Science and Technology: Problems of Optical Fibre and Wireless Communication

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संचार प्रौद्योगिकी (Communication Technology)

तार सहित संचार (Wired Communication)

प्रकाशीय तंतु की समस्याएँ (Problems of Optical Fibre)

  • प्रकाशीय तंतु अति शुद्ध काँच के बनाये जाते है जिनकी उपलब्धता तो विरल होती ही है, साथ ही उनका रख-रखाव भी चुनौतीपूर्ण होता है।
  • इन तंतुओं के माध्यम से संचार-व्यवस्था कायम करने के लिए अत्यधिक सावधानी तथा दक्षता की जरूरत होती है क्योंकि यह व्यवस्था आंतरिक प्रकृति में काफी जटिल है। हजारों संकेतों के समानान्तर संचरण के कारण इस प्रणाली में उच्च प्रबंधन क्षमता की आवश्यकता पड़ती है। वर्तमान संचार व्यवस्था में प्रकाशीय तंतु का अत्यधिक उपयोग हो रहा है।

भारत की स्थिति (India՚s Position)

भारत में प्रकाशीय तंतुओं की व्यवस्था का पहला प्रयोग 1979 में पुणे किया गया, जब दो स्थानीय टेलीफोन एक्सचेंजो में संचार संबंध को प्रकाशीय तंतुओं के माध्यम से स्थापित किया गया। वर्तमान में देश के अनेक संस्थानों मेंं इस प्रौद्योगिकी से संबंधित अनुसंधान कार्यक्रम चलाये जा रहे हैंं मध्य प्रदेश देश का पहला राज्य है जिसने दूरसंचार प्रणालियों के लिए प्रकाशीय तंतु का उत्पादन किया है। वर्तमान में भारत में प्रकाशीय तंतु का निर्माण हिन्दुस्तान केबल्स लिमिटेड, नैनी (इलाहाबाद) तथा ओ. टी. एल. (O. T. L- Optical Telecommunication Limited) भोपाल दव्ारा किया जा रहा है। इसके अलावा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में फाइबर के विभिन्न गुणों को विकसित करने की अत्याधुनिक तकनीकों का विकास किया जा रहा है।

तार रहित संचार (Wireless Communication)

तार रहित संचार में अंतरिक्ष का उपयोग माध्यम के रूप में किया जाता है तथा अंतरिक्ष तरंगों (Space Waves) , आकाशीय तरंगों (Sky Waves) व संचार उपग्रहों (Satellite Communications) का उपयोग किया जाता है।

  • अंतरिक्ष तरंगे (Space Waves) :-ये तरंगे आकाशीय माध्यम दव्ारा प्राप्त कर्ता के एंटीने तक पहुँचती हैं। इसके दव्ारा अति उच्च आवृत्ति वाली विद्युत चुम्बकीय तरंगों (Electro Magnetic Waves) के माध्यम से संचार व्यवस्था स्थापित की जाती है। एंटीने को ऊँचाकर या निश्चित दूरी पर रिपीटर लगाकर इस तरह के संचार की दूरी को बढ़ाया जा सकता है क्योंकि पृथ्वी की सतह की वक्रता के कारण ये तरंगे अधिक दूरी तक उपलब्ध नहीं हो पाती है। रिपीटर के अभाव में इससे अधिकतम 50 - 60 कि. मी. तक संचार स्थापित किया जा सकता है। चूँकि इन तरंगों की आवृत्ति अति उच्च एवं उच्च होती है, इसलिए कम लंबाई के पैराबोलिक (Parabolic) एंटीने का उपयोग किया जाता है। टेलीविजन प्रसारण उपग्रह संचार व माइक्रोवेव संचार में अंतरिक्ष तरंगों का प्रयोग किया जाता है।
  • आकाशीय तरंगे (Sky Waves) :- आकाशीय तरंगे प्रेषित होने के पश्चात्‌ आयनमंडल में पहुँचती हैं तथा आयनमंडल से टकराकर पुन: पृथ्वी पर वापस आती है। आयनमंडल से तरंगों का परावर्तन आकाशीय तरंगों की आवृत्ति पर निर्भर करता है। 40 मेगा हर्ट्‌ज तक की तरंगों का परावर्तन आयनमंडल से ही हो पाता है। इससे उच्च आवृत्ति वाली तरंगे आयनमंडल को पार कर बाहर निकल जाती हैं तथा उन तरंगों का परावर्तन नहीं हो पाता है। आकाशीय तरंगों का प्रयोग उच्च आवृत्ति तरंगों की प्रसारण सेवा में किया जाता है।
  • उपग्रह संचार (Satellite Communication) :-उपग्रह संचार में अंतरिक्ष में स्थित उपग्रह पर ट्रांसमीटर व रिसीवर लगा होता है, जिसे रेडिया ट्रांसपोंडर (Radio Transponder) कहा जाता है। यह ट्रांसपोंडर दो आवृत्तियों (सी-बैंड तथा के-यू बैंड) पर कार्य करता है। पृथ्वी की सतह से प्रेषित संकेत उपग्रह के रिसीवर दव्ारा ग्रहण कर लिया जाता है, जिसे अप लिंक (Up Link) कहा जाता है। ट्रांसपोंडर इस संकेत को संवर्धित कर पुन: ट्रांसमीटर के जरिए पृथ्वी की सतह पर भेज देता है, जिसे डाउन लिंक (Down Link) कहा जाता है। संकेतों को आपस में मिलने से रोकने के लिए अप लिंक तथा डाउन लिंक की आवृत्तियों में अंतर रखा जाता है।

