Article 37 Constitution Amendment, Judiciary, Jurisdiction of Supreme Court
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(अनुच्छेद 368) संविधान संशोधन प्रक्रिया (Article 37 Constitution amendment)
यह तीन प्रकार से होता है-
- साधारण विधि दव्ारा संशोधन- संसद के साधारण बहुमत दव्ारा पारित विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर कानून बन जाता है। इसके अंतर्गत राष्ट्रपति की पूर्वानुमति मिलने पर निम्न संशोधन किए जा सकते है-
- नए राज्यों का निर्माण, राज्य क्षेत्रों, सीमा एवं नाम में परिवर्तन।
- स्ांविधान की नागरिकता संबंधी, अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातियों की प्रशासन संबंधी तथा केंद्र दव्ारा प्रशासित क्षेत्रों की प्रकाशन संबंधी व्यवस्थाएंँ।
- विशेष बहुमत दव्ारा संशोधन- यदि संसद के प्रत्येक सदन दव्ारा कुल सदस्यों का बहुमत तथा उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के 2⟋3 मतों से विधेयक पारित हो जाए तो राष्ट्रपति को स्वीकृति मिलते ही वह संशोधन का अंग बन जाता है।
- न्यायपालिका तथा राज्यों के अधिकारों एवं शक्तियों जैसी कुछ विशिष्ट बातों को छोड़कर संविधान की अन्य सभी व्यवस्थाओं में इसी प्रक्रिया के दव्ारा संविधान में संशोधन किया जाता है।
- विशेष बहुमत एवं कम से कम आधे राज्यों के विधान मंडलों की स्वीकृति से संशोधन- उदाहरण:-
- राष्ट्रपति का निर्वाचन (अनु. 54)
- राष्ट्रपति निर्वाचन की प्रणाली (अनु. 55)
- स्घां की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार
- राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का विचार
- संघीय न्यायपालिका
- राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों के लिए उच्च न्यायालय
- संघ एवं राज्यों में विधायी संबंध
- सातवीं अनुसूची का विषय
- संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व
- संविधान संशोधन की प्रक्रिया से संबधित उपबंध।
न्यायपालिका (Judiciary)
सर्वोच्च न्यायालय (गठन अनुच्छेद-124)
- भारत की न्यायपालिका एकीकृत प्रकार की है, जिसके शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय है। इन्हें अंतिम न्याय निर्णयन का अधिकार प्राप्त है। यह दिल्ली में स्थित है।
- सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना, गठन अधिकारिता, शक्तियों के विनियमन से संबंधित विधि निर्माण की शक्ति भारतीय संसद को प्राप्त हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय में कुल 31 न्यायधीश (एक मुख्य न्यायाधीश एवं 30 अन्य न्यायाधीश) होते हैं, जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति दव्ारा की जाती है।
- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को पद एवं गोपनीयता की शपथ राष्ट्रपति दिलाता है।
- राष्ट्रपति न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय भारत के मुख्य न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करता है, जिनसे परामर्श करना आवश्यक समझे। किन्तु 1993 के एक निर्णय दव्ारा सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश की सलाह को वरीयता प्रदान कर दी। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के मामलें में मुख्य न्यायाधीशों को उच्चतम न्यायालय के 4 वरिष्ठतम न्यायाधीशों के समूह से परामर्श करके ही राष्ट्रपति को अपनी सिफारिश भेजनी होती है।
- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश बनने के लिए कोई न्यूनतम आयु निर्धारित नहीं की गई है। एक बार नियुक्ति होने के बाद इनके अवकाश ग्रहण करने की आयु सीमा 65 वर्ष है।
- न्यायाधीश कभी भी राष्ट्रपति को अपना त्याग-पत्र सौंप सकता है।
- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को संसद के प्रत्येक सदन दव्ारा विशेष बहुमत से पारित समावेदन राष्ट्रपति को प्रस्तुत किये जाने पर राष्ट्रपति उसे पद से हटा सकता है। उन्हें पद से हटाने के दो आधार हैं- साबित कदाचार एवं असमर्थता। (अनुच्छेद 124 (4) )
