महान सुधारक (Great Reformers – Part 25)

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जोतीराव फुले:-

महात्मा जोतीराव फुले या जोतीबा फुले आधुनिक युग में हुये समाज सुधारकों से बेहद भिन्न माने जाते हैं। उनका जन्म 11 अप्रैल, 1827 को सतारा (महाराष्ट्र) में हुआ था। वह स्वयं माली जाति से थे और उन्होंने देश में व्याप्त जातिप्रथा और हिन्दू धर्म के तमाम पाखंडो और कुरोतियों के खिलाफ संघर्ष किया। उन्होंने सामाजिक रूप से पीछे रह गये समाज के स्त्री-पुरुषों में जागृति और शिक्षा का प्रसार करते हुए उन्हें आत्म सम्मान और अधिकारों के लिए आंदोलित किया। उन्होंने स्त्रियों की दशा सुधारने में भी कड़े प्रयास किये। महात्मा फुले का कार्य निश्चित ही अधिक चुनौतीपूर्ण था। जोतीराव को भी कालान्तर में एक नया विशेषण ‘महात्मा’ मिला।

महात्मा फुले ने शूद्र जातियों को वर्णव्यवस्था में उच्च स्थान दिलवाने की कोई चेष्टा नहीं की अपितु उन्होंने इस ऊँच-नीच की पूरी व्यवस्था को ही जड़ से नष्ट करने का अभियान छेड़ दिया। 1868 में उन्होंने एक क्रांतिकारी कदम उठाते हुए अपने घर के कुएँ को दलितों के लिए खोल दिया। यह बात अपने आप में बहुत अनोखी थी क्योंकि आज भी भारत के अधिकांश गाँवों में जाति प्रथा कठोर रूप में मौजूद है। उन्हें इसका उतना ही कठोर प्रतिरोध भी झेलना पड़ा और सावित्री बाई से विवाह के बाद इन दोनों दंपती को उनके परिजनों ने ही घर से निकाल दिया। पर उन्होंने थोड़ी भी हिम्मत नहीं हारी बल्कि दुगुने उत्साह के साथ समाज परिवर्तन की मुहीम में जुट गए। सावित्री बाई फुले ने हर स्तर पर न सिर्फ महात्मा फुले का साथ दिया बल्कि एक कदम आगे बढ़कर स्वयं कई जिम्मेदारियां भी संभाली।

फुले विद्यालय के दिनों से ही एकदम मेधावी रहे थे और उन्होंने तभी से अंग्रेजी की उपलब्ध किताबें पढ़ना शुरू कर दिया था। थॉमस पेन की ′ राइट्‌स ऑफ मेन ′ और एज ऑफ रिसन ′ ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था। तब तक वे सावित्री बाई के साथ दलित लड़कियों के लिए विद्यालय खोल चुके थे। 1851 में उन्होंने एक और विद्यालय खोला जो सभी जाति की लड़कियों के लिए था। आज के दौर में भले ही हमें महिलाओं की शिक्षा कोई नयी बात नहीं लगे लेकिन उस समय समाज में स्पष्ट मान्यता थी कि शिक्षा सिर्फ पुरुष के लिए ही होती है क्योंकि महिलाओं का काम सिर्फ चुल्हा-चौका और परिवार की देखभाल का है तथा उस काल की मान्यता के अनुसार लड़की को पराया धन समझा जाता था क्योंकि कम उम्र में ही लड़कियों की शादी कर दी जाती थी। ऐसे समय जोतीबा फुले का महिलाओं को शिक्षा के लिए प्रवृत्त करना उनकी दूरदर्शिता को दर्शाता हैं।

महात्मा फुले ने अपने जीवन में कभी दो मापदंड नहीं रखे। उन्होंने जो भी चीज समाज के लिए हितकर पाई उसका उपदेश देने के बजाय पहले स्वयं ही अमल किया और उसके बाद उसे समाज में लागू करवाने की कोशिश की। महात्मा फुले ने जाति व्यवस्था से देश के आमजनों को मुक्त कराने के व्यावहारिक प्रयास कि लिए 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की जिसके माध्यम से उन्होंने आमजनों को हिन्दू धर्म के संस्कारों का विकल्प उपलब्ध कराते हुए उनमें वैज्ञानिक मानववाद का प्रसार करने का कार्य आरंभ किया। इस दिशा में उन्होंने सबसे पहले पंडितों और हिन्दू कर्मकांडों के सभी आवश्यक संस्कारों (जैसे विवाह, जन्म और मृत्यु) को हटाने के लिए कुछ स्त्री-पुरुषों का समूह तैयार किया जो मंत्र पठन और देवी-देवताओं का पूजा-पाठ किये बिना तथा बिना किसी दान-दक्षिणा के सरलता से इसे पूरा कर दिया करते थे।

