“भारत में परमाणु ऊर्जा और सामाजिक विकास”

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″ न हि कश्रित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌।

कार्यते ह्यवश कर्म सर्व: प्रकृति जैर्गुणे: ।। ″

1947 में जब अंग्रेज भारत से विदा हुए तो यहाँ के नेताओं, चितंकों, वैज्ञानिकों एवं समाजशास्त्रियों के लिए एक बहुत ही चुनौती पूर्ण स्थिति में इस देश के विशाल जनसमुदाय को छोड़ गए। इन्हें विरासत में एक ऐसा देश प्राप्त हुआ जो बड़ी जटिल समस्याओं, बीमारियों, गरीबी, भूखमरी एवं अंधविश्वासों से भंयकर रुप से ग्रस्त था। यह इस देश का सौभाग्य था कि इसका नेतृत्व वैज्ञानिक सोच वाले पंडित जवाहर लाल नेहरु के हाथों में आया। उन्हें इस बात का एहसास था कि परमाणु शक्ति के शांतिपूर्ण उपयोग से देश को इस विकट परिस्थिति से शीघ्रता से उबारा जा सकता है। उन्हें इस कार्य को अमली जामा पहनाने के लिए डॉ. होमी जे. भाभा. जैसे प्रतिभावान, राष्ट्र प्रेम से ओतप्रोत एवं निष्ठावान वैज्ञानिक प्राप्त हुए। फलस्वरुप स्वतंत्रता प्राप्ति के एक वर्ष में ही देश के ही- देश के वैज्ञानिकों को परमाणु शक्ति का प्रशिक्षण देने देश के विश्वविद्यालयों एवं शोध संस्थाओं में परमाणु शोध को बढ़ावा देने एवं अणु शक्ति से संबंधित खनिजों का ओद्यौगिक पैमाने पर दोहन करने के लिए, अगस्त 1948 में एटमिक एनर्जी कमीशन की स्थापना की गई।

परमाणु शक्ति के विकास एवं उपयोग के लिए विभिन्न कार्यक्रम बनने लगे। अगस्त 1954 में अणु ऊर्जा कार्यक्रम को लागू करने के लिए जो निष्पादन अभिकर्तत्व (Executive Agency) बनी वह अणु ऊर्जा का विभाग था। तत्पश्चात्‌ तेजी से काम होने लगा। 1957 में मुम्बई के पास ट्रामबे में भाभा अणु शोध केन्द्र की स्थापना हुई जो अणु शोध के कार्य को निर्देशित करने वाला सबसे बड़ा वैज्ञानिक संस्थान है। यह पाँच विभिन्न रिएक्टरों को अपने में सम्मिलित किए हुए है जिनका उल्लेख इस निबंध के अगले भाग में विशेष रुप से किया गया है।

हमारा देश एक कृषिप्रदान देश होते हुए भी यहाँ के लोग आजादी के उन प्रारम्भिक वर्षों में दाने-दाने के लिए तरस रहे थे। भूख से पीड़ित समाज का विकास करना एक बहुत ही कठिन कार्य था। कहा भी है- “भुखे भजन न होत गोपाला” ।

अत: जब समाज विकास के बारे में योजनाएँ बनाने लगे तो देश को कृषि उपज में आत्मनिर्भर बनाना ही सर्वप्रथम लक्ष्य निश्चित हुआ। यह कार्य बिना विज्ञान कि सहायता के संभव नही था। अणु शक्ति के उपयोग ने कृषि उपज को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया, फलस्वरुप आज एक अरब से अधिक आबादी का मात्र पेट ही नहीं भरता है अपितु लाखों टन अनाज विश्व के अन्य देशों को भी निर्यात किया जाता है। इस बड़ी उपलब्धि के बाद भी हमारे समाज का चौमुखी विकास करने में हम सक्षम हुए हैं।

