व्यक्तित्व एवं विचार (Personality and Thought) Part 3 for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.

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गांधी और राजनीति ~NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.: व्यक्तित्व एवं विचार (Personality and Thought) Part 3

महात्मा गांधी के राजनीतिक जीवन का प्रारंभ 1893 से माना जाना चाहिए, जब वे एक भारतीय के केस (प्रकरण) की पैरवरी करने के लिए दक्षिण अफ्रीका पहुंचे। वहां उन्होंने रंगभेद का जो अन्याय देखा उसके विरुद्ध उन्होंने अवाज उठायी, कई यातनाएं रहने के बावजूद भी वे संघर्षरत रहे और उन्होंने एक महानवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू सफलता तब हासिल की जब उन्होंने एक बिल को, जिसके दव्ारा दक्षिण अफ्रीका के काले लोगों को निर्वाचित प्रक्रिया से वंचित किया जा रहा था, लार्ड रिपन दव्ारा रद्द करवा दिया। वहीं उन्होंने “नटाल (जन्म संबंधी) इंडियन (भारतीय) कांग्रेस” की स्थापना की। इसी संस्था के माध्यम से उन्होंने कई अन्यायपूर्ण कानूनों की खिलाफत की। वे 1914 तक दक्षिण अफ्रिका में रहे और 1915 में भारत वापस आ गए।

1917 में वे बिहार गए और चंपारण सत्याग्रह की शुरूआत की। चंपारन जिले के लोगों को नील की खेती करने के लिए मजबूर किया जाता था और उनकी अपनी पैदावार सस्ते दामों पर बेचनी पड़ती थी। गांधी ने मजिस्ट्रेट (न्यायाधीश) की आज्ञा के विरुद्ध, इस अन्याय की कड़ी आलोचना की। कई प्रयत्नों के बाद गांधी को सफलता मिली और नील उत्पादन-संबंधी कानून रद्द करवा दिया। यह गांधी की भारत में पहली विजय थी।

चंपारन से वे अहमदाबाद चले गए, जहां के मिल-मजदूरों को उनकी सहायता की आवश्यकता थी। मिल-मजदूर अपने वेतन में वृद्धि चाहते थे। भरसक प्रयत्न के बावजूद भी गांधी यह कार्य नहीं करा सके। सात दिन की हड़ताल हुई। गांधीजी ने अनशन का भी सहारा लिया। अंत में गांधी को लगा कि शायद मजदूर ही उनकी पूरी सहायता नहीं कर रहे हैं और यहां का आंदोलन इस प्रकार असफल रहा।

अहमदाबाद के बाद गांधी खेड़ा (गुजरात) पहुंचे। वहां अकाल की भयंकर स्थिति थी। गांधी ने सरकार से कर माफ करने की अपील की। सरकार ने जब उनकी बात नहीं सुनी तो उन्होंने किसानों से सत्याग्रह करवा दिया और अंत में किसानों की विजय हुई।

जब प्रथम विश्वयुद्ध की शुरूआत हुई, गांधी ने कई नेताओं की राय के विरुद्ध, अंग्रेजी-सरकार की मदद करने की घोषणा की और कहा कि इस वक्त सरकार बुरी स्थिति में हैं, इसलिए हमें उसकी सहायता करनी चाहिए। सरकार ने इस महान आदर्श का जवाब रौलट एक्ट (अधिनियम) के रूप में दिया। यह एक्ट भारत विरोधी था। इसकी खिलाफत गांधी के सत्याग्रह के माध्यम से की। 1914 से 1919 तक यह संघर्ष चलता रहा, दिल्ली आदि स्थानों पर आंदोलन किए गए, सरकार के हिंसा के माध्यम से इस आंदोलन को दबाने का प्रयास किया और गांधी जी को कारावास की सजा दे दी गयी।