- उच्चतम न्यायालय के एकमात्र न्यायाधीश आर. रामस्वामी को पद से हटाने का प्रयास किया गया था, किन्तु कांग्रेस दव्ारा मतदान में भाग न लेने के कारण प्रस्ताव पास नहीं हो सकता था।
- अब तक उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों के पद पर सबसे कम समय तक के. एन. सिंह (मात्र 17 दिन) और सबसे अधिक दिन तक वाई. वी. चन्द्रचूड़ (7 वर्ष 170 दिन) रहे हैं।
- मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति लेकर दिल्ली के अतिरिक्त अन्य किसी भी स्थान पर सर्वोच्च न्यायालय की बैठक बुला सकता है। अब तक हैदराबाद (1950) और श्रीनगर (1954) में इस प्रकार की बैठकें आयोजित की जा चुकी हैं।
- अनुच्छेद 126 के अनुसार मुख्य न्यायाधीश के पद रिक्त की स्थिति में राष्ट्रपति कार्यकारी न्यायाधीश की नियुक्ति कर सकता है।
- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश अवकाश प्राप्त करने के बाद भारत के किसी भी न्यायालय या किसी भी अधिकारी के सामने वकालत नहीं कर सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की योग्यता
- वह भारत का नागरिक हो।
- वह किसी उच्चतम न्यायालय में लगातार कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता रह चुका हो।
- वह किसी उच्च न्यायालय अथवा दो या दो अधिक न्यायालयों में लगातार कम से कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुका हो।
- राष्ट्रपति की राय में लब्धप्रतिष्ठ विधिवेता हो।
उच्चतम न्यायालय का क्षेत्राधिकार (Jurisdiction of Supreme Court)
- प्रारंभिक क्षेत्राधिकार (अनुच्छेद-131) - इसके अंतर्गत ऐसे मामले आते हैं, जिनकी सुनवाई करने का अधिकार किसी उच्च न्यायालय या अधीनस्थ न्यायालयों को नहीं होता है ये हैं-
- भारत संघ तथा एक या एक से अधिक राज्यों के मध्य उत्पन्न विवादों में।
- भारत संघ तथा कोई एक राज्य या अनेक राज्यों और एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवादों में।
- दो या दो अधिक राज्यों के बीच ऐसे विवाद में, जिनमें उनके वैधानिक अधिकारों का प्रश्न निहित हो।
- प्रारंभिक क्षेत्राधिकार के तहत सर्वोच्च न्यायालय उसी विवाद को निर्णय के लिए स्वीकार करेगा, जिसमें किसी तथ्य या विधि का प्रश्न शामिल है।
- अपीलीय क्षेत्राधिकार (अनुच्छेद-132) -देश का सबसे बड़ा अपीलीय सर्वोच्च न्यायालय हैं इसे भारत के सभी उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकार प्राप्त है। इसके अंतर्गत निम्न प्रकरण आते हैं:-
- संवैधाकि मामले
- दीवानी मामले
- अपराधिक मामले
- विशेष इजाजत से अपील।
- परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार-अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति न्यायाधीश से परामर्श मांग सकता है। किन्तु यह परामर्श मांगने के लिए राष्ट्रपति बाध्य नहीं है और न ही न्यायाधीश परामर्श देने के लिए बाध्य है। रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद के मामले में मुख्य न्यायाधीश एन. एन. वेंकट चेलैया की खंडपीठ ने राष्ट्रपति दव्ारा मांगी गयी राय का कोई जवाब देने से इंकार कर दिया।
- पुनर्विलोकन क्षेत्राधिकार (अनुच्छेद-137) -उच्चतम न्यायालय को संसद या विधान मंडलों दव्ारा पारित किसी अधिनियम तथा कार्यपालिका दव्ारा दिये गये किसी आदेश की वैधानिकता का पुनर्विलोकन करने का अधिकार है।
- अन्तरण का क्षेत्राधिकार-
- वह उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों को अपने यहाँं अन्तरित कर सकता है।
- वह किसी उच्च न्यायालय में लंबित मामलों को दूसरे उच्च न्यायालय में अंतरित कर सकता है।