यह एक स्वंय सिद्ध तथ्य है कि किसी भी देश का विकास बिना विद्युत ऊर्जा के संभव नहीं हैं विद्युत तो मानव को वरदान के रुप में प्राप्त हुई है एवं समाज के हर क्षेत्र में इसकी उपयोगिता में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही है। 1951 से ही देश परमाणु विद्युत उत्पादन कर विद्युत के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करेंगे की राह पर अग्रसर है। आज हमारा देश विश्व के उन सात राष्ट्रों में से एक है जिन्होंने परमाणु विद्युत उत्पादन की नवीनतम तकनीक में प्रवीणता प्राप्त कर ली है। प्रेशराइज्ड हेवी वाटर रिएक्टर (पी. एच. डब्यू. आर.) सिद्धांत पर आधारित रावतभाटा (राजस्थान) नरोरा (उ. प्र.) कलपक्कम (तमिलनाडु) एवं काकरापार (सुरत-गुजरात) के परमाणु एवं अणु बिजलीघर विद्युत उत्पादन कर एसे गाँव-गाँव तक पहुँचाने में सक्षम हैं।

रेडियोधार्मिता के प्रयोग से हमने कृषि, चिकित्सा एवं ओद्यौगिक क्षेत्र में नवीन उपलब्धियाँ प्राप्त की हैंं कृषि के क्षेत्र में पौधों में जीन उत्परिवर्तन, नई किस्मों का निर्माण व उर्वरक की क्षमताओं में वृद्धि आदि से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए हैं। औद्योगिक क्षेत्र में इसका उपयोग पाइपलाइनों के रिसाव को रोकने में, आधारभूत संरचनाओं की जाँच, उपकरणों की जाँच जैसे कार्यों में भी इसका योगदान दर्शनीय है। पृथ्वी का जन्म, पृथ्वी पर मानव के अंश आदि सभी परमाणु तत्वों से किए हुए अनुसंधानों का फल है।

परमाणु बम के जापानी शहरों पर किए गए विस्फोटों ने मानवता को दहला दिया था। विशेष रुप से गरीब एवं अविकसित राष्ट्रों के लिए तो अणुशक्ति एक दानवीय शक्ति के रुप में माने-जाने लगी थी। भारत के इस शक्ति के शांतिपूर्ण उपयोगों ने इन राष्ट्रों के लिए अपने विकास हेतु आशा की किरणें प्रस्फुटित की हैं।

“सूरज हूँ चमक छोड़ जाँऊगा, डूब भी गया तो सबक छोड़ जाँऊगा”

“मूलभूत अनुसंधान व अनुबंध शिक्षा संबंध”

परमाणु ऊर्जा आयोग, 1948 के तत्वाधान में गठित परमाणु ऊर्जा विभाग, 1954 की विभिन्न नीतियों का निर्धारण किया गया, यह मुख्यत: अनुसंधान व विकास, परमाणु ऊर्जा संबंध एवं औद्योगिक क्षेत्रों में विकास के हेतु कार्यरत हैं।

अनुसंधान व विकास, परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण भाग हैं जो विभिन्न परम्पराओ दव्ारा अपने कार्यो का संचालन कर रहा है। इस कार्यक्रम की सफलता हेतु हर निम्न संस्थाएँ कार्यरत है-

1. भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र (बार्क) , ट्रामबे-मुम्बई

2. इंदिरा गाँधी परमाणु अनुसंधान केन्द्र (इग्कार) कलपक्कम, तमिलनाडु

3. आधुनिक अनुसंधान केन्द्र (कैट) , इन्दौर, म. प्र.

4. परिवर्तन ऊर्जा, साइक्लोट्रोन केन्द्र, कलकत्ता, प. बंगाल

बार्क का गठन 1957 में परमाणु ऊर्जा केन्द्र, ट्रामबे के रुप में हुआ था। तत्पश्चात्‌ 1967 में इसका नाम (बार्क) भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के रुप में सामने आया। यह नाम डॉ. होमी. जे. भाभा के नाम पर रखा गया है जो कि आज अनुसंधान का एक प्रमुख केन्द्र है।

इन अनुसंधान कार्यो के तहत अनेक कार्य किए गए

1. देश का पहला अनुसंधान रिएक्टर अप्सरा 1956 में स्थापित किया गया जिसकी क्षमता एक मैगावाट थी।

2. सिरस- 40 मैगावाट की क्षमता का एक अनुसंधान रिएक्टर है जो तारापूर में 1960 में स्थापित किया गया था। इसका मुख्य कार्य अनुसंधान, शोध, प्रयोग, प्रशिक्षण के साथ-साथ आईसोटोप का निर्माण करना है।