गांधी की गिरफ्तारी से सारा देश संतप्त हो उठा। दूसरी ओर रौलट एक्ट के खिलाफ आंदोलन जारी ही था। पंजाब में इन दो विषयों पर सबसे अधिक रोष था। लोग, गांधी के रोकने पर भी हिंसा पर उतर आये और कई अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया गया। इसी वक्त 1919 की बैशाखी के दिन जलियावाला बाग में एक आम सभा हुई। जनरल डायर ने इस सभा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया और कई सिपाहियों को लेकर जिसमें हिन्दुस्तानी भी थे, उसने गोली चलाने का हुक्म दे दिया, लोगों को भागने तक का मौका नहीं दिया गया। हजारों लोग इस कांड मेंं मार डाले गए।

इस कांड से देश में व्यापक रोष फैल गया। 1920 में गांधीजी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन की शुरूआत हो गयी। स्वदेशी आंदोलन भी जोर पकड़ता गया। लोगों ने कानून तोड़ना शुरू कर दिया, ऑनरेरी (माननीय) डिग्रियां (उपाधि) लौटा दी गई। काफी हद तक यह आंदोलन शांतिपूर्ण रहा किन्तु अंग्रेजों ने अपने दमनकारी नीति को चालू रखा, कई लोगों को पीटा गया, कई लोग जेल भेज दिये गए। 1922 में कुछ लोगों ने अत्यंत रुष्ट होकर चौरीचौरा में एक पुलिस चौकी पर आग लगा दी। गांधी इस काम से असहमत थे। उन्होंने हिंसा की आलोचना की और आंदोलन वापस ले लिया।

इसके बाद कुछ ही समय के बाद गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरूआत कर दी। 1929 में साइमन कमीशन भारत भेजा गया किन्तु कांग्रेस ने इसका बहिष्कार किया। इसी वक्त लाला लाजपत राय पर लाठियों का प्रहार हुआ और कुछ ही समय बाद उनका देहांत हो गया, इससे गांधी जी को बड़ा धक्का लगा।

सनवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू 1929 में पं. नेहरू की अध्यक्षता में “पूर्ण स्वराज्य” का प्रस्ताव पारित हो गया, इसी वक्त नमक कानून को तोड़ने का काम शुरू हुआ। गांधी और पटेल ने लंबी-लंबी यात्रायें कीं। लोगों ने उनका स्वागत किया और सारे देश में स्वाधीनता की ललक व्याप्त हो गयी। मुस्लिम लीग ने इस आंदोलन में भाग नहीं लिया किन्तु खान अब्दुल गफ्फार खां गांधी के साथ रहे। यह आंदोलन 1930 तक बड़े जोर-शोर से चला। अंत में लार्ड इरविन के अनुरोध पर गांधी जी ने गोलमेज सम्मेलन में भाग लेना स्वीकार कर लिया और सविनय अवज्ञा आंदोलन समाप्त कर देने की घोषणा की।

गोलमेज सम्मेलन से भी कुछ न हासिल हो सका। सांप्रदायिकता का वातावरण तथा आम्बेडकर का हरजिनों को स्वतंत्र मानने की जिद, इस असफलता के मुख्य कारण थे। 1932 में एक बार फिर सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ। किन्तु अधिक सफलता न मिलने के कारण 1934 में गांधी ने पूरी तौर पर इस आंदोलन को समाप्त कर दिया। इस असफलता के पीछे हरिजन समस्या की मुख्य भूमिका रही। सांप्रदायिक पंचाट के विरुद्ध, जिसमें हरिजनों को पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया गया था, गांधीजी ने आंदोलन किया। कुछ शांति स्थापित हो सकी जब पूना समझौता हुआ।

कुछ ही वर्षो बाद दव्तीय महायुद्ध की शुरूआत हो गयी। गांधीजी व्यक्तिगत रूप से इस बार भी यही चाहते थे कि अंग्रेजों की सहायता की जाए। किन्तु कांग्रेस को यह मंजूर नहीं था। युद्ध के दौरान कई प्रकार से भारत का तिरस्कृत किया गया। 1940 में गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू कर दिया, कई लोगों ने गांधी का साथ दिया। किन्तु बाद में कुछ राजनीतिक कारणों से इस सत्याग्रह को भी बंद कर दिया गया।

सनवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू 1942 में भारत की समस्याओं का अध्ययन करने क्रिप्स मिशन आया। क्रिप्स मिशन की सभी बातें भारत को अमान्य थीं इसलिए उसके तुरन्त बाद “भारत छोड़ो” आंदोलन की शुरूआत कर दी गयी। यह आंदोलन “करो या मरो” के सिद्धांत पर चलाया गया। 1942 में अंग्रेजों के खिलाफ तोड़-फोड़ की कार्यवाहियां हुई और अंग्रेज समझने लगे कि अब शायद आंदोलन को दबाना मुश्किल होगा।

यह आंदोलन स्वरूप बदल कर 1946 तक चलता रहा। अंत में 15 अगस्त, 1947 को भारत को एक स्वतंत्र देश घोषित कर दिया गया।

गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन की भूमिका का यह एक अत्यन्त संक्षिप्त इतिहास है। इसकी चर्चा इसलिए कर दी गयी है कि गांधी के राजनीतिक विचारों को समझने में कुछ सहायता मिले।

इस आंदोलन में गांधी जी ने जिस भूमिका का निर्वाह किया उसकी मुख्य विशेषता थी उनकी अहिंसा की गौलिक-धारणा। वे यह प्रयत्न करते रहे कि इस आंदोलन को पूर्णतया अहिंसा के आधार पर चलाया जाए। उन्हें सहायता भी मिली। दो व्यवधान ऐसे थे जिनकी वजह से वे पूर्णतया सफल नहीं हो सके: एक व्यवधान था हिन्दू-मुस्लिम एकता का न होना और दूसरा व्यवधान था कतिपय लोगों का हिन्दू समाज को विघटित करने का प्रयास इन दोनों व्यवधानों के भयंकर परिणाम हो सकते थे। गांधी जी ने इस बात को गहराई से महसूस किया। यही कारण है कि वे कई बार अपने ही दव्ारा चलाये आंदोलनों को वापस ले लेते थे, वे भारत के लोगों की एकता खंडित कर कोई काम नहीं करना चाहते थे, दूसरी ओर वे उन सिद्धांतों को भी नहीं छोड़ना चाहते थे जिन पर उनका विरोध कायम था। वे अहिंसा के मार्ग को त्यागने के लिए तैयार नहीं थे।

ऊपर चर्चित घटनाओं के आधार पर अब हम गांधी के राजनीतिक सिद्धांतों का सही आकलन कर सकते हैं।

सर्वप्रथम यह समझ लेना चाहिए कि गांधी के अनुसार राजनीति कोई स्वतंत्र व्यापार नहीं है। राजनीति जीवन का एक अंग है और जीवन की मान्यताएं और मूल्य राजनीतिक क्षेत्र में भी लागू होते हैं। मनुष्य का अंतिम लक्ष्य है: धर्माचरण और राजनीति भी इसी के अनुरूप होनी चाहिए। राज्य के समस्त कार्यकलाप चाहे वे सामाजिक हों अथवा आर्थिक, धर्म नैतिकता के अनुरूप ही होने चाहिए। उन्होंने कई बार कहा कि अगर पाखंड और मारधाड़ से ही स्वतंत्रता मिलती हो तो ऐसी स्वतंत्रता मुझे नहीं चाहिए। उन्होंने कहा “हम अंग्रेजों के खिलाफ नहीं, उनकी नीतियों के खिलाफ है” । इस प्रकार गांधी के अनुसार राजनीति धर्म की अनुगामिनी है। जिस राजनीति को आजकल “पावर (शक्ति) पॉलिटिक्स” (राजनीतिक) कहा जाता है, वह गांधी के विचार में अनैतिक व्यवहार है, उसको बेईमानी के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता।