जी. एस. एम. (G. S. M. - Global System for Mobile)

जी. एस. एम. एक ऐसी तकनीक है जिसमें फोन में एक सिम (SIM-Subscriber Identity Module) लगाकर मोबाइल फोन सेवा प्रदान की जाती है। इसमें बिना फोन सेट बदले अलग-अलग मोबाइल फोन सेवा प्रदाता कंपनियों की सेवाओं का लाभ उठाया जा सकता है। इसमें संकेत तथा ध्वनि हेतु डिजिटल पद्धति का प्रयोग किया जाता है। जी. एस. एम. का नेटवर्क चार विभिन्न आवृत्तियों पर कार्य करता है। अधिकांशत: जी. एस. एम. नेटवर्क 900 मेगाहर्ट्‌ज से 1800 मेगाहट्‌ज के बीच कार्य करता है। वर्तमान में संपूर्ण विश्व के मोबाइल फोन बाजार में जी. एस. एम. की हिस्सेदारी लगभग 70 प्रतिशत है।

सी. डी. एम. ए. (C. D. M. A. - Code Division Multiple Access)

  • सी. डी. एम. ए. एक ऐसी तकनीक है जिसमें सिम (SIM-Subceriber Identity Module) का प्रयोग किये बगैर मोबाइल फोन सेवा प्रदान की जाती है। इसमें सूचनाएँ फोन में पहले से ही प्रोग्राम की जाती हैं। इसमें एक अलग तरह के कोड का इस्तेमाल किया जाता है ताकि प्रत्येक कॉल के बीच अंतर किया जा सके। इस तकनीक में विभिन्न सिग्नल एक ही ट्रांसमिशन चैनल से होकर गुजरते हैं, जिससे उपलब्ध बैंडविड्‌थ का अधिकाधिक उपयोग किया जा सके। किसी अन्य तकनीक की तुलना में इसमें ध्वनि और आँकड़ों की गुणवत्ता बेहतर होती है। यह तकनीक प्रत्येक प्रयोक्ता (User) को एक विशिष्ट आवृत्ति के साथ नहीं जोड़ती बल्कि प्रत्येक चैनल उपलब्ध स्पैक्ट्रम का प्रयोग करता है। यह उपलब्ध बैंडविड्‌थ को कई आवृत्तियों में बाँटकर एक साथ संचारित करता है। प्रयोक्ता उसमें से वांछित सूचना पृथक कर सकता है।
  • बैंडविड्‌थ (Bandwidth) -बैंड की अधिकतम तथा न्यूनतम आवृत्ति के बीच अंतर। इसे प्रति सेकंड में अभिव्यक्त संचार चैनल की क्षमता की माप के रूप में में प्रयुक्त किया जाता है।

मोबाइल फोन टेक्नोलॉजी (Mobile Phone Technology)