3. पूर्णिमा 1-एक प्लूटोनियम पर आधारित रिएक्टर है जो ट्रामबे में स्थित है

4. पूर्णिमा 2- यह पूर्णिमा 1 का रुपांतरित प्रकार है जो u-233 का प्रयोग करता है।

5. ध्रुव-एक स्वनिर्मित 100 मेगावाट की क्षमता का रिएक्टर है जो 1985 में नाभिकी भौतिक एवं आइसोटोप निर्माण में सहायक है।

6. कामिनी- कलपक्कम में एक न्यट्रोन स्त्रोत रिएक्टर है।

बार्क ने टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान के सौजन्य से 14 मैगावाट की क्षमता वाले एक पैलिट्रान एक्सेलेटर की स्थापना की है साथ ही बैरिलियम संयत्र उवं रेडियो फार्मास्यूटिकल प्रयोगशाला, वाशी नई मुम्बई का भी गठन किया है। परिवर्तित ऊर्जा साइक्लोट्रोन केन्द्र कलकत्ता नाभिकी रसायनिक एवं रेडियोधर्मी हानि अध्ययन के क्षेत्र में कार्यरत है। सेस्मिक एक्टिविट मॉनीटरिंग स्टेशन, गौरीबीदनूर, बंगलौर विश्व के किसी भी स्थान में किए गए भूमिगत परमाणु विस्फोट की जानकारी प्रदान करता है।

परमाणु अनुसंधान प्रयोगशाला श्रीनगर एवं उच्च एल्टिटूराड अनुसंधान प्रयोगशाला गुलमर्ग जम्मू कश्मीर वायुमण्डलीय भौतिकी व कास्मिक रे भौतिकी में अनुसंधान कार्यों में कार्यरत है।

विकिरण औषधि केन्द्र, मुम्बई रेडियोधार्मीक आइसोटोप से चिकित्सा कार्य में प्रयोग के अनुसंधान में रत है।

फार्मास्यूटिकल उत्पादन सुविधाएँ वाशी बंगलौर एवं हैदराबाद में उपलब्ध हैं। ट्रामबे में आइसोमेड स्टरलाइजेशन संयत्र भी कार्यरत है।

बार्क सम्पूर्ण विश्व कि हित में उच्च ताप सुपर कंडकटर के निर्माण में कार्य कर रहा है। और इस क्षेत्र में कुछ सफलताएँ भी प्राप्त की है जैसे एक ही तत्त्व जो बिस्मिभ-लैड-कैल्शयम-स्ट्रानशियम आक्साइड का जिसका ताप Tc-120k है। बार्क कोल्ड प्यूजन के क्षेत्र में आई. आई. टी मद्रास की मदद से प्रयोग में कार्य कर रहा है।

बार्क के शोध से यह सिद्ध हुआ है कि डूट्रान डूरट्रान की क्रिया से ट्रिटियम मिलता है, न की न्यूट्रान।

एक अन्य शोध कार्य में बारीक कणों व विकरणों से प्लाजमा प्यूजन अनुसंधान से प्लस पावर एवं पारटिकल बीम टेकनोलोजी की शोध पर भी कार्य चल रहा है।

आदित्य प्लाजमा अनुसंधान केन्द्र गाँधीनगर, अहमदाबाद में स्थापित एक स्वचालित रिएक्टर है जो पाँच मिलियन डिगर सेलसियस पर भी प्लाजमा का निर्माण करने में सक्षम है। इस रिएक्टर के दव्ारा किए गए शोध विश्व प्यूजन अनुसंधान कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण अंग बन गए है।

इंदिरा गाँधी परमाणु अनुसंधान केन्द्र मुख्यत: एफ. बी. टी. आर. टेकनोलॉजी से संबंधित है। भारत में एफ. बी. टी. आर. का प्रयोग अक्टूबर 1985 से शुरु हुआ। यह एक स्वनिर्मित उपकरण है जो सोडियम-कारबाइड का उपयोग करता है।

इसका निर्माण फ्रैंच रेपसोडाइ रिएक्टर की प्रतिभूमिका पर हुआ था एवं इसकी क्षमता एक मैगावॉट के लगभग है। इसका उद्देश्य मुख्यत: सामग्रियों को इरेडियेशन क्षमता का पता करना एवं इन्हें लिक्विड मेटल कूल्ड फास्ट ब्रीडर रिएक्टर के अंदर परखा जाता है।

