Science and Technology: Technologies of Biotechnology and Genetic Engineering

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जैव प्रौद्योगिकी की तकनीकें (Technologies of Biotechnology)

जीन अभियांत्रिकी (Genetic Engineering)

  • जीन, किसी भी जीव की आनुवांशिक इकाई है। जीन ही किसी जीव के समस्त लक्षणों को निर्धारित एवं नियंत्रित करता है। जीन दव्ारा किसी भी जीव के लक्षणों को नियंत्रित करना डी. एन. ए. में विद्यमान नाइट्रोजन के क्षारों के अनुक्रम पर निर्भर करता है, और अगर क्षारों के इस अनुक्रम में किसी प्रकार का परिवर्तन हो जाए, या कर दिया जाए तो उस जीव के समस्त लक्षणों में परिवर्तन हो जाएगा।
  • जीन अभियांत्रिकी वस्तुत: एक तकनीक हैं- जिसके अंतर्गत किसी जीव के किसी विशेष लक्षण अथवा लक्षणों में वांछित सुधार लाने के उद्देश्य से उस विशेष लक्षण अथवा लक्षणों को नियंत्रित करने वाले जीन में कृत्रिम तरीके से परिवर्तन किया जाता है। इस प्रकार जीन इंजीनियरिंग तकनीक के माध्यम से किसी जीव में वांछित लक्षणों को प्राप्त किया जा सकता है।
  • जीन अभियांत्रिकी का एक महत्वपूर्ण एवं प्रत्यक्ष लाभ यह है कि इसकी सहायता से असाध्य एवं आनुवांशिक बीमारियों का निराकरण किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इसके माध्यम से पशुओं की अधिक उत्पादक एवं उपयोगी नस्लों का विकास भी संभव है। वर्तमान समय में जीन अभियांत्रिकी का उपयोग मुख्य रूप से एडस, हृदय से संबंधित रोगों, मलेरिया, हीमोफीलिया एवं अन्य घातक बीमारियों आदि के लिए वैक्सीन निर्माण में किया जा रहा है।

पुनर्संयोजी डी. एन. ए. तकनीक (Recombinant DNA Technology)

जीन अभियांत्रिकी के अंतर्गत जीवों का संकरण, संलयन, प्रतिलोपन, विलोपन एवं पक्षांतरण किया जाता है। उपयरोक्त सभी प्रक्रियाओं में सबसे महत्वपूर्ण जीन का संकरण है, जिसे पुनर्संयोजी डी. एन. ए. तकनीक (Recombinant DNA Technology) कहा जाता हैं। इस तकनीक के अंतर्गत किसी एक जीव के डी. एन. ए. को किसी अन्य जीव के डी. एन. ए. के साथ रोपित करके ऐच्छिक गुणों वाले जीन प्राप्त किए जाते हैं। इसके लिए सबसे पहले किसी जीव के डी. एन. ए. को स्थानांतरित करने के लिए प्रोटीनेज एंजाइम (बायो सेंसर) की मदद से डी. एन. ए. को काटा जाता है तथा डी. एन. ए. के कटे हुए भाग में वांछित गुणों वाले जीन को जोड़ दिया जाता है। इस तरह जीवों के आनुवांशिक आधार पर परिवर्तन या संशोधन हो जाने की वजह से उनकी आकृति एवं आकार के साथ-साथ मूलभूत गुणों में भी अंतर आ जा जाता है। इस तरह की तकनीक से पूर्णत: नए जीवों का सृजन किया जाना भी संभव हो गया है। इस तकनीक के तहत जीनों को विलगित एवं परिष्कृत करने के पश्चात्‌ जीन के अंश को एक जीव से निकालकर दूसरे जीव में स्थानांतरित कर दिया जाता है।

पुनर्संयोजी डी. एन. ए. तकनीक में तीन विधियों को अपनाया जाता है-

  • रूपांतरण (Transformation)
  • पराक्रमण (Transduction)
  • प्लास्मिड (Plasmid)

रूपांतरण (Transformation) विधि में कोशिका, ऊतक या जीव किसी विलगित डी. एन. ए. अंश पर संकेतक के रूप में विद्यमान रहते हैं। जबकि पराक्रम (Transduction) विधि में डी. एन. ए. अंश फेग (Phage) के माध्यम से एक कोशिका से दूसरी कोशिका में मिल जाता है। इसके अतिरिक्त प्लास्मिड (Plasmid) जीवाणु में पाए जाने वाले ऐसे अतिरिक्त क्रोमोजोनल डी. एन. ए. तत्व हैं जिन पर केवल लिंग भेद एवं ‘प्रति जैव रोधी जीन’ होते हैं। प्लास्मिड के दव्ारा होने वाले स्थानांतरण हेतु दो एंजाइम की आवश्यकता होती है-प्रतिरोधी एंडोन्यूक्लिएज तथा लिगासेज।

