Quasi-Judicial Institutions: Union Public Service Commission
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संघ लोक सेवा आयोग (Union Public Service Commission)
- स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय नेताओं ने उच्च सिविल सेवाओं के भारतीयकरण की मांग की। स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं दव्ारा इस तथ्य पर निरंतर बल दिए जाने के परिणामस्वरूप भारत सरकार अधिनियम, 1935 के अंतर्गत फैडरल पब्लिक सर्विस कमीशन का गठन किया गया। इसी अधिनियम के अंतर्गत पहली बार प्रांतीय स्तर पर लोक सेवा आयोगों के गठन का भी प्रावधान किया गया।
- स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा ने अनुभव किया कि सिविल सेवाओं में निष्पक्ष भर्ती सुनिश्चित करने के साथ ही सेवा हितों की रक्षा के लिए संघीय एवं प्रांतीय दोनों स्तरों पर लोक सेवा आयोगों को एक सुदृढ़ और स्वायत्त स्थिति प्रदान करने की आवश्यकता है। 26 जनवरी, 1950 को नये संविधान के प्रवर्तन के साथ ही फैडरल पब्लिक सर्विस कमीशन को अनुच्छेद 315 के अधीन स्वायत्त संस्था के रूप में संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया और संघ लोक सेवा आयोग का नाम दिया गया। अनुच्छेद 315 से 323 तक आयोग के संगठन, सदस्यों की नियुक्ति एवं बर्खास्तगी, स्वतंत्रता, शक्तियों एवं कार्यों का वर्णन किया गया है।
आयोग की संरचना (Structure of Commission)
संघ लोक सेवा आयोग में एक अध्यक्ष एवं दस सदस्य होते हैं। हालाँकि यह संख्या संवैधानिक तौर पर निश्चित नहीं की गई हैं। संख्या निर्धारित करने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है। आयोग के आधे सदस्यों के लिए भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन काम करने का कम से कम 10 वर्ष का अनुभव होना चाहिए। अध्यक्ष एवं सदस्यों की सेवाशर्तें निर्धारित करने का अधिकार राष्ट्रपति को है।
पदावधि (Term)
सामान्य रूप से आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य पद ग्रहण की तारीख से 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु प्राप्ति तक (इनमें जो भी पहले हो) पदधारण करते हैं। वे किसी भी समय राष्ट्रपति को संबोधित कर त्यागपत्र दे सकते हैं। कार्यकाल से पहले भी राष्ट्रपति दव्ारा संविधान में वर्णित प्रक्रिया के माध्यम से उन्हें हटाया जा सकता है।
राष्ट्रपति, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष या सदस्यों को निम्नलिखित परिस्थितियों में हटा सकता है-
- यदि उसे दिवालिया घोषित कर दिया जाता है।
- यदि वह पदावधि के दौरान किसी अन्य वैतनिक नियोजन में लगा हो।
- यदि राष्ट्रपति ऐसा समझता हो कि वह मानसिक एवं शारीरिक अक्षमता के कारण अपने दायित्वों का निवर्हन करने में सक्षम नहीं है।
जब आयोग में अध्यक्ष का पद रिक्त हो या जब अध्यक्ष अनुपस्थिति या अन्य कारणों से अपना कार्य नहीं कर पा रहा हो, वैसी स्थिति में राष्ट्रपति कार्यवाहक अध्यक्ष की नियुक्ति कर सकता है। कार्यवाहक अध्यक्ष तब तक कार्य करता है जब तक कि नये अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हो जाती या अध्यक्ष अपना कार्य भार संभाल नहीं लेता।
इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों को दुर्व्यवहार या कदाचार के आधार पर भी हटा सकता है। परन्तु ऐसे मामलों को जाँच के लिए उच्चतम न्यायालय भेजना होता है। यदि जाँचोपरान्त उच्चतम न्यायालय हटाने का परामर्श देता है तो राष्ट्रपति अध्यक्ष एवं सदस्यों को उनके पद से हटा सकता है। इस तरह की सलाह सामान्यत: राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी होता है। कोई सदस्य कदाचार का दोषी समझा जाएगा-
- यदि वह भारत सरकार या राज्य सरकार की ओर से की गई किसी संविदा में हित बद्ध है।
- यदि वह ऐसी संविदा या करार के किसी लाभ में या उससे उद्भूत फायदे में भाग लेता है।
आयोग के कार्य (Functions of Commission)
- संघ सरकार एवं राज्य की सरकारों में नियुक्ति के लिए परीक्षा का आयोजन करना।
- नियुक्ति पद्धति से संबंधित मामलों में सलाह देना तथा प्रत्यक्ष एवं पदोन्नित के माध्यम से होने वाली नियुक्तियों में सरकार को सलाह देना।
- नियुक्ति, पदोन्नति एवं स्थानांतरण के लिए उपयुक्त व्यक्तियों के बारे में सलाह देना।
- सरकारी सेवकों को प्रभावित करने वाले अनुशासनिक (Disciplinary) मामलों में सरकार को सलाह देना।
- सरकार के अधीन सेवा के दौरान किसी व्यक्ति को हुई क्षति के दावों के संबंध में सलाह देना।
- किसी सरकारी सेवक के विरुद्ध चल रही विधिक (Legal) कार्रवाइयों के संबंध में सलाह देना।
- राष्ट्रपति दव्ारा मांगे जाने पर अन्य मामलों में सलाह देना।
- संविधान के अनुच्छेद-321 के अनुसार संघ की सेवाओं के संबंध में या किसी स्थानीय प्राधिकारी या विधि दव्ारा गठित अन्य निगमित निकाय या लोकसंस्था के संबंध में ऐसे कार्य करना, जो संसद या राज्य विधान मंडल के अधिनियम दव्ारा उपबन्धित किए जाए।
- राष्ट्रपति को प्रतिवर्ष किए गए कार्य का प्रतिवेदन देना।
- दो या दो से अधिक राज्यों के अनुरोध पर ऐसी सेवाओं के लिए जिनके लिए विशेष अर्हताओं वाले अभ्यर्थी अपेक्षित हैं, संयुक्त भर्ती की स्कीमें बनाना तथा उनका प्रवर्तन करने में उन राज्यों की सहायता करना।
- यदि किसी राज्य का राज्यपाल संघ लोक सेवा आयोग से लोकसेवा आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए कहे तो इसका प्रबंध करना।
संवैधानिक संरक्षण (Constitutional Protection)
संविधान के अनुच्छेद 310 (1) में यह प्राथमिक रूप से घोषित किया गया है कि कोई भी व्यक्ति जो संघ या राज्य के अधीन पद धारण करता है (सिविल या सैन्य) वह राष्ट्रपति या राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करेगा किन्तु सिविल सेवकों की पदावधि के संबंध में दो प्रक्रियात्मक रक्षोपायों का उपबंध किया गया है-
- कोई भी सिविल सेवक उसकी नियुक्ति करने वाले प्राधिकारी के अधीनस्थ किसी प्राधिकारी दव्ारा पदच्युत नहीं किया जाएगा। इस उपबंध का उद्देश्य सेवक को कनिष्ट रैंक के अधिकारियों की मनमानी से बचाना है।
- संविधान में यह भी प्रावधान किया गया है कि किसी भी सिविल सेवक के विरुद्ध पदच्युति का हटाया जाने का या रैंक में अवनत किए जाने का आदेश तभी दिया जा सकेगा जबकि उसके विरुद्ध आरोपों की बाबत उसे सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर दिया गया है। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि पदच्युत किया गया व्यक्ति सरकार के अधीन पुन: नियोजन के लिए अपात्र हो जाता है किन्तु हटाए गए व्यक्ति के साथ ऐसी कोई निरंर्हता नहीं होती है।