इग्कार ने अनेक ऐसे संवेदनशील सेंसरों का निर्माण किया है जो लिक्विड सोडियम जो कि परमाणु रिएक्टर में कूलेंट के रुप में प्रयोग में आता है कि शुद्धता की जाँच कर सकें।

500 मैगावॉट की क्षमता वाले एफ. बी. टी. आर. प्रोटोटाइप की संरचना नई शताब्दी तक तैयार होने की संभावना है।

कैट, इंदौर अनुसंधान के क्षेत्र में फ्यूजन, लेजर व एक्सलेटर पर कार्यरत है। हाल ही सिनक्रोट्रान विकिरण व उच्च रुप से निर्मित वर्सेटाइल लेजर का निर्माण किया गया है जो 70 वॉट व 400 वॉट कार्बन डाइआक्साइड लेजर के रुप में कार्य कर रहा है।

बार्क ने तकनीकी विकास से कूलेंट के जीवन काल में वृद्धि कर-भारत को इस तकनीकी तक पहुँचाने वाला दूसरा देश बना दिया है।

एक नई प्रणाली जिसे कूलेंट चैनल रिप्लसमेंट मशीन (सी. सी. आर. एम.) के नाम से जाना जाता है का निर्माण किया है एवं इसके हेतु एक नए संमिश्रण का निर्माण किया है जिसकी कार्य अवधि तीस साल मापी गई है।

मेपस-11 भारत का प्रथम चालित रिएक्टर है जो स्वनिर्मित तकनीकों का पूर्ण प्रयोग कर सकता है।

बार्क ने भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को बढ़ाने के लिए एक नए ऊर्जा रिएक्टर की नींव रखी है जिससे कि परमाणु आधारभूत ढाँचा फिजन ऊर्जा को प्राप्त कर सके इस क्षेत्र में अ ‘घोरीयम ब्रीडर रिएक्टर’ (ए. बी. टी. आर.) की विचार धारा पर शोध किया जा रहा है।

4 जून, 1999 को परमाणु ऊर्जा विभाग ने सिंक्रोट्रान विकिरण स्त्रोत इंदस-1 को इंदौर में शुरु किया। यह अनुसंधान कार्य क्षेत्रों में मदद प्रदान करने में संभव होगा। यह विकिरण स्त्रोत अब तक सभी स्त्रोतों में से सबसे अधिक चमकीला है व इसके कण बिजली की गति के साथ चलते हैं और चुम्बकिय क्षेत्र में पहुँचने पर अपने मार्ग से दूर हो जाते हैं। यह यंत्र तीन एक्सलेटरों से मिलकर बना हैे माइक्रोटोन, बूस्टर सिंक्रोट्रान एवं स्टोरेज रिंग। इससे इलेट्रान व माइक्रोट्रान की गति को बढ़ाया जाता है ताकि वे गतिशील होकर अधिकाधिक ऊर्जा प्रदान कर सकें।

अनुपम एक अत्याधूनिक सुपरकम्पूटर है जो परमाणु नाभिकी तकनीक का ही फल है।

इस क्षेत्र में प्रमख अनुसंधान का कार्य परमाणु ऊर्जा विद्युत उत्पान का ही रहा है। यह विद्युत उत्पादन मुख्यत: रावतभाटा (राजस्थान) नरोरा (उत्तर प्रदेश) , कलपक्कम (तमिलनाडु) एवं काकरापार (सूरत-गुजरात) हैं। रावतभाटा में खराब हुए संयत्र एवं ईकाई का कार्य भारतीय वैज्ञानिकों के सामने एक चुनौती के रुप में आई। परन्तु डॉ चतुर्वेदी के निर्देशन व प्रशिक्षण में हमारे देश के वैज्ञानिकों ने बाहरी सहायता के बिना ही उस ईकाई को ठीक किया और वह भी बताई लागत के एक तिहाई में।

दी गई शोध संस्थाएँ अनेक ऐसे कार्यों में जुटी हुई हैं जो मानव जीवन के अनेक पहलूओं में हमारी ज़िंदगी को आसान बनाने के लिए तत्पर हो। ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है।’ जैसे-जैसे हमारी आवश्यकता बढ़ती जाती है मानव उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी बुद्धि के बल पर अनुसंधान कर आविष्कारों को जन्म देता है और फलस्वरुप अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।

