Science and Technology: Applications of Genetic Engineering

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जैव प्रौद्योगिकी (Bio Technology)

आनुवांशिक अभियांत्रिकी (Genetic Engineering)

  • कृत्रिम रूप से किसी जीव की आनुवांशिक संरचना में उपस्थित जीनों में किये जाने वाले किसी भी प्रकार के परिवर्तन को आनुवांशिक अभियांत्रिकी कहते हैं। ऐसी अभियांत्रिकी का उद्देश्य जीन संरचना में इच्छानुसार परिवर्तन करना है। इस तकनीक का उपयोग कई क्षेत्रों में किया जाता है जिनमें हारमोन एवं एन्जाइम संश्लेषण, इन्टरफेरॉन का निर्माण तथा रोगों के उपचार के तरीको का विकास महत्वपूर्ण हैं। इसे कई अवसरों पर डी. एन. ए. पुनर्सयोंजी तकनीक (Recombinant DNA Technology) भी कहा गया है।
  • सूक्ष्म जीवों, प्रौधों अथवा जन्तुओं की कोशिकाओं से डी. एन. ए. का पृथकीकरण किया जाता है। इसके उपरांत, उसमें उपस्थिति नाइट्रोजन के क्षारों के अनुक्रम में परिवर्तन कर उसे किसी जीव की कोशिका में प्रवेश कराया जाता है तथा जीव की प्रतिक्रिया के आधार पर अध्ययन किया जाता है।

आनुवांशिक अभियांत्रिकी के अनुप्रयोग (Applications of Genetic Engineering)

जैसा कि हम जानते हैं, आनुवांशिक अभियांत्रिकी को डी. एन. ए. पुनर्संयोजी तकनीक भी कहा जाता है। यह किसी जीव की आनुवांशिक संरचना में किसी भी प्रकार कृत्रिम परिवर्तन की तकनीक है। कई अवसरों पर जीन अथवा आनुवाशिंक अभियांत्रिकी को जैव प्रौद्योगिकी का पर्याय भी कहा जाता है। हाल के वर्षों में आनुवांशिक अभियांत्रिकी के अनुप्रयोगों का व्यापक विस्तार हुआ है। व्यावसायिक दृष्टि से इसका अनुप्रयोग चिकित्सा, कृषि तथा उद्योग में किया जा रहा है। इस तकनीक के कुछ महत्वपूर्ण अनुप्रयोगों का संक्षिप्त उल्लेख यहां किया गया है:

हारमोन संश्लेषण (Synthesis of Homes)