- अभिलेख न्यायालय (अनुच्छेद-129) - सामान्यत: अभिलेख न्यायालय से आशय उस उच्च न्यायालय से है, जिसके निर्णय सदा के लिए लेखबद्ध होते हैं और जिसके अभिलेखों का प्रमाणित मूल्य होता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय का अभिलेख न्यायालय का सभी शक्तियाँ प्राप्त हैं, जिनमें अवमानना के लिए दंड देना भी सम्मिलित है।
- सर्वोच्च न्यायालय संविधान एवं मौलिक अधिकार का रक्षक है।
उच्च न्यायालय
- अनुच्छेद 214 के अनुसार प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय होगा, लेकिन संसद विधि दव्ारा दो या दो अधिक राज्यों और किसी संघ राज्य क्षेत्र के लिए एक ही उच्च न्यायालय स्थापित कर सकता है। (अनुचछेद 231) ।
- वर्तमान में भारत में 21 उच्च न्यायालय हैं।
- प्रत्येक उच्च न्यायालय का गठन एक मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों से मिलाकर किया जाता है। इनकी नियुक्ति राष्ट्रपति दव्ारा होती है। भिन्न-भिन्न न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या अलग-अलग होती है।
- गुवाहाटी उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या सबसे कम (मात्र 3) और इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों की संख्या सबसे अधिक (58) है।
- संघ राज्य क्षेत्रों में केवल दिल्ली में उच्च न्यायालय स्थापित है।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की योग्यताएंँ (अनुच्छेद 217)
- भारत का नागरिक हो और 62 वर्ष की आयु पूरी न किया हो।
- कम से कम 10 वर्ष तक न्यायिक पद धारण कर चुका हो।
- कम से कम दस वर्ष तक उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहा हो।
- अनुच्छेद 219 के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को उस राज्य, जिसमें उच्च न्यायालय स्थित है, का राज्यपाल उसके पद की शपथ दिलाता है।
- उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को अवकाश ग्रहण करने की अधिकतम आयु सीमा 62 वर्ष है, किन्तु वह अपने पद से किसी भी समय राष्ट्रपति को त्यागपत्र दे सकता है। यदि त्यागपत्र में उस तिथि का उल्लेख किया गया है, जिस तिथि को त्यागपत्र लागू होगा तो न्यायाधीश किसी भी समय अपना त्यागपत्र वापस ले सकता है।
- राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करके किसी भी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का स्थानान्तरण दूसरे उच्च न्यायालयों में कर सकता है। (अनुच्छेद 222)
- राष्ट्रपति आवश्यकतानुसार किसी भी उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि कर सकता है एवं आवश्यकतानुसार अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति भी कर सकता है।
- राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के किसी अवकाश प्राप्त न्यायाधीश को भी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद को सौंप सकता है।
- जो व्यक्ति जिस उच्च न्यायालय में स्थायी न्यायाधीश के रूप में कार्य किया है, वह उस न्यायालय में वकालत नहीं कर सकता। किन्तु किसी दूसरे उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में वकालत कर सकता है। (अनुच्छेद 220) ।
उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार
- अपीलीय क्षेत्राधिकार - उच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ सभी न्यायालयों तथा न्यायाधिकरणों के निर्णयों, आदेशों तथा डिग्रियों के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकार है।
- प्रारंभिक क्षेत्राधिकार- उच्च न्यायालय को राजस्व तथा राजस्व संग्रह के संबंध में तथा मूल अधिकारों के उल्लंघन के मामले में प्रारंभिक क्षेत्राधिकार है। (अनुच्छेद 226) ।
- अंतरण संबंधी अधिकार-यदि किसी उच्च न्यायालय को ऐसा लगे कि जो अभियोग अधीनस्थ न्यायालय में विचाराधीन है वह विधि के किसी सारगर्भित प्रश्न से संबंद्ध है, तो वह उसे अपने यहाँ हस्तांतरित कर या तो उसका निपटारा स्वयं कर देता है या विधि से संबंद्ध प्रश्न को निपटाकर अधीनस्थ न्यायालय को निर्णय के लिए वापस भेज देता है।
