समाज एवं धर्म सुधार आंदोलन (Society and Religion Reform Movement) Part 4 for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.

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शिक्षा तथा साहित्य

19वीं सदी में नया चिंतन अथवा पुनर्जागरण और अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार में घनिष्ठ संबंध है। बंगाल में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार में कलकता के हिन्दु महाविद्यालय का योगदान अत्यधिक है। राजा राममोहन राय का हिन्दु महाविद्यालय की स्थापना में कोई हाथ नहीं था। राजा राममोहन राय ने अंग्रेजी शिक्षा के समर्थन में 1823 ई. में लार्ड एमहर्स्ट को एक मेमोरेंडम (ज्ञापन) दिया उनका यह समर्थन उल्लेखनीय है क्योंकि धार्मिक क्षेत्र में वे वेदांत तथा उपनिषदों के पठन-पाठन पर बल दे रहे थे। अंतत: सरकार ने अंग्रेजी शिक्षा को प्रश्रय देना स्वीकार किया, इसलिए भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार में राममोहन का योगदान रहा। 1830 ई. में इंग्लैंड जाने के पूर्व राममोहन ने एक विद्यालय के लिए भवन दिलवाने में एलेक्जेंडर डफ की विशेष सहायता की।

बांग्ला साहित्य के विकास में राममोहन का काफी योगदान है। उनसे पूर्व ही बांग्ला गद्य साहित्य का विकास हो चुका था। उन्होंने वेदांत और उपनिषदों का बांग्ला में अनुवाद किया और पाठवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू य-पुस्तकों के अतिरिक्त पहली बार गद्य साहित्य को प्रोत्साहन दिया। दिसंबर 1821 ई. में उन्होंने ′ संवाद कौमुदी ′ नामक एक साप्ताहिक पत्रिका प्रकाशित करना आरंभ कर दिया था - ′ दिग्दर्शन, समाचारदर्पण, बांग्ला गजट। समाचारदर्पण 30 वर्षों से अधिक समय तक प्रकाशित होती रही। इन तीनों पत्रिकाओं से राममोहन का संबंध नहीं था।

राजनीतिक चिंतन

राममोहन स्वतंत्रता प्रेमी थे, लेकिन उनका स्वातंत्र्य प्रेम दार्शनिक स्तर पर था। भारत के संदर्भ में वे अंग्रेजी राज्य को ईश्वर की देन समझते थे। उन्हें अंग्रेजी पर अटूट विश्वास था। वे अंग्रेजों का भारतीयों के साथ अधिक संपर्क भारतीयों के हित में समझते थे। अंग्रेज नील प्लांटरो का भारत आगमन में भारतीयों के लिए लाभदायक समझते थे। उनका विचार था कि जितने अधिक अंग्रेज भारत में आकर बसेंगे उतनी ही भारतवासियों की भलाई होगी।

राजा राममोहन राय अपने स्वातंत्र्य प्रेम और अंग्रेजी अधीनता में कोई विरोधाभास अनुभव नहीं करते थे। वह स्पेन के नियंत्रण से दक्षिण अमरीकी उपनिवेशों की मुक्ति पर हर्ष व्यक्त करके भी भारत पर अंग्रेजी अधिकार को उचित ठहरा सकते थे। किन्तु वे अंग्रेजी सरकार की अनुचित नीति की आलोचना करने में जरा भी संकोच नहीं करते थे। 1823 ई. के प्रेस (मुद्रण यंत्र) अध्यादेश अथवा 1827 ई. के जूरी एक्ट (अधिनियम) की उन्होंने काफी आलोचना की। लेकिन उनकी इस आलोचना ने कोई संस्थागत अथवा व्यावहारिक रूप धारण नहीं किया।

राममोहन ने विभिन्न क्षेत्रों में कार्य किए। उन्हें किसी एक क्षेत्र में अग्रदूत कहना कठिन है। समाज सुधार, शिक्षा, पत्रकारिता, साहित्य के क्षेत्र में उनके पूर्वगामी अन्य व्यक्ति रहे थे, अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति अथवा हिन्दु जाति की प्राचीन उपलब्धियों के प्रति जो दृष्टिकोण राममोहन का था। संभवत: 19वीं सदी के आरंभ में उससे भिन्न होना कठिन था। उनके व्यक्तित्व की महानता इस बात में है कि वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव किए जा रहे परिवर्तनों को एक साथ रखकर एक नई चेतना का सूत्रपात किया। वास्तव में उस अंधकार के युग में चेतना का विस्तार करना सबसे बड़ा कार्य था और इसी कारण उन्हें सामाजिक सुधारों का अग्रदूत कहा जाता है। राममोहन ने विभिन्न क्षेत्रों में नई प्रवृत्तियों का समर्थन किया। ब्रह्य समाज का कालांतर में जो रूप विकसित हुआ वह राममोहन के चिंतन से भिन्न था। सामाजिक क्षेत्र में राममोहन का सर्वाधिक बड़ा योगदान सती क्षेत्र में ही था।

ब्रह्य समाज आंदोलन का प्रभाव

ब्रह्य समाज आंदोलन का प्रभाव अत्यंत दूरगामी था। महाराष्ट्र में आत्माराम पांडुरंग दव्ारा चलाया गया प्रार्थना समाज का आंदोलन वस्तुत: इसी आंदोलन के आदर्शों से अभिप्रेरित था। प्रार्थना समाज का कालांतर में नेतृत्व महादेव गोविन्द राणाडे दव्ारा किया गया। महादेव गोविन्द राणाडे महाराष्ट्र के क्षेत्र में अग्रणी समाज सुधारक थे। सर्वप्रथम इन्होंने समाज सुधार को एक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा एवं ऑल (पूरे) इंडिया (भारत) रिलिजियस (धार्मिक) कांग्रेस आयोजित करवाया। इसी क्षेत्र में गोपाल हरि देशमुख, जिन्हें लोक हितवादी कहा गया समाज सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहे थे। डेक्कन ऐजुकेशनल (शिक्षात्मक) सोसायटी (समाज) भी एक अन्य प्रमुख संस्था थी। जिसके नेता जी. जी. अगारकर ने अपनी संस्कृति के उपयुक्त गौरव गायन की बात रखी।

आंध्रप्रदेश के क्षेत्र में भी ब्रह्य समाज की विचारधारा का व्यापक प्रभाव पड़ा। वहाँ वीरशलिंगमवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू पन्तुलु ने विधवा विवाह की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया एवं राजमुन्दरी में विधवाओं के लिए आश्रम की व्यवस्था की।

स्वयं बंगाल के क्षेत्र ब्रह्य समाज की विचारधारा को अलग-अलग रूपों में प्रसारित करने का कार्य जारी रहा। ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह को विधिक मान्यता दिलवाने में सफलता प्राप्त की। 1850 का विधवा पुनर्विवाह अधिनियम राजा राममोहन राय के प्रयत्नों की सकरात्मक परिणति के रूप में आया, जिसका प्रारंभ उन्होंने सती निषेध हेतु प्रयत्न से किया था।