शिक्षा को मानव मुक्ति का माध्यम जानते हुए उन्होंने अंग्रेज शासकों से प्राथमिक स्तर की शिक्षा की और भी ध्यान देने की वकालत की। उनका कहना था कि ब्रिटिश सरकार दव्ारा सिर्फ उच्च शिक्षा पर ही खर्च किया जा रहा है जिसका लाभ केवल उच्च वर्णों को ही मिलता है पर यदि सरकार प्राथमिक स्तर पर भी ध्यान देने लगे तभी समाज के कमजोर वर्ग तक शिक्षा पहुँच पायेगी। 1882 में उन्होंने हंटर कमीशन (आयोग) के समक्ष याचिका दायर करके उसका ध्यान इस ओर आकृष्ट कराया कि उच्च वर्ग वाले निम्न वर्गों की शिक्षा के बारे में नहीं सोचते इसलिए सरकार को अब दलित और पिछ़ड़े वर्ग की ओर ध्यान देना जरूरी हैं।

समाज में पूरी तरह समता स्थापित करना उनके जीवन का लक्ष्य था। इसलिए उन्होंने जब भी कोई शोषित वर्ग देखा तो उसके उत्थान के लिए अपने को रोक नहीं पाए। उन्होंने जब ब्राह्यण विधवाओं की दुर्दशा देखी तो वे उनके उत्थान के लिए जुट गए। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह के लिए अभियान आरंभ किया क्योंकि उन्होंने देखा कि विधवाओं पर तमाम प्रतिबंध जैसे उनके सर मुंडवाना, सफेद साड़ी पहनने की अनिवार्यता और उनके सामान्य जीवन पर प्रतिबंध लगाया करते थे। इस अमानवीय प्रथा को देखकर महात्मा फुले ने सावित्री बाई के साथ मिलकर विधवा आश्रम की स्थापना की। जहाँ न सिर्फ विधवाओं को रहने और खाने की व्यवस्था थी बल्कि वहाँ पर प्रसव सुविधा भी थी। जोतीबा फुले ने महिलाओं की स्थिति के सुधार में सक्रिय पंडिता रमा बाई का साथ दिया। इसी तरह उन्होंने भारत की पहली महिला नारीवादी माने जाने वाली तारा बाई शिंदे के अभिमान का भी समर्थन किया।

महात्मा फुले किसी भी रूप में स्त्री को पुरुष से कम नहीं मानते थे। इसलिए जब उनकी शादी के वर्षों बाद भी इन्हें कोई संतान नहीं हुई और लोग उन पर इसके लिए दूसरी शादी करने का दबाव बनाने लगे तो फुले ने बड़ी दृढ़ता के साथ उन्हें जवाब देते हुए कहा कि संतान नहीं होने पर स्त्री को दोषी मानना बिल्कुल भी विज्ञानसम्मत नहीं है। बल्कि यह पुरुषवादी मानसिकता है जो दूसरी शादी करने की वकालत करती हैं इसलिए बेहतर है हम दोषारोपण करने के बजाय कोई बच्चा गोद ले लें और उन्होंने अपने विधवा आश्रम से ब्राह्यणी विधवा का बेटा गोद ले लिया।

महात्मा फुले निर्बलों की सेवा अपनी जान जोखिम में डाल कर किया करते थे। 1890 में जब उनका गाँव प्लेग की चपेट में आया तो उन्होंने बिना परवाह के रोगियों की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया। अंतत: वे स्वयं भी प्लेग का शिकार हो गए। उल्लेखनीय है कि महात्मा फुले की मृत्यु के बाद भी उनका अभियान जारी रहा। डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर को बड़ौदा नरेश से मिलवाकर उनके लिए विदेश में पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति उपलब्ध करवाने में मदद करने वाले तथा बाबा साहब को उनके युवा दिनों में बुद्ध के धर्म से अवगत करवाने वाले केलुस्कर गुरुजी सत्यशोधक समाज के ही सदस्य थे। बाबासाहब भी स्वयं महात्मा फुले के कार्यो और विचारों से इतने अधिक प्रभावित थे कि उन्होंने बुद्ध और कबीर के साथ महात्मा फुले को अपना गुरु माना।