महान सुधारक (Great Reformers – Part 30)

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पेरियार ई. वी. रामास्वामी नायकर:-

पेरियार ई. वी. रामास्वामी नायकर का जन्म 17 नवंबर, 1879 को तमिलनाडु के इरोड में एक संपन्न, धार्मिक, परंपरावादी के धनी परिवार में हुआ था। इनका पूरा नाम इरोड वेंकट नायकर रामास्वामी था। बचपन से ही वे उपदेशों में कही बातों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते रहते थे। हिन्दू महाकाव्यों तथा पुराणों में कही बातों की परस्पर विरोधी तथा बेतुकी बातों के माहौल का भी वे मजाक उड़ाते रहते थे। उन्होंने हिन्दू समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था का भी बहिष्कार किया। पढ़ाई पूरी करने के बाद पेरियार जी, जी जान से सामाजिक सुधारों में जुट गये। अपार वैभव में पले रामास्वामी को किसी तरह की कोई कमी नहीं थी परन्तु कट्‌टरता के भयानक परिणामों को देख कर बचपन से ही नायकर के मन में हिन्दू रूढ़िवाद के प्रति आक्रोश उत्पन्न होने लगा। तमिल दलितों की पीड़ा का अहसास कर वह क्षुब्ध हो जाते थे। उन्हें लगता था कि उत्तर भारतीय ब्राह्यणों का सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक वर्चस्व ही दलितों की पीड़ा का मुख्य कारण है। इन बातों से दु: खी होकर पेरियार ने यह संकल्प लिया कि वह इस अन्याय को मिटा कर रहेंगे।

कांग्रेस पार्टी में शामिल होकर पेरियार ने स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लिया और दलितों के हितों की लड़ाई भी लड़ते रहे। उन्होंने 1923 ई. में वायकोम मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश को लेकर ‘आत्म सम्मान’ आंदोलन चलाया। उन्होंने सामाजिक समानता पर बल दिया, मनुस्मृति को जलाया तथा पुरोहितों के बिना विवाह करवाए। उन्होंने ‘कुदी आरसू’ नामक ग्रंथ लिखा। ईश्वर विरोधी समिति के निमंत्रण पर वे रूस गए तथा लौटने के बाद वे कांग्रेस से अलग हो गए। 1926 में पेरियार ने न्याय पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली। बाद में इसके अध्यक्ष भी बने। इस पार्टी के माध्यम से उन्होंने गैर-ब्राह्यणों के लिए सरकारी नौकरियों में प्रारक्षण की मांग की। उन्होंने द्रविड़ कडगम्‌ नाम के राजनैतिक-सामाजिक दल का गठन किया।

विनोबा भावे:-

विनोबा भावे (11 सितंबर, 1895 - 15 नवंबर 1982) महात्मा गांधी के आदरणीय अनुयायी, भारत के जाने-माने समाज सुधारक एवं ‘भूदान यज्ञ’ नामक आंदोलन के संस्थापक थे। उनकी समस्त जिंदगी साधु संन्यासियों जैसी रही, इसी कारणवश वे एक संत के तौर पर प्रख्यात हुए। विनोबा भावे अत्यंत विदव्ान एवं विचारशील व्यक्ति थे। महात्मा गांधी के इस परम शिष्य ने वेद, वेदांत, गीता, रामायण, कुरान, बाइबिल आदि अनेक धार्मिक ग्रंथों सहित अर्थशास्त्र, राजनीति और दर्शन के आधुनिक सिद्धांतों का भी गहन अध्ययन किया। उन्हें कई भाषाओं का भी ज्ञान था।

गुजरात में जन्मे विनोबा भावे का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। उन्होंने ‘गांधी आश्रम’ में शामिल होने के लिए 1916 में हाई स्कूल (उच्च विद्यालय) की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। गांधी जी के उपदेशों ने भावें को भारतीय ग्रामीण जीवन के सुधार के लिए एक तपस्वी के रूप में जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने 1916 में मात्र 21 वर्ष की आयु में गृहत्याग दिया और साधु बनने के लिए काशी नगरी की ओर रुख किया। वे काशी नगरी में वैदिक पंडितों के सानिध्य में शास्त्रों के अध्ययन में जुट गए। बाद में महात्मा गांधी से मुलाकात के बाद तो जीवन भर के लिए वे उन्हीं के प्रति समर्पित हो गए। आजादी की लड़ाई में वह कई बार जेल गये। 11 अक्टूबर, 1940 को गांधी दव्ारा व्यक्तिगत सत्याग्रह के प्रथम सत्याग्रही के तौर पर विनोबा को चुना गया। प्रसिद्धि की चाहत से दूर होने के बावजूद विनोबा इस सत्याग्रह के कारण बेहद मशहूर हो गए। विनोबा भावे ने गीता, कुरान, बाइबल जैसे धर्म ग्रंथों के अनुवाद के साथ ही इनकी आलोचनाएं भी की। विनोबा भावे भागवत गीता से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। वो कहते थे कि गीता उनके जीवन की हर सांस में है। उन्होंने गीता को मराठी भाषा में अनुवादित भी किया था।

विनोबा भावे का ‘भूदान आंदोलन’ का विचार 1951 में जन्मा। जब वह आंध्र प्रदेश के गांवों में भ्रमण कर रहे थे। भूमिहीन अस्पृश्य लोगों या हरिजनों के एक समूह के लिए जमीन मुहैया कराने की अपील के जवाब में एक जमींदार ने उन्हें एक एकड़ जमीन देने का प्रस्ताव किया। इसके बाद वह गाँव-गाँव घूमकर भूमिहीन लोगों के लिए भूमि का दान करने की अपील करने लगे और उन्होंने इस दान को गांधी जी के अहिंसा के सिद्धांत से संबंधित कार्य बताया। भावे के अनुसार यह भूमि सुधार कार्यक्रम हृदय परिवर्तन के तहत होना चाहिए। जमीन के इस बँटवारे से बाद में उन्होंने लोगों को ‘ग्रामदान’ के लिए प्रोत्साहित किया, जिससे ग्रामीण लोग अपनी भूमि को एक साथ मिलाने के बाद उसे सहकारी प्रणाली के अंतर्गत पुनर्गठित करते।

विनोबा को 1958 में प्रथम रेमन मैग्सेस पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1975 में पूरे वर्ष भर अपने अनुयायियों के राजनीतिक आंदोलनों में शामिल होने के मुद्दे पर भावे ने मौन व्रत रखा। सन 1979 के एक आमरण के परिणामस्वरूप सरकार ने समूचे भारत में गो-हत्या पर निषेध लगाने हेतु कानून पारित करने का आश्वासन किया। उनका 15 नवंबर, 1982, वर्धा, महाराष्ट्र में निधन हो गया। भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से 1983 में मरणोपरांत सम्मानित किया।