- लेख जारी करने का अधिकार-यह मूलाधिकारों के उल्लंघन के मामले में बंदी प्रत्यक्षीकरण, परामादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेरण तथा अधिकारपृच्छा लेख जारी कर सकता है (अनु. 226) ।
- अधीक्षण क्षेत्राधिकार-प्रत्येक उच्च न्यायालय को अपनी अधिकारिता के अधीन स्थिति सभी न्यायालयों तथा अधिकरणों के अधीक्षण की शक्ति है। जिसके प्रयोग से-
- वह ऐसे न्यायालयों⟋अधिकरणों से विवरणी मंगा सकता है।
- वह ऐसे न्यायालयों के अधिकारियों दव्ारा रखी जाने वाली प्रविष्टियों और लेखाओं के प्रारूप निश्चित कर सकता है।
- वह ऐसे न्यायालयों के शुल्कों को नियत कर सकता है।
- प्रशासनिक अधिकार- उच्च न्यायालयों को अपने अधीनस्थ न्यायालयों में नियुक्ति, पदावनति, पदोन्नति ताा त्रुटियों के संबंध में नियम बनाने का अधिकार हैं।
अधीनस्थ न्यायालय (अनुच्छेद 333)
- उच्च न्यायालयों के अधीन कई श्रेणी के न्यायालय होते हैं, इन्हें संविधान में अधीनस्थ न्यायालय कहा गया है। इनका गठन राज्य अधिनियम कानून के आधार पर किया गया है। विभिन्न राज्यों में इनका अलग-अलग दर्जा है। लेकिन व्यापक परिप्रेक्ष्य में उनके संगठनात्मक ढांचे में समानता हैं।
- जनहित याचिका-जनहित याचिका में जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ, शोषण, पर्यावरण, बालश्रम, स्त्रियों का शोषण आदि विषयों पर न्यायालय को किसी भी व्यक्ति या संस्था दव्ारा सूचित करने पर न्यायालय स्वयं उसकी जांच कराकर या वस्तुस्थिति को देखकर जनहित में निर्णय देता है। इस प्रकार के वाद सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालय में ही प्रस्तुत किये जा सकते है।
- कुटुम्ब न्यायालय-कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम, 1984 के अधीन कुटुम्ब या पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना की गई। इस अधिनियम दव्ारा न्यायालय को पारिवारिक विवादों में मैत्रीपूर्ण समझौता को बढ़ावा देने के लिए स्वविवेक का प्रयोग करने का अधिकार है। सर्वप्रथम पारिवारिक न्यायालय की स्थापना जयपुर में हुई।
- प्रत्येक राज्य, जिलों में बंटा हुआ है और प्रत्येक जिले में एक जिला अदालत होती है। इन जिला अदालतों के अधीन कई निचली अदालतें होती हैं, जैसे अतिरिक्त जिला अदालत, सब-कोर्ट, मुंसिफ मजिस्ट्रेट अदालत, दव्तीय श्रेणी विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट अदालत, रेलवे के लिए विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट अदालत, कारखाना कानून और श्रम कानूनों के लिए विशेष मजिस्ट्रेट अदालत आदि।
- संविधान के अनुच्छेद 233 (1) के अनुसार किसी राज्य का राज्यपाल जिला न्यायाधीश की नियुक्ति संबंधित उच्च न्यायालय के परामर्श से करता हैं।
- भारत में लोकहित अथवा जनहित याचिका को प्रारंभ (1970 में) करने का श्रेय न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती और न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्ण अयय्र का रहा है।
- कानूनी सहायता अनुच्छेद 39 (ए) में सभी के लिए न्याय सुनिश्चित किया गया है और गरीबों तथा समाज के कमजोर वर्गों के लिए नि: शुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था की गई है।
- राष्ट्रीय न्याय अकादमी-न्यायिक अधिकारियों को सेवा के दौरान प्रशिक्षण देने के लिए सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी की स्थापना की है। इसका पंजीकरण 17 अगस्त 1993 को सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत हुआ है। यह अकादमी भोपाल में स्थित है, जिसका पंजीकृत कार्यालय, दिल्ली में है।
- नालसा-नालसा देश भर में कानूनी सहायता कार्यक्रम और स्कीमें लागू करने के लिए राज्य कानूनी सेना प्राधिकरण पर दिशा-निर्देश जारी करता है।