गांधी को कई लोगों ने अराजकतावादी चिंतक कहा है। यह बात किसी हद तक सच है। गांधी ने अवश्य कहा था कि आदर्शवादी राज्य वह राज्य है जहां दंड व्यवस्था की आवश्यकता ही न पड़े। उनकी राजनीतिक कल्पना “राम-राज्य” की थी। राम-राज्य में राम अधिनायक या “डिक्टेटर” (तानाशाह) नहीं थे, ′ वे समस्त राज्य के प्रतीक थे, वे शासन-मात्र नहीं करते थे, स्वयं भी शासित थे। उनके दव्ारा राज्य का परित्याग इसी भावना का उदाहरण है। मानव के नैतिक विकास में जब रामराज्य की स्थिति आती है तो दंड विधान को संचालित करने वाली राजसत्ता की आवश्यकता स्वत: ही समाप्त हो जाती है। यदि हम इस विचार को अराजकतावादी विचार कहा जाए तो गांधी को उन अन्य अराजकतावादियों की श्रेणी से अलग करना पड़ेगा जो अराजकतावादी है और नैतिक मूल्यों की परवाह नहीं करते। ऐसे व्यक्तियों के चिंतन में, नैतिकता अथवा अहिंसा का कोई स्थान नहीं है। ऐसे चिंतक व्यक्ति को पूर्ण आजादी प्रदान करते हैं और व्यवस्थित सामाजिक आचरण की परवाह नहीं करते। गांधी राजनीतिक शक्ति के दुरुप्रयोग के विरोधी थे। उन्होंने राज्य को हमेशा के लिए समाप्त कर देने की बात नहीं की।

गांधीजी की राजनीतिक धारणाओं का मूल आधार था “सर्वोदय” । यह कहना गलत होगा कि सर्वोदय की समस्त मान्यताएं गांधी ने रस्किन की पुस्तक “अन्टू द लास्ट” से ग्रहण की। वे इस पुस्तक से बहुत प्रभावित हुए किन्तु इस दिशा में उनका चिंतन पहले से ही जारी था। उनके विचारों को इससे बल अवश्य मिला।

“सर्वोदय” क्या है? सर्वोदय का अर्थ है सब की समान उन्नति। एक व्यक्ति का भी उतना ही महत्व है जितना अन्य व्यक्तियों का सामूहिक रूप से है। सर्वोदय का सिद्धांत गांधी ने बेन्थम तथा मिल के उपयोगितावाद के विरोध में प्रतिस्थापित किया। उनका “ग्रेटेस्ट (महानतम) गुड (अच्छा) आफ (के) दि (यह) ग्रेटेस्ट (महानतम) नंबर (संख्या) ” का सिद्धांत गांधी जी को अत्यंत अरुचिकर लगा। वे तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के पक्षपाती थे। जिस राज्य में एक भी व्यक्ति भूखा है वह आदर्श राज्य नहीं है, चाहे उसमें रहने वाले ज्यादातर लोग कितने ही सुखी क्यों न हों। उपयोगितावाद को उन्होंने भौतिकवाद का पर्याय माना। उन्होंने कहा कि किसी भी समाज की प्रगति उसकी धन-संपति से नहीं मापी जा सकती, उसकी प्रगति तो उसके नैतिक-चरित्र से आंकी जानी चाहिए। जिस प्रकार इंग्लैंड में रस्किल तथा कार्लाइल ने उपयोगितावादियों का विरोध किया उसी प्रकार गांधी ने मार्क्स से प्रभावित उन लोगों के विचारों का खंडन किया जो भारतीय समाज को एक औद्योगिक समाज में बदलना चाहते थे। इसी बिन्दु पर गांधी तथा नेहरू में पारस्परिक मतभेद हो गया था। स्वतंत्रता के बाद किसकी बात ज्यादा प्रासंगिक लगती है, इसका निर्णय हर व्यक्ति को स्वयं करना चाहिए।

