Science and Technology: Ideal Launch Station and Reusable Launch Vehicle

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अंतरिक्ष (Space)

आदर्श⟋उपयुक्त प्रक्षेपण स्थल (Ideal Launch Station)

प्रक्षेपण स्थल का चुनाव करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा जाता हैं:-

  • प्रक्षेपण स्थल आबादी वाले क्षेत्रों से दूर या समुद्र तट के समीप होना चाहिए।
  • प्रक्षेपण स्थल को भूमध्य रेखा के निकट रखा जाता है ताकि भू-समकालिक स्थानांतरण कक्षा में उपग्रह को प्रवेश कराने में कम ऊर्जा खर्च हो।
  • चूँकि पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर घूर्णन करती है अत: उपग्रहों को पूर्व की तरफ प्रक्षेपित किया जाता है। जिससे वे पृथ्वी की गति ग्रहण कर सके। यदि उपग्रहों को पश्चिम की तरफ प्रक्षेपित किया जाये तो उपग्रहों को कक्षा में स्थापित करने में काफी अतिरिक्त ऊर्जा देनी पड़ेगी।

पुनरुपयोगी प्रक्षेपण यान (Reusable Launch Vehicle)

  • पुनरुपयोगी प्रक्षेपण यान से अभिप्राय ऐसे प्रक्षेपण यान से है जिसे अंतरिक्ष में कार्य पूरा कर लेने के बाद पुन: सफलतापूर्वक पृथ्वी पर उतारा जा सकता है। यह आर्थिक दृष्टि से कम खर्चीला है क्योंकि मशीन पर बार-बार खर्च करने व उसके निर्माण की आवश्यकता नहीं रह जाती है। इसके दव्ारा सस्ती अंतरिक्ष परिवहन प्रणाली का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। इसरो की यह महत्वाकांक्षी परियोजना है तथा पहले (Reusable Launch Vehicle-Technology Demonstration (RLV-TD) ) का इंजीनियरिंग मॉडल विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर, तिरूवनंतपुरम में तैयार कर लिया गया है।
  • पुनरुपयोगी प्रक्षेपण यान की परीक्षण तकनीक यह होगी कि इसे एक उपग्रह प्रक्षेपण यान के जरिए अंतरिक्ष में ले जाया जाएगा एवं उपग्रह प्रक्षेपण यान से अलग होकर यह उड़ान भरेगा। इसके बाद जब यह पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करेगा तो इस पर लगे पैराशूट इसकी गति को नियंत्रित करते हुए इसे वापस पृथ्वी पर उतार लाएंगे।

स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरिमेंट (Space Capsule Recovery Experiment (SRE-1) )

पुनप्रवेशी तकनीक पर आधारित इस कैप्सूल उपग्रह को इसरो दव्ारा 10 जनवरी, 2007 को PSLV-C7 के माध्यम से अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया गया। आइसोथर्मल हीटिंग फर्नेस व बायोमिमेटिक दो प्रयोगात्मक पेलोड उस उपग्रह के साथ भेजे गये थे, जिनमें से पहला धातु संबंधी प्रयोगों से जुड़ा है और दूसरा बायोमिमेटिक संश्लेषण से संबंधित है। सूक्ष्म गुरुत्वीय पेलोड के अलावा वायु तापीय संरचना, गति मंदक, अंतरिक्ष प्लेटफार्म व इसे तैरने योग्य बनाने वाले यंत्र जैसे उपकरण इस कैप्सूल उपग्रह में लगाये गये थे। इसके अंदर लगाये गये सभी तरह के उपकरणों के कार्य व क्षमता प्रदर्शन को मापने के लिए लगे पेरामीटर हेतु सेंसर लगे हुए थे। सूक्ष्म गुरुत्वीय दशाओं में अनुसंधान व प्रयोग हेतु इसे अंतरिक्ष में भेजा गया था। जब वापस पृथ्वी की ओर आने के लिए तैयार हुआ तो डीबूस्ट रॉकेट व पैराशूट की सहायता से यह कुशलतापूर्वक श्रीहरिकोटा के समीप बंगाल की खाड़ी में उतरा। फ्लोटेशन सिस्टम के दव्ारा यह पानी की सतह पर रहा तथा इसे सुरक्षित तरीके से बाहर ले जाया गया। SRE-1 के सफल प्रक्षेपण के साथ उसे वापस लाने के पश्चात्‌ अमरीका, रूस व चीन के पश्चात ्‌भारत चौथा देश है जिसके पास यह प्रौद्योगिकी है। भारत इस प्रयोग से प्रेरित होकर भविष्य में और अधिक उन्नत कैप्सूल उपग्रह विकसित करेगा। इससे न सिर्फ पुनरूपयोगी प्रक्षेपण यान बनाने के लिए प्रेरणा मिलेगी अपितु अंतरिक्ष में परिवहन और पर्यटन की दुनिया बसाने के लिए भी मार्ग प्रशस्त होगा।