संघ लोक सेवा आयोग स्वतंत्र रूप से कार्य कर सके, इसके लिए संविधान में निम्नलिखित प्रावधान किए गए हैं-
- संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों का पदावधि की सुरक्षा प्राप्त है। इन्हें संविधान में वर्णित प्रावधानों के माध्यम से ही हटाया जा सकता है।
- अध्यक्ष एवं सदस्यों के वेतन, भत्ते एवं पेंशन आदि भारत की संचित निधि पर भारित होते हैंं संसद में इस पर मतदान नहीं होता है। अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्ति के पश्चात् इनकी सेवा शर्तों में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता।
- संघ लोक सेवा के अध्यक्ष एवं सदस्यों को सेवाकाल की समाप्ति के पश्चात् पुनर्नियुक्त नहीं किया जा सकता।
- कार्यकाल की समाप्ति के पश्चात् संघ लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन नियोजन का पात्र नहीं होता।
- संघ लोक सेवा आयोग का सदस्य, संघ लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष या किसी राज्य लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष होने का पात्र होगा। लेकिन भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन नियोजन का पात्र नहीं होगा।
- इसके अलावा निंदा, अनिवार्य सेवानिवृत्ति, सेवा से हटाना या बर्खास्त करना, प्रोन्नति रोकना, लापरवाही के कारण सरकार को हुई धनहानि की आंशिक या पूर्ण प्राप्ति, रैंक में कमी या पदावनति के मामलों में भी आयोग से सलाह ली जाती है।
संविधान के अनुच्छेद 323 के अनुसार संघ लोक सेवा आयोग प्रत्येक वर्ष अपने कार्यों की रिपोर्ट राष्ट्रपति को देता है। राष्ट्रपति इस रिपोर्ट को उन कारणों सहित जिन मामले में आयोग की सलाह नहीं मानी है, संसद के समक्ष रखवाता है। संघ लोक सेवा आयोग दव्ारा दिए गए सुझाव सलाहकारी प्रवृत्ति के होते हैं। यह केन्द्र सरकार पर निर्भर करता है कि वह इन सुझावों पर अमल करे या न करे। सरकार का मात्र उत्तरदायित्व यह है कि वह सुझाव न मानने का कारण संसद को बताए।
1964 में केंन्द्रीय सतर्कता आयोग के गठन ने अनुशासनात्मक मामलों में संघ लोक सेवा आयोग की भूमिका को प्रभावित किया हैं केन्द्र सरकार अनुशासनात्मक मामलों में दोनों से सलाह मशविरा करने लगी है और दोनों के विचारों में मतभेद होने पर समस्या उत्पन्न होने लगती है। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित नियुक्तियों के मामले में आयोग से सलाह नहीं ली जाती है-
- न्यायाधिकरणों (Tribunals) या आयोगों की अध्यक्षता एवं सदस्यता।
- उच्च राजनयिक पदों के मामले में।
- ग्रुप ‘सी’ और ‘डी’ कर्मचारियों के मामले में, जो कुल केन्द्रीय सरकारी कर्मचारियों का 80 प्रतिशत है।
भारत सरकार दव्ारा एक परंपरा विकसित की गई है कि निम्नलिखित विषयों से संबंधित मामलों में आयोग दव्ारा दी गई सलाह को सामान्यत: स्वीकार कर लिया जाता है-
- अर्द्ध न्यायिक मामले।
- नियुक्ति के लिए अभ्यार्थियों का चयन।
- पद के न्यूनतम वेतनमान की जगह किसी अभ्यार्थी की उच्च वेतनमान पर नियुक्ति करना।
- अपने कर्तव्य के निवर्हन के दौरान उसके विरुद्ध विधिक कार्यवाहियों की प्रतिरक्षा में उसके दव्ारा व्यय की अदायगी के संबंध में।