गांधी का सर्वोदय का सिद्धांत, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सिद्धांत पर आधारित है। इसके विपरीत “राज्य” की परिकल्पना दंड के सिद्धांत पर की गयी है। राज्य की सत्ता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अपहरण करती है। इस संदर्भ में गांधी को अराजकतावादी चिंतक कहा जा सकता है। एक साक्षात्कार के समय गांधी ने अपने विचारों को इस प्रकार प्रकट किया: “राज्य की शक्ति में वृद्धि को मैं सबसे अधिक भय की दृष्टि से देखता हँूं क्योंकि यद्यपि वह शोषण को कम करके भलाई करते हुए दिखायी पड़ती है, तथापित व्यक्तित्व का विनाश करके जो कि समस्त प्रगतियों का मूल है, मानव-जाति को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाती है, राज्य हिंसा का संघटित और संगठित रूप है। व्यक्ति की एक आत्मा होती है परन्तु राज्य एक आत्महीन यंत्र हैं, इसे हिंसा से कभी अलग नहीं किया जा सकता जिसके कारण इसका जन्म हुआ है।”

इस अराजकतावादी विचार के माध्यम से फिर भारत की स्वतंत्रता का क्या अर्थ हो सकता है? गांधी स्वराज्य क्यों चाहते थे? गांधी के मतानुसार “स्वराज्य” किसी राज्य की संस्थापना नहीं है बल्कि एक ऐसे समाज की संरचना है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के आधार पर स्थापित हो। उनका यह सिद्धांत पश्चिम के अराजकतादियों के सिद्धांत से भिन्न है। पश्चिम के अराजकतावादी राज्य को इसलिए समाप्त करना चाहते हैं क्योंकि इससे आर्थिक विषमता आती है और पूंजीवाद की स्थापना होती है। गांधी का राज्य-विरोध नैतिकता के सिद्धांत पर आधारित है, वे राज्य को विनाशकारी इसलिए मानते हैं क्योंकि इसके दव्ारा व्यक्ति की आत्मा का हनन होता है, उसकी आध्यात्मिक शक्तियां विनिष्ट हो जाती हैं और वह स्वच्छंद वातावरण में अपना व्यक्तिगत विकास नहीं कर सकता। उनके तर्क का एक दूसरा पहलू भी हैं। वे राज्य को न केवल हिंसा पर आधारित संगठन मानते हैं बल्कि इसकी राजनीतिक आवश्यकता को भी नकारते हैंं। वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जिसमें हर व्यक्ति स्वशासित है और उसको किसी बाह्य शक्ति के अस्तित्व की आवश्यकता ही नहीं हैं। उनका कहना था कि यदि हम ऐसे आदर्शवादी समाज की स्थापना नहीं कर पाये हैं, तो राज्य इसमें भी हमारी सहायता नहीं कर सकेगा। इस समय अगर किसी ऐसी बाह्य सत्ता की आवश्यकता मान भी ली जाए तो हमें प्रयत्न यही करना है कि अंततोगत्व एक राज्यहीन समाज की स्थापना हो जाए, इसका साधन भी उन्होंने सुझाया है। वे विकेन्द्रीकरण को इस प्रक्रिया का मुख्य साधन मानते हैं। इस व्यवस्था की व्याख्या करते हुए श्री जे. पी. सूद ने लिखा है: “अब हम पूर्ण अहिंसा पर आधारित एक आदर्श राज्यहीन समाज की रूपरेखा पर दृष्टिपात कर सकते हैं। इसमें ग्रामों में बसे हुए समूह होंगे जिनमें गौरवपूर्ण तथा शांतिमय जीवन का आधार स्वेच्छापूर्ण सहयोग होगा। प्रत्येक ग्राम एक गणराज्य अथवा एक पंचायत होगा जिसके पास अपनी प्राय: समस्त मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने, यहांँ तक कि अपनी रक्षा करने तक की पूर्ण सामर्थ्य होगी। इस अहिंसात्मक समाज में जीवन का ढांचा पिरामिड जैसा नहीं होगा जैसा कि आधुनिक राज्य होता है। यह एक ऐसा वृत्त होगा जिसका केन्द्र व्यक्ति होगा जो कि ग्राम के लिए अपने आप को बलिदान करने के लिए तैयार रहेगा और ग्राम-ग्राम -वृत के लिए मिटने को तैयार रहेगा और इस प्रकार ‘वसुधैव कुटुम्बकमवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू’ के आदर्श की प्राप्ति हो जाएगी, सबसे बाहर की परिधि, आंतरिक वृत्त को कुचलने के लिए अपने शक्ति का प्रयोग नहीं करेगी, बल्कि अपने अंतर्गत सबको शक्ति प्रदान करेगी। इस सामाजिक व्यवस्था की मुख्य विशेषता होगी व्यक्तिगत स्वतंत्रता। इसलिए इसको लोकतंत्र का आदर्श रूप कहा जा सकता है” ।