  • इन्सुलिन (Insulin) : इन्सुलिन नामक हारमोन का स्राव प्राकृतिक रूप से अग्नाशय (Pancreas) में पाई जाने वाली लैंगरहैंस की दव्पिकाओं (Islets of Langerhans) से होता है। इसका कार्य रक्त में शर्करा की मात्रा को कम करना है। इसके लिए इसके दव्ारा शर्करा (ग्लूकोज) को ग्लाइकोजेन में परिवर्तित किया जाता है। रासायनिक रूप से इन्सुलिन में दो पॉलिपेप्टाइड श्रृंखलाएं होती हैं। जैव प्रौद्योगिकीय विधि से इन्सुलिन का निर्माण चिकित्सकीय प्रोटीन के रूप में मानव जीन अनुक्रम में परिवर्तन कर बनाया जाने वाला पहला प्रोटीन है। इस कृत्रिम इन्सुलिन को ह्‌यूमुलिन (Humulin) कहते हैं। वर्ष 1982 में इसे व्यावसायिक रूप से प्रयोग में लाया गया था।
  • सोमैटोट्रॉपिन (Somatotropin) : प्राकृतिक रूप से सोमैटोट्रॉपिन अथवा सोमैटोट्रॉपिक हारमोन अथवा वृद्धि हारमोन का स्राव पीयूष ग्रंथि (Pituitary Gland) दव्ारा होता है। जीन क्लोनिंग विधि दव्ारा इसे कृत्रिम तरीके से भी बनाया गया है। इसमें कुल 191 अमीनो अम्ल पाये जाते हैं। इसके स्राव में कमी से बौनापन होता है। न्यूमार्क, 1991 (Newmark, 1991) के अनुसार, इश्चेरिशिया कोलाई (Escherichia coli) नामक जीवाणु की एक कोशिका से लगभग 100,000 हारमोन अणु प्राप्त किये जा सकते हैं।
  • सोमैटोस्टैटिन (Somatostain) : इस हारमोन का संश्लेषण मस्तिष्क में पाई जाने वाली हाइपोथैलामस नामक संरचना से होता है। ईटाकुरा एवं अन्य (Itakura et. al.) ने 1977 में कहा था कि ई. कोलाई नामक जीवाणु की कोशिका से निर्मित पहला पॉलिपेप्टाइड वस्तुत: एक युग्म पेप्टाइड था जो वृद्धि हारमोन, इन्सुलिन तथा ग्लूकागॉन जैसे हारमोन के स्राव के लिए उत्तरदायी है।
  • बीटा-एंडॉरफिन (b-endorphin) : यह एक वृद्धि हारमोन है जो ई. कोलाई नामक जीवाणु में अभिव्यक्त होता है। रासायनिक रूप से इसमें कुल 30 अमीनो अम्ल पाये जाते हैं।
  • इन्टरफेरॉन (Interferon) : रासायनिक रूप से ये ग्लाइकोप्रोटीन होते हैं जिनका मुख्य कार्य शरीर को विषाणुओं के संक्रमण से बचाना है। ये शरीर की प्राकृतिक प्रतिरक्षा प्रणाली को सुदृढ़ बनाने के लिए भी उत्तरदायी हैं। नये अध्ययनों से यह भी स्पष्ट है कि इनमें कैंसर को नियंत्रित करने की भी क्षमता होती है। मानव शरीर में तीन प्रकार के इन्टरफेरॉन की पहचान की गई है:-
    • अल्फा इन्टरफेरॉन () अथवा ल्यूकोसाइट, इन्टरफेरॉन
    • बीटा इन्टरफेरॉन (B-IFN) अथवा फाइब्रोब्लास्ट इन्टरफेरॉन
    • गामा इन्टरफेरॉन (Y-IFN) अथवा इम्यून इन्टरफेरॉन

इनमें से ई. कोलाई नामक जीवाणु से अल्फा तथा बीटा इन्टरफेरॉन का निर्माण जीन अभियांत्रिकी विधियों दव्ारा किया जा चुका है।

  • लिम्फोकाईनिन (Lymphokinin) : लसिकाणुओं (Lymphocytes) दव्ारा इनका निर्माण किया जाता है। रासायनिक रूप से ये प्रोटीन होते हैं। लसिकाणु एक प्रकार के श्वेत रक्त कण हैं जिनका मुख्य कार्य शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली का सुदृढ़ीकरण है। इनमें कैंसर जैसे रोगों का विरोध करने तथा प्रतिरक्षा प्रणाली के पुनरूदव्ार की भी क्षमता होती है। इस संबंध में इन्टरल्यूकिन (Interleukin-II) का उदाहरण उल्लेखनीय है। इसका निर्माण जीन अभियांत्रिकी विधियों दव्ारा किया जा सकता है।

टीके (Vaccines)

मानव अथवा जन्तुओं में संक्रमण का विरोध करने की क्षमता विकसित करने के उद्देश्य से मृत जीवों अथवा जीवित लेकिन निष्क्रिय सूक्ष्म जीवों से प्राप्त रासायनिक पदार्थों को टीका कहते हैं। इन टीकों की सफलता उनकी प्रकृति पर निर्भर करती है। हाल के वर्षों में डी. एन. ए. पुनर्संयोजी तकनीक की सहायता से कई प्रकार के टीकों का निर्माण किया गया है।