यह आविष्कार एवं अनुसंधान तब तक संभव नहीं है जब तक एक विकसित मस्तिष्क इस कार्य को करने में नहीं लगे। सामान्य विज्ञान की गुढ बातों का अध्ययन ही मस्तिष्क को परिपक्व बना सकता है, उस बात पर मनुष्य सोच विचार कर सकता है, एक नए सिंद्धांत का प्रतिपादन कर सकता है और अतंत: एक अनुसंधान में लग सकता है।

परमाणु विज्ञान एक ऐसी शाखा है जो विज्ञान के प्रत्येक प्रकार को संजोती हुई एक स्वतंत्र शाखा के रुप में विकसित हो चली। यह भौतिक, रासयनिक, जैविक एवं समस्त शाखाओं के अंश को लेकर एक अलग शाखा के रुप में विकसित हुई है जो आज के युग का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।

भौकित विज्ञान से संबंध:- परमाणु क्रियाओं से बाइंडिग ऊर्जा का रिसाव होता है जो धीरे-धीरे ताप व गर्मी में बदलती हे और इस ऊर्जा के बल पर अनेक बिजली के उपकरण कार्य करते है, और यदि यह ऊर्जा यकायक निकल जाती है तो परमाणु विस्फोटक के रुप में कार्य करती है।

आइंसटिन ने 1905 में ऊर्जा व पदार्थ के बीच सामंजस्य स्थापित किया और E = mc2 का सिद्धांत दिया। इसके अनुसार ऊर्जा व पदार्थ। द्रव्य आपस में परिवर्तनशील है। ऊर्जा पदार्थ में बदल सकती है और पदार्थ ऊर्जा के रुप में प्रकट हो सकता है। इसी के आधार पर परमाणु बम का सिद्धांत प्रकट हुआ। बम रुपी पदार्थ विस्फोट के पश्चात्‌ ऊर्जा में बदल जाता है।

चैन रिएक्शन के अनुसार एक अणु दो में टूटता है, दो-चार में और यह क्रम चलता रहता है। इस प्रकार से परमाणु विज्ञान का भौतिकी से गहरा संबंध है।

रसायन विज्ञान से संबंध:-रसायन विज्ञान में अणुओं की विवेचना का अध्ययन किया जाता है। परमाणु प्रकिया में एक अणु न्यूट्रान से प्रक्रिया करके या तो छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखरता है या उन सब का समावेश करके एक बड़े टुकड़े का निर्माण करता है। U-238 में 92 प्रोट्रोन एवं 146 न्यूट्रान होते हैं जो उसके नाभिकी में उपस्थिति होते हैं। बाहरी न्यूट्रान के आने पर इनका सामंजस्य बिगड़ जाता है और ये टूटकर ऊर्जा निकालते हैं। नाभिकी संरचना के आधार पर ही वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि यह परमाणु फ्यूजन रिएक्शन देगा अथवा फिशन रिएक्शन। रसायन विज्ञान की सहायता से ही हम उसका भार व परमाणु संख्या ज्ञात कर सकते हैं। परमाणु रसायनिक एक उभरता हुआ क्षेत्र है जिसमें अनेकानेक रासायनिक गतिविधियों की सहायता से निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है।

परमाणु की संख्या, भार, उसका चट्‌टानों में पाया जाना, सांद्रता आदि सभी रासायनिक परिवेश को उजागर करते है। क्रिया के पूरी होने के बाद निकली हुई ऊर्जा से वायुमंडल पर प्रभाव, ब्रीडर रिएक्टर कर निर्माण, कंट्रोल रोड, इंधन आदि सभी का रासायनिक गुण दोष ही क्रिया को प्रभावित करता है। द्रव्यों का ऊर्जा से बनाना भी एक रासायनिक प्रक्रिया ही दर्शाती है अत: इसका रसायनिक विज्ञान से गहरा संबंध है।

