ब्रिटिश सरकार की प्रशासनिक एवं सैन्य नीतियाँ (Administrative and Military Policies of British Government) Part 3 for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.

Get top class preparation for CTET-Hindi/Paper-2 right from your home: get questions, notes, tests, video lectures and more- for all subjects of CTET-Hindi/Paper-2.

सिविल सेवा का विकास ~NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.: ब्रिटिश सरकार की प्रशासनिक एवं सैन्य नीतियाँ (Administrative and Military Policies of British Government) Part 3

कार्नवालिस को भारत में नागरिक सेवा का जन्मदाता माना जाता है। वह 1786 ई. में भारत का गवर्नर (राज्यपाल) बनकर आया। उस समय प्रशासन में व्यापक भ्रष्टाचार एवं घूसखोरी फैली हुयी थी। क्लाइव एवं वारेन हेंस्टंग्स इसे दूर करने में असफल रहे थे। परन्तु कार्नवालिस इन बुराइयों को दूर करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ था। उसने निजी व्यापार और अफसरों दव्ारा नजराने एवं घूस लेने के खिलाफ सख्त कानून बनाए। उसके अतिरिक्त अफसरों के वेतन भी बढ़ा दिए तथा जिलें में कुल राजस्व रकम की वसूली का एक प्रतिशत देना भी तय हुआ। प्रोन्नति वरिष्ठता के आधार पर दिए जाने का भी प्रावधान किया गया। लॉर्ड वेलेज्ली ने 1800 ई. में अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए कलकता में फोर्ट विलियम महाविद्यालय खोला जिसे 1806 ई. में इंग्लैंड के हैलोबरी में स्थानांतरित कर दिया गया।

1853 ई. के चार्टर (राज-पत्र) एक्ट (अधिनियम) के दव्ारा नागरिक सेवा की सारी नियुक्तियाँ प्रतियोगी परीक्षा के दव्ारा किए जाने का प्रावधान किया गया। इससे पहले सारी नियुक्तियाँ ईस्ट (पूर्व) इंडिया (भारत) कंपनी (संघ) के निर्देशक दव्ारा किया जाता था। ब्रिटिश नागरिक सेवा की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि इससे भारतीयों को अलग रखने का भरपूर प्रयास किया गया। 1993 ई. के एक निर्णय के अनुसार 500 पौंड सालाना से अधिक वेतन पाने वाले पद पर केवल अंग्रेज ही नियुक्त किये जा सकते थे। यह नियम सरकार की शाखाओं में लागू किया गया था। इस नीति के पालन करने की जड़ में दो बाते थी एक यह कि अंग्रेजों को यह विश्वास था कि उनके विचार एवं नीतियों को सिर्फ अंग्रेज ही लागू कर सकते हैं तथा दूसरा, उन्हें भारतीयों की योग्यता पर विश्वास नहीं था। कार्नवालिस का यह कथन कि “हिन्दुस्तान का हर निवासी भ्रष्ट हैं” केवल उसकी संकुचित प्रतिक्रियात्मक एवं पंक्षपातपूर्ण नजरिये को ही जाहिर करता है। अगर यह कथन भारतीयों पर लागू होता था, तो इससे ज्यादा यह अंग्रेजों पर लागू होता था, क्योंकि अंग्रेज अफसरों में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए ही कार्नविलास ने उनके वेतनों में वृद्धि की थी।

1853 ई. के बाद से नागरिक सेवाओं में नियुक्ति के लिए लंदन में खुली प्रतियोगिता आयोजित की जाने लगी। इसमें भारतीयों को भी बैठने का अधिकार प्रदान किया गया। 1863 ई. में सत्येन्द्र नाथ टैगोर इस परीक्षाा में सफल होने वाले प्रथम भारतीय बने। इस सेवा में भारतीयों की संख्या नगण्य ही रही। प्रथमत: यह परीक्षा ग्रीक एवं लैटिन ज्ञान पर आधारित थी एवं अंग्रेजी इसका माध्यम थी। इसके अतिरिक्त इस परीक्षा में बैठने की आयु भी कम थी। यह 1859 ई. में 23 वर्ष थी जिसे घटाकर 1875 ई. में 19 वर्ष कर दिया गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपनी स्थापना के बाद से ही आयु बढ़ाने की मांग तथा इस परीक्षा को लंदन की बजाए भारत में कराने की मांग कर रही थी।

विभिन्न उपायों दव्ारा अंग्रेजों का यही प्रयास रहा कि प्रशासन में भारतीयों को कम-से-कम प्रतिनिधित्व दिया जाए। 1918 में भारतीय दबाव में प्रशासन का भारतीयकरण प्रारंभ हुआ। फिर भी स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। अगर कुछ भारतीय इस सेवा में आए भी तो वे मात्र ब्रिटिश शासन में एक एजेंट (कार्यकर्त्ता) के रूप में एवं उनके वफादार सेवक के रूप में ही रहे। परन्तु 1930 के बाद के दशक में इस सेवा के स्वरूप में बदलाव आने लगा। बढ़ता राष्ट्रीय आंदोलन अंग्रेजों को इस सेवा में आने से हतोत्साहित करने लगा। 1939 तक तो स्थिति यह बन गई कि इस सेवा से जुड़े भारतीयों की संख्या 50 प्रतिशत हो गई। प्रशासन के स्वरूप में बदलाव दृष्टिगोचर होने लगे थे। ये भारतीय नौकरशाह अब भारतीय पुट लिए हुए ब्रिटिश शासन के प्रति ईमानदार बने हुए थे।