वैश्विक अवस्थापन प्रणाली (GPS -Global Positioning System)

वैश्विक अवस्थापन प्रणाली एक अत्याधुनिक तकनीक है, जिसके दव्ारा भू-सर्वेक्षण करने, मानचित्र तैयार करने, वैज्ञानिक शोध करने व किसी वस्तु की सटीक अवस्थिति ज्ञात करने में सहायता प्राप्त की जाती है। यह प्रणाली उपग्रह की सहायता से कार्य करती है।

वैश्विक अवस्थापन प्रणाली के मुख्य रूप से तीन घटक हैं:-

  • अंतरिक्ष संबंधी
  • नियंत्रण संबंधी
  • उपयोग संबंधी

अंतरिक्ष संबंधी घटक से अभिप्राय उपग्रहों के अवस्थापन से है। उपग्रहों को उचित कोण पर मध्य भू-कक्षा में स्थापित किया जाता है, इसका औसत कोण 55 है। उपग्रहों दव्ारा भेजी गयी सूचनाओं को संग्रहीत करने व नियंत्रित करने के लिए पृथ्वी पर पार्थिव नियंत्रण नेटवर्क अथवा निगरानी केन्द्र स्थापित किया जाता है। ये केन्द्र सूचना संग्रहण का कार्य करते हैं। जैसे-यू. एस. ए. के निगरानी केन्द्र हवाई दव्ीप तथा डियागो गासिंया से स्थापित हैं।

  • एंटीना घड़ी व प्रोसेसर युक्त जीपीएस संग्राहकों दव्ारा प्राप्त सूचना को उपयोग भूगणितीय मानचित्रण, सेना की अवस्थिति आँकड़ा संग्रहण, नौवहन संबंधी गतिविधियों व सर्वेक्षण तथा मानचित्रण में होता है। संक्षेप में इसका उपयोग स्थलीय, जलीय व वायवीय तीनों अनुप्रयोगों में होता है।
  • भारत दव्ारा इस क्षेत्र में प्रयास: अमरीकी जीपीएस प्रणाली पर से आश्रितता हटाने के प्रयास के क्रम में इसरो दव्ारा एक क्षेत्रीय नेवीगेशन उपग्रह तंत्र विकसित किया जा रहा है। जिसे IRNSS (Indian Regional Navigation Satellite System) नाम दिया गया है। यह एक स्वायत्त क्षेत्रीय उपग्रह प्रणाली तंत्र है। इस प्रणाली के 2014 तक आरंभ हो जाने की उम्मीद है। इसके अंतर्गत कुल सात उपग्रह स्थापित किये जाएंगे, जिनमें से तीन भू-स्थैतिक कक्षा में स्थापित किये जाएंगे।

गगन (GAGAN -GPS Aided Geo Augmented Navigation)

  • गगन इसरो व भारतीय विमान पत्तन प्राधिकरण दव्ारा विकसित की जाने वाली एक क्षेत्रीय उपग्रह संचालन प्रणाली है, जिसे मई, 2006 में स्वीकृत किया गया था। इसके अंतर्गत एशिया प्रशांत क्षेत्र में एक ‘भारतीय क्षेत्रीय संचालन उपग्रह प्रणाली’ (Indian Regional Navigational Satellite System) को स्थापित किया जाएगा। इस प्रणाली को कार्यरूप देने के लिए पहले उपग्रहक् GSAT-4 को GSLV-D3 के जरिए भेजा गया था, लेकिन GSLV-D3 की असफलता ने इस परियोजना को एक घटका दिया है।
  • इस परियोजना के लिए बेंगलुरू के निकट कंडनहल्ली में मास्टर कंट्रोल सेंटर का निर्माण किया गया है। सभी प्रमुख हवाई पत्तानों को भी इस प्रणाली से जोडा जाएगा।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान के प्रमुख पड़ाव (Major Stages of Indian Space Research)

चन्द्रयान -1 परियोजना (Chandrayan-1 Project)

  • इसरो ने भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम को एक नई दिशा देते हुए 22 अक्टूबर, 2008 को श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से PSLV-C11 के जरिए चन्द्रयान-1 को पृथ्वी की भू-स्थैतिक कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित किया। इस उपलब्धि के साथ ही अमरीका, रूस, यूरोप, जापान व चीन के बाद भारत छठा देश हो गया, जिसने चन्द्रमा की सतह के अध्ययन के लिए अभियान संचालित किया है। बेंगलुरू स्थित ‘स्पेसक्राफ्ट कंट्रोल सेंटर’ दव्ारा 5 बार ऊपरी कक्षाओं में स्थानांतरित किये जाने के बाद चन्द्रयान-1 ने चन्द्रमा की कक्षा में प्रवेश किया। 12 नवंबर, 2008 को यह अपनी निर्धारित कक्षा में पहुँच गया, जहाँ से चन्द्रमा का निकटस्थ बिन्दु 100 कि. मी. तथा दूरस्थ बिन्दु मात्र 182 कि. मी. है। चन्द्रयान-1 के साथ गये उपकरण ‘मून इंपेक्ट प्रोब’ ने भारतीय राष्ट्रीय झंडे ‘तिरंगे’ की चन्द्रमा पर उपस्थिति दर्ज करायी।
  • चन्द्रयान-1 अपने साथ 11 उपकरणों को लेकर गया, जिसमें 5 इसरो के, 2 नासा के, 3 यूरोपीय स्पेस एजेंसी तथा एक बुल्गारिया के थे।
  • यह अभियान 2 वर्षों के लिए था, लेकिन 29 अगस्त, 2009 को संपर्क टूट जाने के कारण यह 312 दिनों में ही समाप्त हो गया। फिर भी वैज्ञानिकों ने इस अभियान को एक सफल अभियान करार दिया है। इस अभियान में भेजे गये मून इंपैक्ट प्रोब दव्ारा चन्द्रमा की सतह पर जल की उपलब्धता का पता लगाया जाना, चन्द्रमा की सतह का त्रिआयामी मानचित्रीकरण, ट्‌यूबलर जैसी सरंचनाओं की उपस्थिति की खोज, चन्द्रमा पर विद्यमान खनिज सामग्री व अन्य आँकड़ों से संबंधित जानकारी देने के संदर्भ में इसे एक सफल योजना कहा जा सकता है। इसी सफलता की पृष्ठभूमि पर इसरो ने चन्द्रयान-2 का सपना संजोया है।

चन्द्रयान -2 (Chandrayan-2)

इस अभियान के लिए इसरो तथा रूसी अंतरिक्ष ‘ग्लोबकॉसमॉस’ के मध्य करार हुआ है। 18 सितंबर, 2008 को भारत सरकार दव्ारा ‘चन्द्रयान-2’ अभियान को स्वीकृति प्रदान की गई। इस अभियान में लैंड रोवर भेजा जाएगा, जो चन्द्रमा की सतह का सर्वेक्षण करेगा, जिससे वहाँ मौजूद रासायनिक तत्वों की सही स्थिति ज्ञात की जा सकेगी। चन्द्रयान-2 को कमांड एवं उसकी स्थिति का पता लगाने में सहायता करने के लिए ‘ब्यालालू’ में 32 मीटर व्यास का एंटीना स्थापित किया गया है। इस अभियान के 2012 में संपन्न होने की संभावना है। अंतरिक्ष यान के कक्षा में पहुँचने पर लैंड रोवर इससे अलग हो जाएगा तथा दो साल तक सतह में सर्वेक्षण करेगा।