कभी-कभी यह मान लिया जाता है कि चूंकि गांधी जी अराकतावाद के समर्थक थे, इसलिए उनका विश्वास लोकतंत्र की व्यवस्था में भी नहीं था। यह सच है कि वे किसी भी राज्य व्यवस्था चाहे वह लोकतंत्र ही क्यों न हो -के विरोधी थे, किन्तु वे यह भी जानते थे कि देश में अभी वह स्थिति नहीं है जिसमें पूर्णरूपेण राज्यहीनता का सिद्धांत लागू किया जा सके। इसलिए उन्होंने थोरो के इस सिद्धांत को अपनी सहमति दी कि सबसे अच्छी सरकार वह है जो सबसे कम शासन करती है। ऐसी सरकार केवल लोकतांत्रिक सरकार ही हो सकती है। शायद गांधी जी एक ऐसे लोकतंत्र की कल्पना कर रहे थे जिसमें हिंसा कम-से-कम हो। ऐसी सरकार जनमत से निर्वाचित सरकार ही हो सकती है जो संसदीय लोकतंत्र के सिद्धांतों पर चले।

गांधीजी व्यक्तिवादी थे, और व्यक्ति की स्वतंत्रता को हर दृष्टि से अनिवार्य मानते थे। किन्तु व्यक्ति का आचरण कैसा हो, इस पर भी उन्होंने अपने विचार प्रकट किए हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं है कि हर व्यक्ति अपनी स्वार्थपूर्ण भावना की पूर्ति के लिए जैसा चाहे वैसा व्यवहार करे। हर व्यक्ति के लिए स्वशासित होना अनिवार्य हैं बिना इसके हम जंगल के जानवरों की स्थिति में आ जाएंगे। उन्होंने हमेशा अनुशासन के महत्व पर जोर दिया। अनुशासन की भावना कैसे उत्पन्न की जाए? इस विषय में भी उनके अपने अलग विचार हैं। वे व्यक्ति के अधिकारों को उनके कर्तव्यों से जोड़ कर देखते हैं। नेहरू जब भी गांधी की बात करते थे उनकी इस आस्था का उद्धरण अवश्य देते थे। गांधी के अनुसार कर्तव्य परायणता धर्म की आधारशिला है। बिना कर्तव्यों के पालन के व्यक्तिगत स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जिस प्रकार साध्य और साधन दोनों की पवित्रता तभी सिद्ध होती है जब इसका प्रयोग करने वाला व्यक्ति अपने कर्तव्यों का समुचित पालन करे।

