महान सुधारक (Great Reformers – Part 13)

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भारत के महान प्रशासक

अशोक:-

अशोक प्राचीन भारत के मौर्य सम्राट बिन्दुसार का पुत्रा था। अशोक का जन्म लगभग 304 ई. पूर्व में माना जाता है। कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्ट से अशोक की अंतरात्मा को तीव्र आघात पहुँचा। युद्ध की विनाशलीला ने सम्राट को शोकाकुल बना दिया और वह प्रायश्चित करने के प्रयत्न में बौद्ध विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ।

दीपवंश के अनुसार अशोक अपनी धार्मिक जिज्ञासा शांत करने के लिए विभिन्न सिद्धांतों के व्याख्याताओं को राजसभा में बुलाता था। उन्हें उपहार देकर सम्मानित करता था और साथ ही स्वयं भी विचारर्थ अनेक सवाल प्रस्तावित करता था। वह यह जानना चाहता था कि धर्म के किन ग्रंथों में सत्य हैं। उसे अपने सवालों के जो उत्तर मिले उनसे वह संतुष्ट नहीं था।

संसार के इतिहास में अशोक इसलिए विख्यात है कि उसने निरन्तर मानव को नैतिक उन्नति के लिए प्रयास किया। जिन सिद्धांतों के पालन से यह नैतिक उत्थान संभव था, अशोक के लेखों में उन्हें ‘धम्म’ कहा गया है। दूसरे तथा सातवें स्तंभ-लेखों में अशोक ने धम्म की व्याख्या इस प्रकार है, “धम्म है साधुता, बहुत से कल्याणकारी अच्छे कार्य करना, पापरहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरात, दया-दान तथा शुचिता।” आगे, प्राणियों का वध न करना, जीवहिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, संबंधियों, ब्राह्यण तथा श्रवणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार और भृत्यों के प्रति उचित व्यवहार के बारे में कहा गया है।

सभी बौद्ध ग्रंथ अशोक को बौद्ध धर्म का अनुयायी बताते हैं। अशोक के बौद्ध होने के सबल प्रमाण अभिलेख हैं। भाब्रू लघु शिलालेख में अशोक युद्ध, धम्म और संघ में विश्वास करने के लिए कहता है और भिक्षु तथा भिक्षुणियों से कुछ बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन तथा श्रवण करने के लिए कहता है। लघु शिलालेख से यह भी पता चलता है कि राज्याभिषेक के दसवें वर्ष में अशोक ने बोधगया की यात्रा की, बारहवें वर्ष वह निगलिसागर गये और बुद्ध के स्तूप के आकार को दोगुना करवाया। महावंश तथा दीपवंश के अनुसार उसने तृतीय बौद्ध संगति (सभा) बुलाई और मोग्गलिपुत तिस्स की सहायता से संघ में अनुशासन और एकता लाने का सफल प्रयास किया।

अशोक के लेख शिलाओं, प्रस्तर स्तंभों और गुफाओं में पाये जाते हैं। अशोक के लेखों को तीन श्रेणियों में बांटा जाता है। ई-शिलालेख, स्तंभलेख, लघुस्तंभलेख और गुफालेख।

अकबर:-

मुगल बादशाह हुमायूं और हमीदा बानू बेगम के पुत्र अकबर का जन्म 15 अक्टूबर, 1542 ई. अमरकोट के राणा वीरसाल के महल में हुआ था। निरंतर युद्धों में संलग्न रहने के कारण अकबर आजीवन निरक्षर रहे लेकिन इसका अर्थ यह नहीं निकालना चाहिये कि वह अशिक्षित भी था। अकबर ने अपने राज्य में कई सुधार किए थे। मुगलकालीन शासन व्यवस्था में उसका महत्वपूर्ण स्थान है। उसके समय में किए गए कुछ सुधार इस प्रकार से हैं-

1. युद्ध में बंदी बनाये गए व्यक्तियों के परिवार के सदस्यों को दास बनाने की परंपरा को तोड़ते हुए अकबर ने दास प्रथा पर 1562 ई. से पूर्णत: रोक लगा दी।

