Public Administration: Conceptual Interpretation of Social Justice

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सामाजिक न्याय और अवधारणात्मक विवेचन (Conceptual Interpretation of Social Justice)

सामाजिक न्याय की व्याख्या (Social Justice Explained)

सामाजिक न्याय एक ऐसे न्यायपूर्ण समाज (Just Society) की अवधारणा है जहाँ समाज के सभी वर्ग बिना किसी भेदभाव (भाषा, जाति, पंथ, संप्रदाय, लिंग, धर्म आदि) के समाज में आत्म सम्मान एवं सम्मान अधिकार प्राप्त कर सके तथा आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से सशक्त हो सकेंं।

मुख्यत: सामाजिक न्याय विधिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक सशक्तीकरण का मार्ग प्रशस्त करता है और समाज के निम्नलिखित वर्गों को मुख्य धारा से जोड़ने में मदद करता है।

  • समाज में हाशिए पर चले गए समूह (Marginalized groups of the Society) उदाहरण के लिए ट्रांस जेंडर, सेक्स वर्कर, चलवासी जनजातियाँ आदि।
  • समाज के पद दलित समूह (Downtrodden groups of the Society)
  • समाज के असुरक्षित समूह (Vulnerable Sections of the Society) अनुसूचित जनजातियाँ, अनुसूचित जातियाँ, नि: शक्त व्यक्ति, एचआईवी/एड्‌स से पीड़ित तथा समाज के अल्पसंख्यक समूह इत्यादि।

सामाजिक न्याय के मूल तत्व (Elements of Social Justice)

विगत कुछ वर्षों में केन्द्र सरकार व अन्य राज्य सरकारों ने समावेशी और संपोषणीय विकास पर ध्यान केन्द्रित किया है। समाज के प्रत्येक तबके लिए समान अवसर सुनिश्चित करने के लिए अनेकों सामाजिक आर्थिक कल्याण की योजनायें चलाई जा रही हैं। समय के साथ-साथ सामाजिक न्याय शब्द भी अब काफी प्रचलित हो गया है तथा बुुद्धजीवियों, नीति निर्माताओं और गैर-सरकारी संगठनों में इसका प्रयोग एक सामान्य बात हो गई है।

Illustration: सामाजिक न्याय के मूल तत्व (Elements of Social Justice)

वैश्विक स्तर पर आने वाली चुनौतियों को देखते हुए आज दुनिया के सभी राष्ट्र स्वतंत्रता समानता, सुरक्षा और सामाजिक कल्याण की नीतियों का निर्माण कर रहे है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने नवंबर, 2007 में 20 फरवरी को वार्षिक विश्व सामाजिक न्याय दिवस (Annual World day of Social Justice) घोषित किया। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का संविधान भी यह कहता है कि सार्वभौमिक तथा पूर्ण शांति केवल तभी सुनिश्चित की जा सकती है जब सामाजिक न्याय पर आधारित हो।

सामाजिक न्याय से जुड़ी मुख्य बहस (An Important Debate Associated with Social Justice)

आम चर्चा में ‘सामाजिक न्याय’ तथा ‘सामाजिक कल्याण’ बौद्धिक बौद्धिक चर्चा में उतना ही कठिन हो जाता है।

सामाजिक न्याय समानता है या फिर स्वतंत्रता (Social Justice Equality or Freedom)

