महत्वपूर्ण राजनीतिक दर्शन Part-19: Important Political Philosophies for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.

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ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या के अंतर्गत मार्क्स कि इतिहास की कुछ अवस्थाएँ

  • ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या के अंतर्गत मार्क्स ने इतिहास की कुछ अवस्थाओं का जिक्र किया है। उसका दावा है कि दुनिया का हर समाज इन्हीं अवस्थाओं से होकर गुजरता है। ये अवस्थाएँ इस प्रकार हैं-
  • आदिम साम्यवाद- यह सामाजिक जीवन की शुरुआत का समय है जब न तो निजी संपत्ति की धारणा थी और ही शोषण। सभी मनुष्य सामुदायिक जीवन जीते थे और उनमें बेहद प्राथमिक किस्म का श्रम विभाजन था। इस समय जीवन अत्यंत कष्टपूर्ण था क्योंकि मनुष्य को प्राकृतिक शक्तियों तथा पशुओं से हर समय खतरा रहता था और मूलभूत जरूरतें पूरी करने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता था।
  • दास व्यवस्था- यह मानवीय सभ्यता का सबसे बुरा दौर था क्योंकि इसमें शोषक वर्ग ने निम्नवर्ग के मनुष्यों को संपत्ति ही बना लिया था। दास और मालिक इस समय के दो वर्ग थे। दास मालिकों की निजी संपत्ति थी जिनके साथ कुछ भी करना वैध था। यहाँ तक कि दासों को अपनी संतान का अधिकार भी नहीं था। रोम तथा टवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू यूटन आदि।
  • सामंतवाद- कृषि अर्थव्यवस्था की शुरुआत के साथ ही सामंतवाद का उदय हुआ और इसमें दो वर्ग बने सामंत तथा कृषक। कृषकों को दासों की तुलना में ज्यादा अधिकार प्राप्त थे किन्तु उन्हें बेगार करनी पड़ती थी और युद्ध होने पर सैनिक सेवा भी देनी होती थी। यह व्यवस्था यूरोप के लगभग सभी देशों में विकसित हुई।
  • पूंजीवाद- औद्योगिक क्रांति के साथ ही पूंजीवाद का उदय हुआ जिसमें पूंंजीपति (बुर्जुआ) तथा मजदूर (सर्वहारा) दो वर्ग बने। इसमें मजदूरों को अनुबंध की स्वतंत्रता दी गई। सैद्धांतिक तौर पर इस व्यवस्था में उन्हें बेगार नहीं करनी पड़ती है किन्तु राज्य की अहस्तक्षेप नीति तथा मांग पूर्ति के कठोर नियम के कारण मजदूरों की स्थिति बेहद दयनीय बनी रहती है। मार्क्स का विश्वास है कि पूंजीवाद में मजदूरों में एकता और वर्ग चेतना तेजी से फैलती है और इसी के चरम स्तर पर दुनिया के सभी मजदूर विश्वव्यापी हिंसक क्रांति करके समाजवाद की स्थापना करेंगे।
  • समाजवाद-समाजवाद पूंजीवाद के तुरंत बाद की स्थिति है जिसे ‘सर्वहारा तानाशाही’ भी कहा गया है। इस अवस्था में राज्य तो रहता है किन्तु वह जनसाधारण के पक्ष में होता है। निजी संपत्ति की धारणा खत्म हो जाती है। धर्म को मानना निषिद्ध हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति क्षमता के अनुसार कार्य करता है और उसे कार्य के अनुसार उपलब्धियाँ मिलती हैं।
  • साम्यवाद-साम्यवाद अंतिम अवस्था है जिसे मार्क्स का ‘यूटोपिया’ या ‘स्वप्नलोक’ भी कहते हैं। यह समाजवाद का अगला स्वाभाविक चरण है जहाँ राज्य लुप्त हो जाता है, धर्म मानवीय चेतना से हट जाता है। इस अवस्था में न ‘शोषण’ रहता है न ‘राष्ट्र’ , न ‘विवाह’ या ‘परिवार’ और न ही किसी प्रकार का ‘अलगाव’ या ‘अजनबीपन’ । प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता और रुचि के अनुसार कार्य करता है तथा उसे जरूरत के अनुसार उपलब्धियाँ मिलती हैं।
  • मार्क्स के दर्शन में ‘अलगाव’ या ‘अजनबीपन’ का सिद्धांत भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इसी के माध्यम से मार्क्स ने मानव की रचनात्मक प्रवृत्ति तथा पूंजीवाद के कारण उस पर उत्पन्न हुए संकटों की व्याख्या की है। इस सिद्धांत को मार्क्स ने अपने आरंभिक लेखों में 1844 में प्रस्तुत किया था। आजकल ‘नवमार्क्सवाद’ के समर्थक इस धारणा पर विशेष जोर देते हैं।
  • मार्क्स की मान्यता है कि मनुष्य मूलत: रचनात्मक या सृजनात्मक प्राणाी है और उसकी रचनात्मक कार्य के माध्यम से व्यक्त होती है। जब व्यक्ति कार्य करता है तो उसे न केवल रचनात्मक कार्य करने का संतोष प्राप्त होता है बल्कि समाज के प्रति उत्तरदायित्व को निभाने का आनंद भी मिलता है। किन्तु, जब मनुष्य को रचनात्मक संतोष मिलना बंद हो जाता है तो वह अलगाव का शिकार होता है। पूंजीवाद में मजदूर चार प्रकार के अलगाव का शिकार होता है-
  • अपने कार्य से अलगाव क्योंकि विशेषीकरण के कारण उसे हमेशा एक जैसा उबाऊ काम करना पड़ता है और उसमें उसकी सृजनात्मकता व्यक्त नहीं हो पाती।
  • उत्पाद से अलगाव क्योंकि उत्पाद के भविष्य पर मजदूर का कोई नियंत्रण नहीं होता।
  • समाज से अलगाव क्योंकि उसके सामाजिक संबंध मानवीय आधारों पर नहीं बल्कि मांग-पूर्ति जैसे कठोर तथा मशीनी (यंत्र) नियमों से तय होते हैं।
  • अपनी मानव प्रकृति से अलगाव क्योंकि यंत्र की तरह काम करते-करते मजदूर खुद भी यंत्र बनकर अपनी सृजनात्मकता को भूल जाता है।

मार्क्स के अनुसार अलगाव की समाप्ति साम्यवाद में होती है। साम्यवाद में वर्ग विभेद न होने के कारण कोई शोषण नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति को सृजनात्मक स्वतंत्रता उपलब्ध होती है और वह अपनी रुचियों और क्षमताओं के अनुसार कार्य करता है, न कि बाज़ार के दबावों के अनुसार।