जहाँ प्रतिरोधी एंडोन्यूक्लियूज प्लास्मिड एंव दाता (Donor) जीव के डी. एन. ए. अणु को विशिष्ट बिन्दुओं पर तोड़ देता है, वहीं लिगासेज इन्हीं टूटे हुए सिरों पर नए डी. एन. ए. अंशो को स्थायी रूप से जोड़ने का कार्य करता है। इस तरह से प्राप्त किये गये नवीन संकर प्लास्मिड को जीवाणु में डालने के उपरांत जीवाणु कोशिका विभाजित हो जाती है, और साथ ही प्लास्मिड भी विभाजित होकर बहुगुणित हो जाता है।

पुनर्संयोजी डी. एन. ए. तकनीक के लाभ (Advantages of Recombinant DNA Technology)

पुनर्संयोजी डी. एन. ए. तकनीक ने मानव के लिए उपयोगी अनुसंधान के रास्ते खोल दिए हैं। सर्वप्रथम इस तकनीक का उपयोग इंटरफेरॉन, हार्मोन एवं इन्सुलिन जैसे चिकित्सकीय प्रोटीन के उत्पादन में किया गया। इसके अतिरिक्त इस तकनीक का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग वांछित टीकों के निर्माण में भी किया जा सकेगा। यद्यपि अच्छे, सस्ते एवं सुरक्षित टीके प्राप्त करना हमेशा से एक प्रमुख समस्या रही है, लेकिन डी. एन. ए. पुनर्संयोजी तकनीक के माध्यम से अपेक्षाकृत अधिक स्थायी एवं सुरक्षित टीके प्राप्त किए जा सकते हैं। इस तकनीक के अंतर्गत किसी जीव के वांछित गुण वाले जीन को निकालकर उसे उपयुक्त तरीके से संयोजित करके एशोरिकिया कोलाई (Escherichia Coli) जीवाणु में प्रविष्ट कराके इच्छित प्रतिरक्षी (Antibody) प्राप्त किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त डी. एन. ए. पुनर्संयोजी तकनीक के माध्यम से एक बड़ी मात्रा में प्रोटीन का उत्पादन भी किया जा सकता हैं पुनर्संयोजी डी. एन. ए. तकनीक से इंटरफेरॉन नामक प्रतिरोधक प्रोटीन प्राप्त करने में भी सफलता प्राप्त हुई है। इंटरफेरॉन मानव शरीर दव्ारा निर्मित शक्तिशाली प्रतिविषाणुकारक एजेंट के रूप में कार्य करता है।

डी. एन. ए. फिंगरप्रिंटिंग (DNA Finger Printing)

  • आनुवांशिक स्तर पर लोगों की पहचान सुनिश्चित करने की तकनीक को ही डी. एन. ए. फ्रिंगरप्रिंटिंग या डी. एन. ए. प्रोफाइलिंग कहते हैं। वस्तुत: यह एक जैविक तकनीक है, जिसके अंतर्गत किसी व्यक्ति के विभिन्न अवयवों-रुधिर, बाल, लार, वीर्य या अन्य कोशिका स्रोतों की सहायता से उसके डी. एन. ए. की पहचान सुनिश्चित की जाती हैं
  • यह तकनीक मुख्यत: इस आधार पर कार्य करती है कि प्रत्येक मानव में पाई जाने वाली डी. एन. ए. पुनरावृत्ति (DNA Replication) एक समान नहीं होती है, अर्थात प्रत्येक व्यक्ति का डी. एन. ए. प्रारूप एक अदव्तीय प्रारूप होता है।
  • डी. एन. ए. फिंगर प्रिंटिंग विधि के अंतर्गत पहचान करने के लिए दो नमूने (उपरोक्त बताए गए अवयवों में से) लिए जाते हैं- एक विवादित बच्चे अथवा संदिग्ध व्यक्ति का और दूसरा उसके माता-पिता या किसी नजदीकी संबंधी (रक्त संबंधी) का। विदित है कि मात्र श्वेत रक्त कणिकाओं (WBDs) में डी. एन. ए. पाया जाता है, जबकि लाल रक्त कणिकाओं (RBCs) में डी. एन. ए. नहीं पाया जाता है।
  • इस तरह पहचान के लिए इकट्‌ठे किए गए नमूनों से प्राप्त डी. एन. ए. को रेस्ट्रिक्शन एंजाइम दव्ारा काटकर उसकी साउदर्न ब्लॉटिंग (Southern Blotting) की जाती है। इसी प्रक्रिया में डी. एन. ए. बैंडस ब्लॉटिंग की झिल्ली के ऊपर दिखने लगते हैं। इसके पश्चात्‌ इन्हें पी. डी. एन. ए. (P-DNA) प्रोब से संकरित किया जाता हैं और इस प्रक्रिया में असंकरित रहे डी. एन. ए. को पृथक करने के लिए इसे पानी से धुलकर एक्स-रे से होकर गुजारा जाता हैं। एक्स-रे से गुजरने के दौरान संकरित पूरक डी. एन. ए. श्रेणियों की छाप आ जाती है। इस तरह से अगर पहचान हेतु लिए गए दोनों ही नमूनों की डी. एन. ए. श्रेणियाँ एक समान छाप जोड़ती हैं तो डी. एन. ए. परीक्षण के पोजिटव प्राप्त होने की पुष्टि कर दी जाती है।