  • कुछ बुद्धिजीवी वर्ग तथा नीति निर्धारक सामाजिक न्याय को समानता से जोड़कर देखते हैं। वहीं कुछ इसे स्वतंत्रता से, जबकि कुछ लोग सामाजिक न्याय में स्वतंत्रता और समानता दोनों का होना जरूरी मानते है और कुछ लोग एक कदम और आगे बढ़ कर सामाजिक न्याय को समाज में उत्पन्न भ्रातत्व के रूप में भी देखते हैं। जो लोग न्याय को स्वतंत्रता पर निर्भर मानते हैं उनका अपना समीकरण है, जिसके आधार पर उन्होंने अपने पूँजीवादी समाज का तानाबाना बना है। जो लोग न्याय को समानता पर निर्भर मानते हैं उनका अपना समीकरण है जिसके आधार पर उन्होंने साम्यवादी समाज का ताना-बाना बुना है।
  • सामाजिक न्याय को किसी एक परिभाषा तक ही समिति नहीं किया जा सकता है क्योंकि सैद्धांतिक तौर पर यह विधि, समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र (कल्याण का अर्थशास्त्र) आदि विषयों से जुड़ा हुआ है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय समस्त सामाजिक मूल्यों का एकीकरण है। इसलिए सामाजिक न्याय को स्वतंत्रता और समानता मानने से एक अंतर्विरोध उत्पन्न होता है, क्योंकि समाज में जितनी अधिक स्वतंत्रता दी जाती है, समानता उतना ही सीमित होती जाती है। इसके विपरीत समानता के लिये दबाव जितना बढ़ता जाता है, स्वतंत्रता समाज में उतनी ही सीमित होती जाती है।
  • स्वतंत्रता कतिपय बुनियादी अधिकारों की कल्पना करती है, जो व्यक्ति के नैसर्गिक विकास के लिए जरूरी हैं। किन्तु तब अधिकारों का शायद ही कोई अर्थ हो यदि समाज की रचना असामनता के सिद्धांत पर हुई हो। सामाजिक न्याय से आशय आर्थिक व सामाजिक क्षेत्रों में समानता की स्थापना है। एक न्यायपूर्ण व्यवस्था केवल यह है जो समानता पर आधारित है। व्यवस्था में जितनी अधिक विषमता होती है अन्याय व शोषण की संभावना भी उतनी ही अधिक होती है। समानता को विचारों की संबद्धता से परिभाषित किया गया है, जो किसी हद तक सामाजिक भिन्नताओं को कम करने की प्रक्रिया को विकसित करती है। सामाजिक न्याय को जब समानता से निरूपित किया जाए तो इसका अभिप्राय यह है कि समाज अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में सभी वर्गों के लक्ष्यों को समाहित करे। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि मेरी आवाज का वजन दूसरों की आवाज से कम है तो भी निर्णय लेते समय उस पर विचार अवश्य किया जाये।

समानता और स्वतंत्रता विभिन्न सामाजि-राजनीतिक विचारकों के अनुरूप (Equality and Freedom According to Various Socio-Political Thinkers)

  • स्वेच्छातंत्रवादी एवं पूंजीवादी (Capitalist) विचारक समानता की तुलना में भिन्नता पर अधिक बल देते हैं। उनका मानना है कि समानता तथ्यगत नहीं है, वस्तुत: प्रकृति समानता के आदर्श का पालन नहीं करती। यदि समाज से वर्ग भेद पूर्णतया मिटा भी दिया जाये तो भी समाज में शक्तिशाली व कमजोर, प्रतिभावान व पिछड़े तथा भाग्यशाली एवं दुर्भाग्यशाली बने रहेंगे। पूंजीवादी विचारक स्वतंत्र अर्थव्यवस्था, प्रतिस्पर्धा, लाभ एवं विकास पर बल देते हैं। इसलिए उनकी दृष्टि में समानता के लिए प्रयास वांछनीय नहीं है। उनका मत है कि विगत दशकों में जिस तेजी से आर्थिक विकास हुआ है वह बहुत कुछ असमानता का परिणाम है।
  • उपयोगितावादी विचारकों (Utilitarianism Thinkers) की मान्यता भी बहुत कुछ इसी प्रकार की है। उनका मानना है कि समाज में उपयोगिता की दृष्टि से व्यक्तियों के प्रकार्य भिन्न-भिन्न होते हैं। अत: उन्हें प्राप्त होने वाली आय में भिन्नता का होना स्वाभाविक है। उदारवादी विचारकों को मानना है कि आर्थिक क्रियाओं में समाज या राज्य का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। वे चयन की स्वतंत्रता को निजी स्वामित्व पर आधारित अर्थव्यवस्था एवं राजनीतिक व्यवस्था का आधारभूत तत्व मानते हैं। उदारवादी विचारक जहाँ निजी स्वामित्व, स्वतंत्र बाजार व्यवस्था एवं पूंजीवाद को प्रगति का मापदंड मानते है; वहीं समाजवादी विचारक इन्हें शोषण, बेकारी, निर्धनता, अमानवीय कार्य की दशाओं तथा आय, धन व सामाजिक स्थिति में घोर विषमता जैसी बुराइयों का कारण मानते हैं।
  • समाजवादी विचारकों (Socialist Thinkers) के अनुसार लाभ कमाने की अनियंत्रित लालसा पर प्रभावकारी नियंत्रण लगाया जाना निर्धन, गरीब व शक्तिहीन लोगों की रक्षा की दृष्टि से जरूरी है जो कि राष्ट्रीयकरण और सार्वजनिक स्वामित्व के अधीन उत्पादन तथा उद्योगों पर राज्य के प्रभावकारी नियंत्रण के दव्ारा ही प्राप्त किया जा सकता है। बहुत से पश्चिमी अर्थशास्त्रियों का यह मानना है कि सामाजिक न्याय को स्थापित करने के लिये आर्थिक विकास सर्वोपरि है। इनके अनुसार सामाजिक असमानता आर्थिक असमानता से घनिष्ठ रूप से संबंधित है। दोनों एक दूसरे के कार्य कारण हैं। तदनुसार, अधिक आर्थिक समानता, अधिक सामाजिक समानता को विकसित करेगी।
  • साम्यवादी विचारकों विशेष रूप से मार्क्स व एंजिल्स ने एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना पर जोर दिया है जिसमें समानता व असमानता का विवाद अप्रासंगिक हो जाता है। इन विचारकों की दृष्टि से समानता एक बुर्जुआ विचार है। मार्क्स के अनुसार साम्यवाद के पहले चरण में श्रम पर समान अधिकार या बुर्जुआ का अधिकार होगा। चूँकि एक व्यक्ति दूसरे से शारीरिक या मानसिक रूप से श्रेष्ठ होता है, इसलिए एक समय में अधिक श्रम कर सकता है या अधिक समय तक श्रम कर सकता है। ऐसी स्थिति में यह समान अधिकार, असमान श्रम के लिए असमान अधिकार है। इस प्रकार साम्यवाद के आरंभिक चरण में वितरण अनिवार्य रूप से असमान वितरण है। साम्यवाद के उच्च स्तर पर जबकि व्यक्ति श्रम विभाजन की दासता से मुक्त हो जाता है, जब श्रम केवल जीविका का साधन मात्र नहीं अपितु जीवन की प्रमुख आवश्यकता बन जाता है। व्यक्ति के विकास के साथ उत्पादन की शक्तियाँ भी बढ़ जाती है और सहकारी धन का प्रचुर प्रवाह हो जाता है तब समाज का नारा प्रत्येक अपनी योग्यता के अनुसार तथा प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार होता है।

निष्कर्ष (Conclusion)

  • किसी भी समाज में समानता सहज और वांछनीय तो है किन्तु पूर्ण समानता असहज और अवांछनीय भी है, क्योंकि यदि सभी व्यक्ति सभी विषयों में पारंगत हो जायेंगे तो उनमें अदान-प्रदान का दायरा बहुत सीमित हो जाएगा। समाज के अस्तित्व एवं विकास की दृष्टि से समानता व असमानता दोनों का होना जरूरी है। समानता सहयोग को विकसित करती है। विषमता भी सहयोग को विकसित करती है, किन्तु अधिक विषमता संघर्ष को जन्म देती है। शिक्षा, आय, राजनीतिक शक्ति और सामाजिक स्थिति से संबंधित भेद या विषमता जब समाज में बढ़ जाते हैं तो इससे न केवल सामाजिक संगठन अपितु राष्ट्रीय एकता को भी खतरा पैदा हो जाता है। समाज के अस्तित्व को बनाये रखने और उसे सतत्‌ विकास की ओर गतिमान बनाए रखने की दृष्टि से विषमता जरूरी है, किन्तु अधिक विषमता को नियंत्रित करना और समानता की प्राप्ति के लिए प्रयास करना कहीं अधिक जरूरी है।
  • स्वतंत्रता और समानता सामाजिक न्याय के मूलभूत तत्व हैं। दोनों में किसी एक का अभाव सामाजिक न्याय का अभाव है। स्वतंत्रता व्यक्ति की अंतर्निहित शक्तियों के विकास के लिए जरूरी है। स्वतंत्रता के अभाव में उसकी सृजनशीलता, कार्यशीलता, उद्यमिता क्षीण होती है, जिससे उसके दव्ारा समाज में योगदान कम होता है। समानता के अभाव में दासत्व की स्थिति निर्मित हो जाती है, कुछ लोग बहुत आगे बढ़ जाते है वहीं दूसरों के लिये जीवन का कोई प्रयोजन ही नहीं रह जाता। स्वतंत्रता एवं समानता दोनों न्याय की दृष्टि से आवश्यक हैं, समाज में जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति तथा विकास के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार की संपूर्ति का प्रश्न है तो समानता को निर्धारिक सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। सामाजिक लाभ या पुरस्कार का वितरण सामाजिक हित में व्यक्ति के योगदान को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। इस स्तर पर स्वतंत्रता को निर्धारक सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।