  • मोबाइल फोन टेक्नोलॉजी तार रहित संचार (Wireless Communication) आधारित तकनीक है जिसमें रेडियों संकेतों को किसी ट्रांसमिशन टावर, एंटीना अथवा उपग्रह दव्ारा भेजा व प्राप्त किया जाता है। इस टेक्नोलॉजी के लिए वृहत स्तर पर रेडियो ट्रांसमीटर/रिसीवर का नेटवर्क आवश्यक होता है ताकि मोबाइल फोन सुचारू रूप से कार्य कर सके। सभी मोबाइल फोन सेवा प्रदाता कंपनियों के पास इस तरह का नेटवर्क होता हैं जिस क्षेत्र में सेवा प्रदाता कंपनी दव्ारा सेवाएँ प्रदान की जाती हैं उस क्षेत्र को विभिन्न जोन में बांट दिया जाता है, जिसे सेल (Cell) कहते हैं।
  • प्रत्येक सेल में एक रेडियो ट्रांसमीटर/रिसीवर और माइक्रो-प्रोसेसर युक्त एक बेस स्टेशन होता है तथा सभी बेस स्टेशन आपस में एक-दूसरे से संचार स्थापित कर सकते हैं। मोबाइल फोन टेक्नोलॉजी में प्रत्येक प्रयोक्ता के पास एक हैंडसेट होता है जो एक प्रकार का ट्रांसमीटर/रिसीवर ही होता है। हैंडसेट जिस बेस स्टेशन के प्रभाव क्षेत्र में होता है, वहाँ से विद्युत चुम्बकीय तरंगों को भेज व प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक हैंडसेट प्रत्येक क्षण उस कंपनी के बेस स्टेशन को संकेत भेजता रहता है, जिसका सिम कार्ड हैंडसेट में लगा होता है।
  • हैंडसेट से किसी नंबर को डायल करने पर संकेत विद्युत चुम्बकीय तरंगों के रूप में समीपवर्ती बेस स्टेशन तक पहुँचता है। इसके बाद बेस स्टेशन पर लगा कम्प्यूटर डायल किये गये नंबर को उस कंपनी के बेस स्टेशन को प्रेषित कर देता है, जहाँ उस नंबर की अवस्थिति होती है। वहाँ स्थित बेस स्टेशन उस नंबर वाले हैंडसेट को अलर्ट कर देता है और हैंडसेट का रिंगटोन बजने लगता है।
1 जी तकनीक (1st Generation Technology)

इस पीढ़ी में संचार नेटवर्क कम बैंडविड्‌थ वाले एनॉलॉग संचार नेटवर्क होते हैं। इनके माध्यम से वॉइस (Voice) तथा टेवस्ट संदेशों (Text Megs.) का आदान-प्रदान संभव होता है। ये सेवाएँ सर्किल स्विचिंग के साथ ही उपलब्ध होती हैं। फोन कॉल के शुरू होने के साथ ही इसकी पल्स रेट की गणना भी शुरू हो जाती है तथा कॉल समाप्त होने के साथ ही समाप्त हो जाती है। उल्लेखनीय है कि 1 जी (1st Generation) की संचार सेवाएँ शुरूआत में केवल कार आदि में ही लगाई जाती थीं, क्योंकि इस समय इसका उपयोग करने वाले उपकरण (Devices) आकार में बड़े होते थे, जिन्हें हाथ में लेकर चलना या जेब में रखना संभव नहीं था।

2 जी तकनीक (2nd Generation Technology)

1 जी के संचार नेटवर्क की ही तरह 2जी नेटवर्क भी कम बैंडविड्‌थ वाले ही संचार नेटवर्क हैं। दोनों में मूलभूत अंतर यह है कि 2जी नेटवर्क डिजिटल प्रौद्योगिकी पर आधारित हैं, इस कारण इनके माध्यम से संदेशों के आदान-प्रदान की गति में वृद्धि हो जाती है। 1 जी की तरह 2 जी नेटवर्क में भी अधिक वैंडविड्‌थ का प्रयोग किया जाता है। हालांकि 1 जी नेटवर्क की तुलना में 2 जी नेटवर्क की रेंज अधिक होती है। 1 जी नेटवर्क की सुविधाएँ केवल देश की सीमा के अंदर उपलब्ध होती हैं, जबकि 2 जी नेटवर्क अंतरराष्ट्रीय सेवाएँ उपलब्ध कराता है।

जी. पी. आर. एस. (G. P. R. S. - General Packet Radio System)

जी. पी. आर. एस. डाटा स्थानांतरण की एक विधि है जिसमें जी. एस. एम तकनीक का प्रयोग कर मोबाइल फोन दव्ारा डाटा स्थानांतरण किया जाता है। पैकेट स्विचिंग के दव्ारा उच्च गति से डाटा स्थानांतरण में इसका उपयोग किया जाता है। इसे 2 जी या 3 जी सेवा में प्रयोग में लाया जाता है। जब 2 जी टेक्नोलॉजी में जी. पी. आर. एस. का उपयोग किया जाता है तो उसे 2.5 जी की संज्ञा दी जाती है।