  • यकृत शोथ बी विषाणु (Hepatitis B Virus) : मानव में विषाणु-जनित रोगों में यकृत शोध अत्यंत महत्वपूर्ण है। तकनीकी रूप से इस विषाणु में तीन प्रकार के प्रतिजीनी प्रोटीन की पहचान की गई है। इन्हें हिपेटाइटिस बी सरफेस एन्टीजेन (HBsAg) , वायरल कोर एन्टीजेन (HBcAg) तथा ई-एन्टीजेन (HBeAg) । इस प्रकार का टीका भारत दव्ारा इस तकनीक के पहले प्रयोग से बनाया गया था। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद भी डीएनस पुनर्संयोजी तकनीक से टीकों के निर्माण को प्रोत्साहित कर रहा है। भारत में प्रधानमंत्री दव्ारा निर्देशित एक विज्ञान मिशन का कार्यान्वयन किया जा रहा है जिसके अन्तर्गत हैजा तपेदिक तथा रेबीज जैसे रोगों के लिए टीकों के निर्माण को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
  • रेबीज विषाणु (Rabies Virus) : रेबीज से संक्रमित कोशिकाओं में पाये जाने वाले विषाणु प्रोटीन से एम. आर. एन. ए प्राप्त करने के प्रयास किये जा रहे है। ई-कोलाई नामक जीवाणु से विषाणु के ग्लाइकोप्रोटीन आवरण को प्राप्त कर लिया गया है।
  • पोलियो विषाणु (Polio Virus) : हांलाकि पोलियो विषाणु की आनुवांशिक सरंचना का विस्तृत अध्ययन किया जा चुका है लेकिन अब तक जीन अभियांत्रिकी की विधियों से इसके टीके का निर्माण संभव नहीं हो सका है।

हाइब्रिडोमा तकनीक (Hybridoma Technology)

  • इस तकनीक दव्ारा अति विशिष्ट गुणों वाले तथा असाधारण शुद्धता वाले मोनोक्लोनल प्रतिरक्षियों (Monoclonal Antibodies) का निर्माण किया जाता है। ये प्रतिरक्षी अत्यंत प्रभावकारी तरीके से विषाणुओं के संक्रमण का विरोध करने में सक्षम हैं। इसी कारण इनके अनुप्रयोगों की संख्या अत्यधिक है। हाइब्रिडोमा तकनीक में एक ऐसी कोशिका का निर्माण किया जाता है जिसमें प्रतिरक्षी निर्माण करने वाली कोशिका तथा एक मायलोमा कोशिका का संकरण होता है। मायलोमा कोशिका अस्थि मज्जा में पाई जाती है तथा इसका निर्माण रक्त निर्माण के क्रम में होता है। प्रायोगिक तौर पर यह देखा गया है कि किसी स्तनपायी के शरीर में लगभग 100 मिलियन प्रतिरक्षियों का निर्माण होता है।
  • वर्ष 1984 में सीजर मिलस्टीन (Cesar Milstein) तथा जार्ज कोहलर (George Kohler) ने यह सिद्ध किया कि बी-लसिकाणु (B-lymphocyte) तथा मायलोमा कोशिका के संकरण से मोनोक्लोनल प्रतिरक्षी का निर्माण होता है।

संकरण से बनने वाली नई कोशिका में एक ओर जहां प्रतिरक्षी निर्माण की क्षमता बनी रहती है वहीं दूसरी ओर, यह कोशिका विभाजन भी करने में सक्षम होती है। हाइब्रिडोमा तकनीक के अनुप्रयोगों में निम्नांकित प्रमुख हैं:

  • रक्त समूहों, कैंसर, गर्भावस्था तथा एलर्जी की पहचान करने में।
  • अंग प्रत्यारोपण।
  • ट्‌यूमर के उपचार में।
  • इन्टरफेरॉन के शुद्धिकरण मेंं
    • वैक्सीफ्लू-एस (Vaxiflu-s) : भारत में निर्मित (Vaxiflu-s) एक इंफ्लूएंजा (HINI) निरोधक टीका है। अहमदाबाद स्थित जाइडस-कैडिला कंपनी के टीका प्रौद्योगिकी केन्द्र में इसका निर्माण किया गया है। इस टीके के प्रयोग से व्यक्ति एक वर्ष तक (HINI) विषाणु के विरुद्ध प्रतिरोधक बना रहता है। इसका निर्माण मुर्गी के अंडे से किया गया हैं।
    • तपेदिक का जीनोम मानचित्रण: अप्रैल, 2010 में भारतीय वैज्ञानिकों ने तपेदिक के जीवाणु का प्रथम विस्तृत जीनोम मानचित्रण विकसित करने में सफलता प्राप्त की। उल्लेखनीय है कि तपेदिक नामक रोग (Microbeaum Tuberculosis) दव्ारा होता है।