2. अगस्त, 1563 ई. में अकबर ने विभिन्न तीर्थ स्थलों पर लगने वाले ‘तीर्थ यात्रा कर’ की वसूली को बंद करवा दिया।

3. मार्च, 1564 ई. में अकबर ने ‘जजिया कर’ , जो गैर-मुस्लिम जन से व्यक्ति कर के रूप में वसूला जाता था, को बंद करवा दिया।

4.1571 ई. में अकबर ने फतेहपुर सीकरी को अपनी राजधानी बनाया। 1583 ई. में अकबर ने एक नया केलेण्डर इलाही संवत्‌ जारी किया।

5. अकबर ने सती प्रथा पर रोक लगाने का प्रयास किया, विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया।

6. लड़कों के विवाह की न्यूनतम आयु 16 वर्ष तथा लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु 14 वर्ष निधार्रित की गई।

अकबर की राजपूत नीति उसकी गहन सूझ-बूझ का परिणाम थी। अकबर राजपूतों की शत्रुता से अधिक उनकी मित्रता को महत्व देता था। अकबर की राजपूत नीति दमन और समझौते पर आधारित थी। उसके दव्ारा अपनायी गयी नीति पर दोनों पक्षों का हित निर्भर करता था। अकबर ने राजपूत राजाओं से दोस्ती कर श्रेष्ठ एवं स्वामिभक्त राजपूत वीरों को अपनी सेवा में लिया, जिससे मुगल साम्राज्य काफी दिनों तक जीवित रह सका। राजपूतों ने मुगलों से दोस्ती एवं वैवाहिक संबंध स्थापित कर अपने को अधिक सुरक्षित महसूस किया। इस तरह अकबर की एक स्थायी, शक्तिशाली एवं विस्तृत साम्राज्य की कल्पना को साकार करने में राजपूतों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। अकबर ने कुछ राजपूत राजाओं जैसे-भगवान दास, राजा मानसिंह, बीरबल एवं टोडरमल को उच्च मनसव प्रदान किया था।

अकबर प्रथम सम्राट था जिसके धार्मिक विचारों में क्रमिकता देखी जा सकती है। शुरुआती दौर में अकबर पर पारिवारिक कारणों से इस्लाम का प्रभाव दिखता है लेकिन आगे चलकर उस इस्लाम का प्रभाव कम हो गया प्रतीत होता है। इसका पता उसके इस कदम से चलता है जब 1575 ई. में उसने फतेहपुर सीकरी में इबादतखानें की स्थापना की और 1578 ई. में इबाइतखाने को धर्म संसद में बदल दिया। उसने शुक्रवार को मांस खाना छोड़ दिया। 1579 ई. में महजर की घोषण कर अकबर धार्मिक मामलों में सर्वोचच निर्णायक बन गया। महजरनामा का प्रारूप शेख मुबारक दव्ारा तैयार किया गया था। उलेमाओं ने अकबर को ‘इमामे-आदिल’ घोषित कर विवादास्पद कानूनी मामलें पर आवश्यकतानुसार निर्णय का अधिकार दिया।

हर रविवार की संध्या को इबादतखाने में विभिन्न धर्मों के लोग एकत्र होकर धार्मिक वार्ता हेतु उपस्थिति होते थे, परन्तु कालान्तर में अन्य धर्मों के लोग जैसे ईसाई, जरथुस्थ्रवादी, हिन्दू, जैन, बौद्ध, फारसी, सूफी आदि को इबादतखानें में अपने-अपने धर्म के पक्ष को प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया। सभी धर्मों के सार संग्रह के रूप में अकबर ने 1582 ई. में दीन-ए-इलाही (तौहीद-ए-इलाही) या दैवी एकेश्वरवाद नामक धर्म का प्रवर्तन किया तथा उसे राजकीय धर्म घोषित कर दिया। सम्राट अकबर ने सभी धर्म वालों को अपने मंदिर-देवालय आदि बनवाने की स्वतंत्रता प्रदान की थी जिसके कारण ब्रज के विभिन्न स्थानों में पुराने पूजा-स्थलों का पुनरुद्धार किया गया और नये मंदिर -देवलायों को बनवाया गया था। अकबर ने गौ-वध बंद करने की आज्ञा देकर हिन्दू जनता के मन को जीत लिया था।