- लोक अदालत-लोक अदालत कानूनी विवादों के मैत्रीपूर्ण समझौते के लिए एक वैधानिक मंत्र है। विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 जिसका संशोधन 2002 में किया जा चुका है, दव्ारा लोक उपयोगी सेवाओं के विवादो ंके संबंध में मुकदमेबाजी पूर्व सुलह और निर्धारण के लिए स्थायी लोक अदालतों की स्थापना के लिए प्रावधान करता है। देश के लगभग सभी जिलों में स्थायी तथा सतत् लोक अदालतें स्थापित की गई हैं। देश में पहली लोक अदालत महाराष्ट्र में स्थापित की गई। ऐसे फौजदारी विवादों को छोड़कर समझौता नहीं किया जा सकता, दीवानी, फौजदारी, राजस्व अदालतों में लंबित सभी कानूनी विवाद मैत्री पूर्ण समझौते के लिए लोक अदालत में ले जाए जा सकते हैं। लोक अदालत दव्ारा दिए गए निर्णयों के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती।
- 1 अप्रैल 2001 से फास्ट ट्रैक कोर्ट्स अस्तित्व में आये हैं।
- मोबाइल कोर्ट की स्थापना 20 नवंबर 2008 को सर्वप्रथम कर्नाटक में लोगों को उनके दरवाजे पर न्याय उपलब्ध कराने के उद्देश्य से की गई।
- पर्यावरण संबंधी मामलों की सुनवाई के लिए एक नेशनल ग्रीन न्यायाधिकरण के गठन का प्रस्ताव केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने जून 2009 में किया।
- ग्राम न्यायालय-इसका उद्देश्य समाज के अंतिम आदमी को कम खर्चीला और प्रक्रियागत झंझटों से मुक्त शीघ्र न्याय दिलाना है, जिसकी संविधान के अनुच्छेद 38 (1) में व्यवस्था की गई है।
- ई-कोर्ट:- न्यायिक प्रक्रिया के आसान बनाने हेतु ई-कोर्ट की अवधारणा लाई गयी है। देश का पहला ई-कोर्ट गुजरात और अहमदाबाद सिटी सिविल एवं सेशन न्यायालय में स्थापित किया गया है। इसकी शुरूआत 8 फरवरी को देश के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति के जी बालकृष्णन दव्ारा किया। ई-कोर्ट में आरोपी-वीडियों कांफ्रेंसिंग के माध्यम से न्यायाधीश के समक्ष अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकेंगे तथा बयान भी दे पाएंगे। इससे कारागार से न्यायालय तक ले जाने की आवश्यकता नहीं रहेगी। कारागार एवं पुलिस मुख्यालय के अतिरिक्त फोरेंसिक लेबोरेटरी को भी इस पहले ई-कोर्ट परियोजना में न्यायालय से ऑन लाइन संबंद्ध किया गया हैं
- राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण-पर्यावरण संबंधी कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन व पर्यावरण के अधिकारों की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अक्टूबर 2010 में अस्तित्व में आ गया। इसके गठन की अधिसूचना 18 अक्टूबर 2010 को जारी की गई। इस हेतु आवश्यक विधेयक संसद के दोनों सदनों में मई 2010 में पारित किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश का अध्यक्ष दिसंबर 2012 में नियुक्त किया गया है। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में हैं।
प्रशासनिक ट्रिब्यूनल
- प्रशासनिक ट्रिब्यूनल अधिनियम, 1985 का पारित होना पीड़ित सरकारी कर्मचारियों को न्याय दिलाने की दिशा में एक नया अध्याय था। प्रशासनिक ट्रिब्यूनल अधिनियम का स्रोत, संविधान का अनुच्छेद 323 (क) हैं, जो केन्द्र सरकार को संसद के अधिनियम दव्ारा ऐसे ट्रिब्यूनल बनाने का अधिकार प्रदान करता है, जो केन्द्र सरकार और राज्यों के कामकाज को चलाने के लिए सार्वजनिक पदों और सेवाओं में नियुक्त व्यक्तियों की भर्ती और सेवा शर्तों आदि से संबंधित शिकायतों और विवादों पर निर्णय दे सके। अधिनियम 1985 के अंतर्गत स्थापित ट्रिब्युनल, इसके अंतर्गत आने वाले कर्मचारियों के सेवा संबंधी मामलों में मूल अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करता है। उच्चतम न्यायालय के दिनांक 18 मार्च 1997 के निर्णय के परिणामस्वयरूप प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के फेसले के विरुद्ध संबंधित उच्च न्यायालय की खंडपीठ में अपील की जाएगी।
- प्रशासनिक ट्रिब्यूनल केवल अपने अधिकार क्षेत्र और कार्य विधि में आने वाले कर्मचारियों के सेवा संबंधी मामलों तक सीमित होता है। इसकी कार्याविधि कितनी सरल है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पीड़ित व्यक्ति इसके सामने स्वयं उपस्थित होकर अपने मामले की पैरवी कर सकता है। सरकार अपना पक्ष अपने विभागीय अधिकारियों या वकीलों के जरिए रख सकती है। ट्रिब्यूनल का उद्देश्य वादी को सस्ता और जल्दी न्याय दिलाना है।
- अधिनियम में केन्द्रीय प्रशासनिक ट्रिब्यूनल (Central Administration Tribunal) और राज्य प्रशासनिक ट्रिब्यूनल स्थापित करने की व्यवस्था है। सीएटी केन्द्रीय प्रशासनिक ट्रिब्यूनल पहली नवंबर 1985 को स्थापित किया गया। आज इसकी 17 नियमित पीठ है, जिनमें से 15 उच्च न्यायालयों के मुख्य स्थान पर हैं और शेष दो जयपुर और लखनऊ में है। ये पीठ उच्च न्यायालयों वाले अन्य स्थानों पर सुनवाई करती हैं। संक्षेप में, ट्रिब्यूनल में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और सदस्य होते हैं। ट्रिब्यूनल के सदस्य न्यायिक और प्रशासनिक दोनों वर्गों की विशेषज्ञ जानकारी का लाभ मिल सके।
न्यायिक जवाबदेही विधियेक
- न्यायाधीशों के विरुद्ध मामलों की जांच को अधिक प्रभावी प्रणाली बनाने के उद्देश्य से तैयार न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक को 29 मार्च, 2012 को लोकसभा की मंजूरी प्रदान की गई। न्यायिक जवाबदेही विधेयक में न्यायपालिका में व्यक्त भ्रष्टाचार से निपटने की व्यवस्था है। न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक के कुछ प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं:-
- न्यायाधीशों के लिए अपनी संपत्ति और देनदारियों की घोषणा करना संवैधानिक रूप से अनिवार्य होगा। उसकी पत्नी और बच्चों पर भी यही बात लागू होगी।
- आम आदमी किसी भी न्यायधीश की खराब व्यवहार के आधार पर शिकायत कर सकता है। इसके लिए राष्ट्रीय न्यायिक ओवरसाइट समिति, स्क्रुटनी पैनल और जांच समिति बनाना प्रस्तावित।
- समिति न्यायाधीशों को परामर्श या चेतावनी जारी कर सकती है। न्यायाधीशों को हटाने के लिए संसद में प्रस्ताव लाया जा सकता है, जिस पर समिति विचार करेगी।
- राष्ट्रीय न्यायिक ओवरसाइट समिति में पांच सदस्य होंगे, जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति करेंगे।
High Court of India
भारत के उच्च न्यायालय | |||||
क्र. | नाम | स्थापना वर्ष | राज्य क्षेत्रीय अधिकारिता | अवस्थान | खंडपीठ |
1. | इलाहाबाद | 1866 | उत्तर प्रदेश | इलाहाबाद | लखनऊ |
2. | आंध्र प्रदेश | 1954 | आंध्र प्रदेश, तेलंगाना | हैदराबाद | |
3. | बंबई (मुंबई) | 1862 | महाराष्ट्र, दादरा और नगर हवेली और गोवा, दमन और दीव | मुंबई | नागपुर, पणजी और औरंगाबाद |
4. | कलकता (कोलकाता) | 1862 | पश्चिम बंगाल, अंडमान और निकोबार दव्ीप | केलकाता | पोर्टब्लेयर |
5. | दिल्ली | 1966 | दिल्ली | दिल्ली | |
6. | गुवाहाटी | 1948 | असम, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा, मिजोरम और अरूणाचल प्रदेश | गुवाहाटी | कोहिमा, इंफाल, अगरतल्ला और शिलांग |
7. | गुजरात | 1960 | गुजरात | अहमदाबाद | |
8. | हिमाचल प्रदेश | 1971 | हिमांचल प्रदेश | शिमला | |
9. | जम्मू-कश्मीर | 1957 | जम्मू-कश्मीर | श्रीनगर | जम्मू |
10. | कर्नाटक | 1884 | बंगलौर | ||
11. | केरल | 1958 | केरल और लक्षदव्ीव | अर्नाकुलम | |
12. | मध्य प्रदेश | 1956 | मध्य प्रदेश | जबलपुर | ग्वालियर, इंदौर |
13. | मद्रास | 1862 | तमिलनाडु और पांडिचेरी | मद्रास (चेन्नई) | |
14. | उड़ीसा | 1948 | उड़ीसा | कटक | |
15. | पटना | 1916 | बिहार | पटना | |
16. | पंजाब | 1966 | प्जाांब, हरियाणा, चंडीगढ़ | चंडीगढ़ | |
17. | राजस्थान | 1949 | राजस्थान | जोधुपर | जयपुर |
18. | सिक्किम | 1975 | सिक्किम | गंगटोक | |
19. | राँची | 2000 | झारखंड | राँची | |
20. | बिलासपुर | 2000 | छत्तीसगढ़ | बिलासपुर | |
21. | नैनीताल | 2000 | उत्तराखंड | नैनीताल |