जीव विज्ञान से संबंध:- परमाणु ऊर्जा के फलस्वरुप कृषि व चिकित्सा क्षेत्र में अनेक परिवर्तन दर्शनीय है। परमाणु ऊर्जा के प्रयोग से जीनों का उत्परिवर्तन किया जा सकता है अच्छी किस्म के पौधों व बीजों को तैयार किया जा सकता है, चिकित्सा के क्षेत्र में रोगों की जाँच व बीमारियों का पता लगाना आसान हो जाता है, परमाणु ऊर्जा के प्रयोग से नई औषधियों का विकास संभव है। इस प्रकार यह जीव विज्ञान को प्रभावित करता है। परमाणु ऊर्जा से वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण की समस्याएँ भी उत्पन्न होती है। भूमिगत गड्‌ढों में परमाणु कचरे को दबाने से मिट्टी की उर्वरक क्षमता में कमी होती है। यह मानव शरीर को भी हानि पहँुचाते हैं। मुख्यत: चमड़ी रोग, नाड़ी रोग, तंत्रिका रोग एवं कैंसर जैसी घातक बीमारी भी मनुष्य को हो सकती है। जीन उत्परिवर्तनों से होने वाली संतानों में कई बीमारियाँ पाई जाती है। बच्चे जन्म से ही अपाहिज हो सकते है। इस प्रकार परमाणु विज्ञान ऊर्जा का जीवविज्ञान पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है और साथ ही इसके साथ संबंध स्थापित हो जाता है।

अनुसंधानों का कोई अंत नहीं है। परमाणु बिजली घरों में कार्यरत कर्मचारियों को अनेक प्रकार के रोग से बचाने के लिए भी अनुसंधान कार्य किया जा सकता है। तत्त्वों को क्रिया कर के ऐसा करना, जिससे उनकी कार्यक्षमता वही रहे परन्तु बुरे प्रभावों व विकिरणों में कमी आ सके।

ऐसी तकनीक का विकास करना जिससे अधिक से अधिक रेडियोधर्मी पदार्थों को चट्टानों से पृथक किया जा सके। इस प्रकार के अनेक अनुसंधान के विषय है जिन पर हमारे भावी वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित करना होगा।

परमाणु ऊर्जा इस शताब्दी का वह महत्त्वपूर्ण अंश बन चुका है कि हर नागरिक को यह पता होना चाहिए की परमाणु ऊर्जा का क्या कार्य है।

आम मनुष्य के मस्तिष्क पटल पर परमाणु शब्द सुनते ही हिरोशिमा व नागासाकी की दर्द त्रास्दी का चित्र उभरने लगता है और वह बोखला उठता है। भारत दव्ारा 1998 में किए गए परमाणु परिक्षण भी कई लोगों के लिए चिंता का विषय बन गए थे। अत: यह अत्यंत आवश्यक है की सभी मनुष्यों को इस बात की पूर्ण जानकारी हो और इसे विवादस्पद नही बनाए।

देश में अनुसंधान की आवश्यकताएँ बढ़ती रहती है क्योंकि हमारा देश एक विकासशील व प्रगतिशील देश है। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि विद्यालय एवं महाविद्यालय स्तरों पर परमाणु ऊर्जा विषयक विविध जानकारी छात्र-छात्राओं को प्रदान की जाएँ और नई-नई तकनीकों से अवगत कराया जाए, उन्हें अपने बौद्धिक स्वर का उपयोग करने का मौका दिया जाए, विज्ञान विषयक प्रश्नोत्तरी का आयोजन हो, छात्र-छात्राओं में विज्ञान के प्रति रुझान पैदा किया जाए और इन सभी बातों को ध्यान में रखकर ही हम एक विकसित देश बन सकेंगे। छात्र-छात्राओं को यह समझाना आवश्यक है कि वैज्ञानिक जन्म से नहीं होते अपितु परिस्थितियों से समझौता करके अपने अधिक परिश्रम के बल पर ही वे सफलता अर्जित करते हैं। रुझान जन्म से नहीं होता अपितु पैदा करने से बनता है। विज्ञान के इस युग में हमें समय के साथ चलना अत्यंत आवश्यक है और लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहना भी। स्वामी विवेकानंद ने सत्य ही कहा है-

“उत्षिठत जाग्रत प्राप्यविरान्बोधत्‌”

अर्थात्‌ - उठो, जागो और तब तक नहीं रुक जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो ।