Science and Technology: Intellectual Property Rights, Patent and Indian Patent Rules

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बौद्धिक संपदा अधिकार (Intellectual Property Rights)

पेटेंट (Patent)

  • किसी व्यक्ति या उद्यम दव्ारा किए गए आवष्कािर या खोजों या उस व्यक्ति या उद्यम दव्ारा किए गए प्रक्रियागत विकास से संबंद्ध कानूनी संरक्षण को पेटेंट के अंतर्गत रखा जाता है।
  • आविष्कार को प्रोत्साहन देने के लिए पेटेंट कानून के तहत एक सीमित समय तक संरक्षण दिया जाता है। सामान्य रूप से देखा जाए तो प्रतीत होता है कि पेटेंट और कॉपीराइट के लिए समान उद्देश्य से संरक्षण दिया जाता है। जबकि वास्तव में पेटेंट कानून का उद्देश्य एवं इससे संबंधित भावना कॉपीराइट के अनुरूप नहीं होती है।
  • कॉपीराइट के तहत सृजनात्मकता को प्रोत्साहित किया जाता है और सृजन के तुरंत बाद से ही संरक्षण प्रारंभ हो जाता है भले ही इस सृजनित कार्य का सार्वजनीकरण किया गया हो या नहीं। यह जरूर है कि कॉपीराइट की गई सामग्री एक बार सार्वजनिक रूप से सामने आती है तो इस सामग्री के संबंध में कुछ भी गुप्त नहीं रह जाता है और यह सभी के लिए सुगम हो जाती है। समग्र रूप से कोई भी मौलिक कृत्य जो किसी अन्य के कृत्य में अतिक्रमण नहीं करता है कॉपीराइट कानून दव्ारा संरक्षित किया जाता है।
  • अत: कॉपीराइट प्राप्त करने में कोई जटिलता नहीं होती है जबकि पेटेंट अधिकार प्राप्त करना एक जटिल प्रक्रिया है। इसके अतिरिक्त कॉपीराइट संरक्षण को नवीनीकृत किया जा सकता है। जबकि पेटेंट अवधि समाप्त होने पर इसे नवीनीकृत नहीं किया जा सकता है। अर्थात एक बार पेटेंट समाप्त हो जाने पर आविष्कार सार्वजनिक क्षेत्र का अंग बन जाता है। वहीं ट्रेडमार्क के तहत वैसी बौद्धिक संपदा का संरक्षण किया जाता है जिसका स्वयं में कोई महत्व नहीं होता है। ध्यातव्य है कि पेटेंट किए गए आविष्कार का उसकी विशिष्टता और उपयोगिता के आधार पर महत्व होता है जबकि ट्रेडमार्क का महत्व संबंद्ध वस्तुओं या सेवाओं से पहचाना जाता है।
  • पेटेंट और ट्रेडमार्क के बीच एक समरूपता यह दिखती है कि संरक्षण स्वीकृत के पूर्व पेटेंट की लंबी स्क्रीनिंग प्रक्रिया होती है। इसी प्रकार ट्रेडमार्क की स्वीकृत के लिए अपेक्षाकृत सरल स्क्रीनिंग प्रक्रिया अपनायी जाती है।
  • परन्तु बिना औपचारिक पंजीकरण के भी ट्रेडमार्क संरक्षण प्रदान किया जाता है जबकि पेटेंट संरक्षण के मद्देनजर ऐसा नहीं होता है। इसे औपचारिक पंजीकरण की आवश्यकता होती है। कोई भी व्यक्ति एक निश्चित अवधि तक (पेटेंट आवेदन दिए जाने की तिथि से 20 वर्ष तक) पेटेंट धारक दव्ारा दिए गए लाइसेंस के बिना उस आविष्कार का उपयोग नहीं कर सकता है। पेटेंट धारक को यह अधिकार होता है कि वह अपने सृजन का पूर्ण या आंशिक भाग बेच दे और वह किसी व्यक्ति को अपने दव्ारा सृजन किए गए कृत्य का उपयोग एवं दोहन करने के लिए लाइसेंस भी दे सकता है। किसी एक देश में स्वीकृत पेटेंट को अन्य देश में तब तक लागू नहीं किया जा सकता है। जब तक कि उस देश में भी उस आविष्कार का पेटेंट नहीं किया गया है।
  • पेटेंट की अवधारणा सर्वप्रथम 18वीं सदी में उभरी। उस समय पेटेंट कराने वाले अपने दव्ारा किए गए आविष्कार का विवरण दर्ज कराते थे। ब्रिटेन में नवीन पेटेंट प्रणाली को पेटेंट कानून संशोधन, 1852 के जरिए लागू किया गया। इसका उद्देश्य था छोटे वेंचरों के लिए पूंजी और औद्योगिक लाभ के लिए नवीन विचार एकत्र करना।
  • पूर्व में अंतरराष्ट्रीय पेटेंट प्रणाली जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी। कई वर्षों तक विचार करने के बाद विभिन्न देशों ने दो निष्कर्ष निकाला कि पेटेंट को अंतरराष्ट्रीयकृत कर देने से प्रभावशालीता बढ़ेगी और लागत में कमी आएगी। इसके बाद विश्व स्तर पर पेटेंट से संबंद्ध संधियाँ एवं सम्मेलन किए जाने लगे।
  • वर्ष 1973 में म्यूनिख में यूरोपीय पेटेंट कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किए गए। 1 जून, 1978 को यह क्रियाशील हुआ। यदि कोई आवेदनकर्ता कुछ यूरोपीय देशों में अपने आविष्कार को संरक्षण देना चाहता है तो यूरोपीय पेटेंट कन्वेंशन कार्यालय चिन्हित देशों से संबंद्ध एकल आवेदन का लाभ पेटेंट धारक को देता है।

भारतीय पेटेंट कानून (Indian Patent Rules)

  • भारतीय परिप्रेक्ष्य में पेटेंट संबंधित मुख्य विधान पेटेंट अधिनियम, 1970 में किया गया है। भारत में पेटेंट प्रणाली का प्रशासन पेटेंट, डिज़ाइन, ट्रेड मार्क्स और भौगोलिक संकेत महानियंत्रक के अधीक्षण में होता है।
  • पेटेंट कार्यालय नए पेटेंट अधिनियम के तहत नए आविष्कारों के लिए पेटेंट प्रदान करने संबंधी सांविधिक कर्तव्यों का निष्पादन करता है।
  • इस अधिनियम का संशोधन पेटेंट (संशोधन) अधिनियम, 2002 दव्ारा और पेटेंट (संशोधन) अधिनियम, 2005 दव्ारा ट्रिप्स के करार के तहत भारत के दायित्वों की देख-रेख करने के लिए किया गया है। संशोधन के बाद उत्पाद पेटेंट (प्रक्रिया पेटेंट की बजाए) खाद्य, भेषज और रसायन उत्पादों के लिए दिया जा रहा है। इस प्रकार वर्ष 2005 से भारत ने दवाओं पर भी पेटेंट देना शुरू किया।
  • विदित हो कि हाल की में सर्वोच्च न्यायालय ने स्विट्‌जरलैंड की कंपनी नोवार्टिस दव्ारा ग्लीवॉक नामक कैंसर रोधी दवा बनाने के पेटेंट अधिकार संबंधी दी गई चुनौती को खारिज कर दिया। नोवार्टिस ने यह चुनौती दी थी कि भारतीय पेटेंट कार्यालय ने उसके इस दवा पर पेटेंट अधिकार को अस्वीकार किया था। दरअसल ग्लीवॉक पर पेटेंट की मांग इसलिए स्वीकार नहीं की गई क्योंकि निचली अदालत ने यह माना कि कंपनी बाजार में उपलब्ध दवा के फॉर्म्यूले में छोटा-मोटा बदलाव कर उस पर अधिकार जमाना चाहती थी।
  • प्रसंगवश भारत में आम कंपनियाँ ग्लीवॉक का निर्माण करीब 18000 रुपये प्रति माह के मूल्य पर करती हैं जबकि नोवार्टिस की दवा की कीमत करीब 1 लाख 30 हजार रुपए प्रति माह हैं विश्लेषकों का मानना था कि भारत का पेटेंट कानून रोगियों के हित में है और एक ही दवा के फॉर्म्यूले में थोड़े बहुत बदलाव कर कोई भी अपनी नए पेटेंट का दावा नहीं कर सकती। यह जरूर है भारत के पेटेंट कानून में 2005 के बाद बदलाव किए गए लेकिन इसके बावजूद महत्वपूर्ण दवाईयाँ सस्ते दामों में ही उपलब्ध हैं क्योंकि उनका उत्पादन 2005 के पहले से ही होता आ रहा था।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने नोवार्टिस मामले में सुनवाई करते हुए भारतीय ‘पेटेंट नियामक पेटेंट डिज़ाइन और ट्रेडमार्क महानियंत्रक’ के 2006 के आदेश को सही ठहराया। इस आदेश में यह उल्लेख था कि कैंसर के इलाज में प्रयुक्त होने वाली दवा ग्लीवॉक पुरानी दवा का ही संशोधित रूप है। इसलिए इसे भारत में पेटेंट की अनुमति नहीं दी जा सकती है। नोवार्टिस का कहना था कि ग्लीवॉक को प्रभावी दवा बनाने के लिए वर्षों तक अनुसंधान किए गए हैं अत: उसका पेटेंट कराना उसका अधिकार है। इसने भारतीय पेटेंट कानून के उस उपबंध को चुनौती दी थी, जिसके तहत मौजूदा मॉलीक्यूल्स के नए प्रारूप को पेटेंट कानून के तहत संरक्षा देने पर प्रतिबंध लगाया गया है।
  • नोट: एवर ग्रीनिंग- बहुराष्ट्रीय कंपनियों का यह प्रयास कि पेटेंट अवधि समाप्त होने के पूर्व उसका नवीनीकरण करा लिया जाए, एवर ग्रीनिंग कहलाता है। माना कि किसी दवा का पेटेंट समाप्त होने वाला है। ऐसे में पेटेंट धारक कंपनी दवा में नाम मात्र का नवाचार करके पुन: नया पेटेंट करा लेती है।
    • भारत का पेटेंट कानून एक ओर जहाँ दवा आविष्कारों के पेटेंट को अनुमति देता है वहीं यह पेटेंट की गई दवा के एवर ग्रीनिंग (किसी ज्ञात वस्तु में नए रूप की नाम मात्र की खोज) की अनुमति नहीं देता है। पुन: किसी वस्तु पर दिए गए पेटेंट के तीन वर्ष बाद यह कभी भी अनिवार्य लाइसेंस की स्वीकृति देता है। परन्तु राष्ट्रीय आपात या अत्यंत अपरिहार्यता की स्थिति में तीन वर्ष की शर्त से छूट प्रदान की गई हैं। जनहित में पेटेंट को रद्द भी किया जा सकता है।
  • ट्रेडमार्क (Trademark) - किसी एक उत्पाद या सेवा को अन्य उत्पाद या सेवा से पृथक करने वाले चिन्ह, डिज़ाइन या अभिव्यक्ति ट्रेडमार्क कहे जाते हैं। ट्रेडमार्क स्वामित्व का अधिकार किसी व्यक्ति, व्यापार संगठन या वैधानिक इन्टिटी को होता है। किसी वस्तु या सेवा का ट्रेडमार्क होने से उपभोक्ता उसकी पहचान, उसकी प्रकृति और गुणवत्ता के आधार पर कर सकता है।
    • ट्रेडमार्क एक शब्द या शब्दों के समूह, अक्षरों के समूह, संख्याओं के समूह के रूप में हो सकता है। चित्र, चिन्ह, त्रिविमीय चिन्ह, श्रव्य चिन्ह जैसी संगीतमय ध्वनि या विशिष्ट प्रकार के रंग के रूप में हो सकता है।
    • गत अप्रैल माह में भारत विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (WIPO) के अंतरराष्ट्रीय ट्रेडमार्क प्रणाली का सदस्य बना। इसके लिए भारत ने मैड्रिड प्रोटोकॉल को अपनी सहमति दी। भारत के संदर्भ में यह संधि 8 जुलाई, 2013 से लागू हुई। उल्लेखनीय है कि इंटरनेशनल रजिस्ट्रेशन ऑफ मार्क्स की मैड्रिड व्यवस्था ट्रेडमार्क स्वामी को लागत प्रभावी, उपयोगकर्ता हितैषी सुविधा देती है।
    • अंतरराष्ट्रीय ट्रेडमार्क व्यवस्था का अंग बनने पर भारतीय वाणिज्य मंत्री श्री आनंद शर्मा ने आशा जतायी है कि इससे भारतीय कंपनियों को प्रोटोकॉल से संबंद्ध सदस्य देशों में केवल एक आवेदन के जरिए ट्रेडमार्क पंजीकरण कराने का अवसर मिल सकेगा साथ ही विदेशी कंपनियों को भी भारत में यह सुविधा मिल सकेगी।
    • मैड्रिड प्रोटोकॉल को स्वीकारने वाला भारत जी-20 देशों में से 14वाँ देश है। मैड्रिड व्यवस्था बड़े व्यवसायों के साथ-साथ मध्यम और लघु उद्यमों के लिए सार्थक है। हालिया वैश्विक आर्थिक स्थितियों में इस व्यवस्था ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ट्रेडमार्क संरक्षण को महत्व दिया है। ट्रेडमार्क वस्तु-सेवाओं की गुणवत्ता का प्रतीक होता है। आज के बढ़ते इलेक्ट्रॉनिक युग में तो ट्रेडमार्क ही ऐसा माध्यम है जिसके जरिए ग्राहक कंपनी के उत्पादों और सेवाओं के मध्य पहचान कर सकता हैं।