व्यक्तित्व एवं विचार (Personality and Thought) Part 16 for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.

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सामाजिक दर्शन ~NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.: व्यक्तित्व एवं विचार (Personality and Thought) Part 16

टैगोर का सामाजिक दर्शन उनके सुसंस्कृत परिवार, उपनिषद की शिक्षाओं एवं राजाराम मोहन राय के विचारों से प्रभावित था। साथ ही पाश्चात्य लेखकों एवं कवियों की कृतियों का भी उस पर प्रभाव है। वे एक ऐसे समाज के पक्षधर थे जिसमें व्यक्तियों को सृजनात्मक एवं सहकारी कार्यों दव्ारा आत्माभिव्यक्ति का पूर्ण अवसर प्राप्त होता है। टैगोर का विचार था कि सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज में असमानताएं नहीं होनी चाहिए और सभी व्यक्तियों को अपनी आजीविका के लिये धनोपार्जन करना चाहिए।

उनके मतानुसार मनुष्य के सामाजिक हितों में प्रेम एवं सहानुभूति का विशेष महत्व है। मानव समाज के विकास में सहानुभूति का अपूर्व योगदान है और प्रेम सामाजिक प्राणी का सर्वोत्तम गुण।

टैगोर एक ऐसे समाज की रचना करना चाहते थे जो समन्वय के आधार पर संगठित हो। वे नगरों के विकास के साथ-साथ ग्रामोत्थान के भी समर्थक थे। उनके अनुसार गाँवों की उपेक्षा करके देश उन्नति नहीं कर सकता है। उनका मत था कि-यदि मैं एक-दो गाँव को दुर्बलता के बंधन से मुक्त कर सकता तो एक छोटे स्तर पर सारे भारत के लिये एक आदर्श का निर्माण होगा। मेरा उद्देश्य है- इन थोड़े से ग्रामों को पूर्ण स्वतंत्रता देना। इस आदर्श को थोड़े से ही ग्रामों में कार्यान्वित कीजिए तो भी मैं कहूँगा कि ये थोड़े से गाँव ही मेरा भारतवर्ष है। जब ऐसा होगा तभी हिन्दुस्तान वास्तव में हमारा होगा।

भारत में व्याप्त अज्ञान, सामाजिक पतन एवं राजनीतिक पराधीनता से उन्हें बहुत कष्ट था। इसके लिये वे सृजनात्मक कार्यो पर बल देते थे। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को टैगोर दोषपूर्ण मानते थे। सामाजिक निर्माण कार्य जनसमुदाय के मध्य किया जाना चाहिए, ऐसा टैगोर का विचार था। वे चाहते थे कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति सुख-सुविधाओं से लाभान्वित हो सके। सामाजिक व्यवस्था को नैतिकता पर आधारित होना चाहिए।

पश्चिम एवं पूर्व का समन्वय ~NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.: व्यक्तित्व एवं विचार (Personality and Thought) Part 16

गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर मानवतावाद के पुरोधा एवं प्रवक्ता थे। वे पूर्व तथा पश्चिम का संगम चाहते थे। 1921 में उनके दव्ारा विश्व भारती की स्थापना का यही प्रयोजन था। उन्होंने कहा था कि इसका प्रयोग पूर्व तथा पाश्चात्य के संगम के अध्ययन के संयुक्त समागम में सत्य की अनुभूति करना तथा दो गोलार्द्धो के मध्य विचारों के स्वतंत्र आदन-प्रदान के दव्ारा विश्व शांति की मूल संभावनाओं को सशक्त करना है।

रवीन्द्र नाथ ने बार-बार भारतीय सभ्यता की आंतरिक शक्ति, आध्यात्मिकता की बात कही है और मनुष्य की भौतिक तथा आध्यात्मिक प्रकृति के तादाम्य का उल्लेख किया है। वे एकता के समर्थक थे और उनका मत था कि सृजन मूल्यवान होना चाहिए। विश्व के सारे सुकृत्य मानवता की धरोहर हैं। उनका विचार था कि पूर्व को पश्चिम की वैज्ञानिक पद्धति को ग्रहण करना चाहिए और पश्चिम को पूर्व की एकता से सीखना चाहिए।