डी. एन. ए. फिंगर प्रिंटिग तकनीक के उपयोग (Uses of DNA Finger Printing Technology)

डी. एन. ए. तकनीक निम्नलिखित विषयों के संबंध में अत्यंत उपयोगी एवं कारगर समझी जाती है-

  • पैतृक संपत्ति से संबंधित विवादों को सुलझाने के लिए।
  • आनुवांशिक बीमारियों की पहचान एवं उनसे संबंधित चिकित्सकीय कार्यों के लिए।
  • बच्चो के वास्तविक माता-पिता की पहचान के लिए।
  • आपराधिक गतिविधियों से संबंधित गुत्थियों को सुलझाने के लिए।
  • शवों की पहचान करने के लिए।

डी. एन. ए. फिंगर प्रिंटिंग की सीमाएँ (Limitations of DNA Finger Printing)

  • डी. एन. ए. फिंगर प्रिंटिंग तकनीक में एक मुख्य समस्या यह है कि नमूना सरलता से विनिष्ट हो सकता है। जेनेटिक जंक के सूक्ष्मतम कण डीएन. ए. नमूनों को संक्रमित कर उन्हें अनुपयोगी बना सकते हैं। हालांकि डी. एन. ए. फिंगर प्रिंटिंग को कार्य करने के लिए एक उपर्युक्त नमूने की आवश्यकता होती है फिर भी पीसीआर नामक एक नवीन तकनीक के उपयोग से इस समस्या का हल निकाला जा सकता है। पीसीआर डी. एन. ए. के बेहद सूक्ष्म नमूनों का इस्तेमाल कर सकता है और त्वरित परिणाम दे सकता है।
  • परन्तु पीसीआर दव्ारा उपयोग किये गये डी. एन. ए. नमूने भी अपने आकार के कारण संक्रमित हो सकते हैं, क्योंकि संक्रमण की असंभाव्यता से युक्त छोटे नमूने प्राप्त होना बहुत मुश्किल होता है। डी. एन. ए. फिंगर प्रिंटिंग की एक अन्य सीमा यह है कि इसकी प्रक्रिया अत्यधिक जटिल होने के कारण डी. एन. ए. पैटर्न को पढ़ने में असहजता होती है और वजह से कभी-कभी अदृश्य सा साक्ष्य ही प्राप्त हो पाता है।
  • हालाँकि डी. एन. ए. फिंगर प्रिंटिंग एक अति उन्नत तकनीक है लेकिन अभी भी इसमें कुछ अवरोध हैं। उदाहरणस्वरूप डी. एन. ए. फिंगर प्रिंटिंग यह सुनिश्चित नहीं करता है कि क्या रोग का वाहक जन्तु है? साथ ही डी. एन. ए. फिंगर प्रिंटिंग जन्तुओं में संकरण दर्शाने में असमर्थ है कि वंशावली में पश्च रूप में (Backwards) कार्य करने के दौरान दव्तीय या तृतीय पीढ़ी की संकर प्रजाति की खोज जल्द ही संभव हो सकती है, लेकिन वर्तमान में यह असंभव है।