनाने का प्रयास।
  • एक राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी विनियामक प्राधिकरण का गठन।
  • जैव प्रौद्योगिकी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में पंचायती राज संस्थाओं की भूमिका सुनिश्चित करने का प्रयास।

राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तावित रणनीति में अनुसंधान संस्थानों, शिक्षण संस्थानों, नागरिक समाज के संगठनों तथा औद्योगिक इकाइयों के समेकन को प्राथमिकता दी गई है। इसका उद्देश्य जैव प्रौद्योगिकी का व्यावसायीकरण तथा भारतीय तकनीकों का वैश्विक विस्तार करना है।

भारत में जैव प्रौद्योगिकी (Biotechnology in India)

राष्ट्र विकास के संदर्भ में भारत जैसे विकासशील देश में यह अत्यंत आवश्यक है कि जैव प्रौद्योगिकी जैसी प्रौद्योगिकियों का अधिकाधिक उपयोग किया जाये। इस क्रम में वर्ष 1982 में राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी बोर्ड (National Biotechnology Board, NBB) का गठन किया गया था। लेकिन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने वर्ष 1986 से कार्य करना आरंभ किया था। विभाग के उद्देश्यों में निम्नांकित अत्यंत महत्वपूर्ण हैं:-

  • जैव प्रौद्योगिकी से संबंधित सभी कार्यक्रमों का आयोजन, संचालन तथा समेकन।
  • जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अवसरंचनाओं का निर्माण और विकास।
  • जैव प्रौद्योगिकी से संबद्ध सभी कार्यक्रमों की निरंतरता बनाये रखने के लिए दक्षता उन्नयन को प्रोत्साहन।
  • सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए नई तकनीकों का प्रयोग।
  • फसल संवर्द्धन के लिए विशेष कार्यक्रमों का निरूपण।

इन सभी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपनी स्थापना के उपरांत विभाग एक वैज्ञानिक सलाहकार परिषद् (Scientific Advisory Council) तथा एक स्थाई सलाहकार परिषद् (Standing Advisory Council) के सहयोग से कार्य करता है। विभाग दव्ारा जन्तु-जैव प्रौद्योगिकी, जैवरासायनिक अभियांत्रिकी, जैवसूचना विज्ञान, औद्योगिक जैव प्रौद्योगिकी, आण्विक जैव प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों के विकास के लिए एक कार्य बल का गठन भी किया गया है। इसके अतिरिक्त, विभाग दव्ारा इन क्षेत्रों में मानव संसाधन विकास को भी प्रोत्साहित किया जाता है। इसी क्रम में कई राष्ट्र-स्तरीय संस्थानों की स्थापना भी गई है।

आनुवांशिकी और जैव प्रौद्योगिकी (Genetics & Biotechnology)

जीन आनुवांशिकता की आधारिक इकाई है जो नाभिकीय अम्लों का एक अनुक्रम है तथा इसके दव्ारा आवश्यक सूचनाओं का हस्तांतरण किया जाता है। सामान्यत: एक जीन में स्थायित्व होता है लेकिन इसमें प्राकृतिक अथवा कृत्रिम रूप से परिवर्तन लाये जा सकते हैं। जिस नाभिक अम्ल के एक भाग को जीन की संज्ञा दी गई है, उसे डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड अथवा डी. एन. ए. (De-oxyriboncleic Acid, DNA) कहते हैं। डी. एन. ए. रासायनिक रूप से न्यूक्लियोटाइड का ही बहुलक (Polymer) है। वर्ष 1953 में वाटसन तथा क्रिक (Watson and Crick) ने डी. एन. ए. की दव्कुंडलनी (Double Helical) संरचना की व्याख्या की थी।

डी. एन. ए. की संरचना (Structure of DNA)

  • डी. एन. ए. की दव्कुंडलनी संरचना की व्याख्या एक्स-रे डिफ्रैक्सन विधि (X-Ray Diffraction Method) के आधार पर की गई है। इसके दोनों रज्जुओं को सामूहिक रूप से बैक बोन (Back bone) कहते हैंं ये दोनों रज्जु एक दूसरे से पार्श्व कड़ियों (Side Chains) दव्ारा जुड़े होते हैं। इन कड़ियों का निर्माण हाइड्रोजन बंधो (Hydrogen Bonos) दव्ारा होता है। बैकबोन का निर्माण शर्करा (कार्बन के पांच परमाणु वाला डीऑक्सीराइबोज) तथा फॉस्फेट से जबकि पार्श्व कड़ियों का निर्माण नाइट्रोजन के क्षारों से होता है। प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड में दो प्रकार के नाइट्रोजन के क्षार उपस्थित होते हैं- दो प्यूरीन तथा दो पाइरीमिडीन। एडिनीन और गुआनीन प्यूरीन तथा साइटोसीन और थायमीन पाइरीमिडीन के उदाहरण हैं। उल्लेखनीय है कि आर. एनए. में थायमीन के स्थान पर यूरासिल नाम क्षार उपस्थित होता है।
  • डी. एन. ए. के रज्जुओं का कुडलनीकरण दाहिने हाथ की दिशा में होता है। इस दव्कुंडलनी संरचना का औसत व्यास 20 एंग्सट्रम होता है। प्रत्येक 34 एंग्सट्रम की दूरी पर इस संरचना में एक मोड़ होता है तथा प्रत्येक मोड़ तक न्यूक्लियोटाइडों की संख्या दस होती है। दूसरे शब्दों में, नाइट्रोजन के क्षार 3.4 एंग्सट्रम की दूरी पर अवस्थित होते हैं।