अगर हम गांधी के राजनीतिक विचारों का समुचित अवलोकन करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वे भारत के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित “रामराज्य” के सिद्धांत के अनुयायी थे। उनके सिद्धांतों की तुलना पश्चिम के अराजकतावादियों से करना तर्क-संगत नहीं है। दोनों पक्षों के विचारों में समानता हो सकती है और है भी, किन्तु दोनों में अंतर भी बहुत है। गांधी की मूल धारणा आध्यात्मिक है जबकि पश्चिम के चिंतकों की मूल भावना भौतिकवादी है। इसलिए वे अपने आदर्श को किसी तर्क के सूत्र में बांधना नहीं चाहते थे। उन्होंने स्वयं कहा है “जब समाज स्वेच्छा से अहिंसा के नियम के अनुसार निर्मित किया जाता है, उसकी संरचना आज के समाज से भिन्न तत्वों पर होगी, किन्तु मैं यह अग्रिम रूप से नहीं कह सकता कि पूर्णत: अहिंसा पर आधारित शासन कैसा होगा” । स्पष्ट है कि गांधी के राजनीतिक आदर्श किसी शास्त्रीय पद्धति के आधार पर नहीं बने हैं। उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि उनकी राजनीतिक मान्यताएं पूर्णतया हर परिस्थिति में व्यावहारिक हैं। उनका कहना तो सिर्फ इतना ही था कि हमारी दृष्टि, चाहे वह राजनीति के क्षेत्र में ही क्यों न हो, सत्य के आधार पर स्थित होनी चाहिए। आध्यात्मिक मूल्यों का मोल-भाव नहीं हो सकता। जो सत्य है वह सही है, सत्य की स्थापना अव्यावहारिक प्रतीत हो सकती है क्योंकि हम यथार्थ के बहुत आदी हो चुके हैं। हर स्थिति में हमकों ऐसा लगता है कि यथार्थ ही शायद सत्य और व्यावहारिक है, सही बात यह नहीं है। गांधी का कहना था कि हम अपनी यथार्थ की गलत अवधारणाओं से सनातन मूल्यों को चुनौती नहीं दे सकते। राजनीतिक मानव जीवन के बाहर की वस्तु नहीं है। इसका संचालन मानव मूल्यों की परिधि के बाहर नहीं किया जा सकता चाहे हम जिस “वाद” या सिद्धांत की बात करे। हमें स्मरण रखना होगा कि हम शाश्वत सत्यों की अवहेलना नहीं कर सकते। हिंसा अमानवीय है इसलिए राज्य जिसकी सत्ता हिंसा पर टिकी है, अमानवीय है इसकी सत्ता की अनिवार्यता वहीं तक स्वीकार की जा सकती है जहांँ तक यह आध्यात्मिक सत्यों के प्रतिकूल न हो।

संक्षेप में यह कहना चाहिए कि गांधी का मुख्य ध्येय था राजनीति का आध्यात्मीकरण। कभी-कभी वे इस प्रकार की बातें कर दिया करते थे कि उनके अनुयायी भी इस संदेह में पड़ जाते थे कि क्या गांधी की बात जो इतनी अव्यावहारिक है, मानने योग्य है? वे किसी भी यथार्थ के दबाव में आध्यात्मिक मूल्यों को ताक में नहीं रख सकते थे। यही कारण है कि समय-समय पर तिलक, सुभाष चन्द्र बोस, अंबेडकर, यहां तक कि नेहरू से भी उनका मत -वैभिन्य हो जाता था। ऐसे अवसर पर वे अत्यंत स्थितप्रज्ञ भाव से स्वीकार कर लेते थे कि उनका मत इनसे भिन्न है। यहांँ तक कहते थे कि वे सच हैं या अन्य लोग- इसका फैसला भविष्य पर छोड़ दिया जाए और तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए मतभेद को जनता के सम्मुख रख दिया जाए। किन्तु उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि उनकी राजनीतिक सूझबूझ और लोगों से अधिक परिपक्व है। वे तो अपने को एक साधारण व्यक्ति मानते थे। उनका कहना सिर्फ इतना था कि जो कदम आध्यात्मिक मूल्यों के विपरीत दिशा में जाएगा उसका समर्थन वे नहीं कर सकेंगे। अपनी आस्थाओं के खिलाफ उन्होंने कभी समझौता नहीं किया, चाहे वे धार्मिक सिद्धांत हों, सामाजिक सिद्धांत हों अथवा राजनीतिक सिद्धांत हों। उनके समस्त राजनीतिक जीवन की कहानी उनके “सत्य के प्रयोगो” पर आधारित है।