महान सुधारक (Great Reformers – Part 33)

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पंडिता रमाबाई:-

प्रख्यात विदुषी समाजसुधारक और भारतीय नारियों को उनकी पिछड़ी हुई स्थिति से ऊपर उठाने के लिए समर्पित पंडिता रमाबाई का जन्म 5 अप्रैल, 1858 ई. में मैसूर रियासत में हुआ था। उनके पिता ‘अनंत शास्त्री’ विदव्ान और स्त्री -शिक्षा के समर्थक थे। रमाबाई असाधारण प्रतिभावना थी। अपने पिता से संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त करके 12 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने 20 हजारश्लोक कंठस्थ कर लिए थे। देशाटन के कारण मराठी के साथ-साथ कन्नड़, हिन्दी तथा बांग्ला भाषाएँ भी सीख लीं। संस्कृत ज्ञान के लिए रमाबाई को सरस्वती और पंडिता की उपाधियां प्राप्त हुई तभी से वे पंडिता रमाबाई के नाम से जानी गई।

22 वर्ष की उम्र में रमाबाई कोलकाता पहुँची। उन्होंने बाल विधवाओं की दयनीय दशा सुधारने का बीड़ा उठाया। उनके संस्कृत ज्ञान और भाषाणों से बंगाल के समाज में हलचल मच गई। भाई की मृत्यु के बाद रमाबाई ने ‘विपिन बिहारी’ नामक अछूत जाति के एक वकील से विवाह किया, परन्तु हैजे की बीमारी में वह भी चल बसी अछूत से विवाह करने कारण रमाबाई को कट्‌टरपंथियों के आक्रोश का सामना करना पड़ा और वह पूना आकर स्त्री-शिक्षा के काम में लग गई। उनकी स्थापित संस्था आर्य महिला समाज की शीघ्र ही महाराष्ट्र भर में शाखाएँ खुल गई।

अंग्रेजी भाषा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए पंडिता रमाबाई 1883 इ. में इंग्लैंड गई। वहाँ दो वर्ष तक संस्कृत की प्रोफेसर (प्राध्यापक) रहने के बाद वे अमेरिका पहुँची। उन्होंने इंग्लैंड ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। अमेरिका में उनके प्रयत्न से रमाबाई एसोसिएशन (सभा) बना जिसने भारत के विधवा आश्रम का 10 वर्ष तक खर्च चलाने का जिम्मा लिया। इसके बाद वे 1889 में भारत लौटी और विधवाओं के लिए शारदा सदन की स्थापना की। बाद में कृपा सदन नामक एक और महिला आश्रम बनाया।

पंडिता रमाबाई के इन आश्रमों में अनाथ और पीड़ित महिलाओं को ऐसी शिक्षा दी जाती थी जिससे वे स्वयं अपनी जीविका उपार्जित कर सके। पंडिता रमाबाई का जीवन इस बात का प्रमाण है कि यदि व्यक्ति दृढ़ निश्चय कर ले तो गरीबी, अभाव, दुर्दशा की स्थिति पर विजय प्राप्त करके वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है। उनकी सफलता का रहस्य था- प्रतिकूल परिस्थितियों में साहस के साथ संघर्ष करते रहना। 5 अप्रैल, 1922 ई. को पंडिता रमाबाई का देहांत हो गया।

पाडुरंग शास्त्री आठवले:-

पांडुरंग शास्त्री आठवले (19 अक्टूबर, 1920 - 25 अक्टूबर, 2003) भारत के दार्शनिक, आध्यात्मिक गुरु तथा समाज सुधारक थे। उनको प्राय: दादाजी के नाम से जाना जाता है जिसका मराठी में अर्थ ‘बड़े भाई साहब’ होता है। उन्होंने 1954 में स्वाध्याय आंदोलन चलाया और स्वाध्याय परिवार की स्थापना की। स्वाध्याय आंदोलन भागवत गीता पर आत्म-ज्ञान का आंदोलन है जो भारत के एक लाख गाँवो में फैला हुआ है और इसके लगभग पाँच लाख सदस्य हैं। दादाजी श्रीमद भागवत गीता एवं उपनिषदों पर अपने प्रचवन के लिये प्रसिद्ध थे। उनके साामजिक कार्यो की जमीन गुजरात और महाराष्ट्र की रही।

उन्हें 1997 में धर्म के क्षेत्र मे उन्नति के लिये टेम्पल्टन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1999 में उन्हें सामुदायिक नेतृत्व के लिये मैग्सेस पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उसी वर्ष भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया।

पांडुरंग जी ने लोगों को अध्यात्मक के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी। उनका मूल मंत्र था-भक्ति ही शक्ति है। वे कहते थे कि हर मनुष्य के हृदय में भगवान बैठा है। यदि इस ईश्वरीय उपस्थिति को आप खुद में ही नहीं, दूसरों में भी महससू करें तो दुष्कर्मों से स्वत: ही छुटकारा मिल जाएगा। इस मोटी-सी बात को वे बहुत ही प्रभावशाली तर्को, दृष्टांतों और अपने आचरण से सिद्ध करते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत के पश्चिमी तट पर बसे लोगों के जीवन में गुणात्मक परविर्तन आने लगा। उनके निधन से राष्ट्र के एक महान मनीषी, वक्ता और कर्मयोगी का अवसान हो गया।