इंडियन (भारतीय) वेर्स्टन (पश्चिमी) फिलोसोपी (दर्शन) (Indian Western Philosophy) Part 10 for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.

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उपकार किया है तो हमे उसके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।

हेनरी सिजविक- ~NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.: इंडियन (भारतीय) वेर्स्टन (पश्चिमी) फिलोसोपी (दर्शन) (Indian Western Philosophy) Part 10

  • मनोवैज्ञानिक सुखवाद को अस्वीकार कर दिया।
  • नैतिक सुखवाद को स्वीकार किया वैथम, मिल ने भी इसे सिद्ध करने के लिए अंत: प्रज्ञा का सहारा लिया।

सिजविक का उपयोगितावाद- हेनरी सिजविक का उपयोगितावाद बौद्धिक उपयोगितावाद तथा अंत: प्रज्ञात्मक उपयोगितावाद नामों से जाना जाता है। उन्होंने वेंथम और मिल के उपयोगितावाद की कमियां को दूर करने का प्रयास किया है।

अंत: प्रज्ञा के माध्यम से उपयोगितावाद की सिद्धी के लिए सिजविक ने निम्न तर्क दिए है-

  • अंत: प्रज्ञा से ही हम जानते है कि सुख एक मात्र स्वत: साहस शुभ है।
  • अंत: प्रज्ञा यह भी बताती है कि सभी व्यक्तियों के गुणों को समान महत्व दिया जाना चाहिए क्योंकि सभी मनुष्य मूलत: बराबर है, सिजविक के अनुसार केवल स्थिति में किसी व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों की तुलना में अधिक सुख देना सही होगा, अगर ऐसा करने से संपूर्ण सुख की मात्रा या तीव्रता बढ़ती हो, यही तर्क आगे चलकर समग्रवादी दार्शनिक जॉन हॉब्स ने भी दिया हैं।
  • अंत: प्रज्ञा के आधार पर व्यक्ति सुखो और सामाजिक सुखो का दव्न्दव् भी सुलझ जाता है, व्यक्ति को अपने आप से “विवेकपूर्ण आत्मप्रेम” जरूर करना चाहिए क्योंकि ऐसा करना अंत: प्रज्ञा से सुसंगम है इसके तहत उसे सिर्फ क्षणिक सुखो पर बल देने की बजाए बौद्धिक और स्थायी सुखों को स्थायी महत्व देना चाहिए।ऐसा विवेकपूर्णआत्मप्रेम परार्थवाद के विरुद्ध भी नहीं है क्योंकि विवेकशील व्यक्ति अगर दूसरो को अहित किए बिना अपने हित की साधना करता है तो वह सामाजिक सुखों में वृद्धि ही करता हैं।

प्रचलित नैतिकता और अंत: प्रज्ञा में भी गहरा संबंध है, प्रचलित नैतिकता के सिद्धांत किसी न किसी समय अंत: प्रज्ञा के आधार पर ही बताये गये थे इसलिए वे आमतौर पर सुसंगत होते है किन्तु अगर किसी बिन्दु पर प्रचलित नैतिकता और अंत: प्रज्ञा में विरोध हो जाए तो अंत प्रज्ञा को वरीयता दी जानी चाहिए क्योंकि हो सकता है कि पहले के नियम अब उपयोगीन रह गये हो (अंत: प्रज्ञा सिर्फ व्यक्ति के स्तर पर नहीं देखी जानी चाहिए। सामूहिक स्तर पर देखी जानी चाहिए)

आलोचना:-

  • अंत: प्रज्ञा का सिद्धांत, खुद ही असिद्ध है।
  • विभिन्न व्यक्तियों की अंत: प्रज्ञा हमेशा समान नहीं होती इससे नैतिकता आत्मनिष्ठ हो जाती हैं।
  • किसी विवादास्पद मुद्दे पर समाज की सदस्यों की अंत: प्रज्ञा में लगभग बराबर विरोध और समर्थन की स्थिति हो सकती हैं
  • अंत: प्रज्ञा वस्तुत: व्यक्ति का सुपरईगो (महा-अहंकार) ही होता है जो समाजीकरण से तय होता है, समाजीकरण विभिन्न समूहों में अलग- अलग तरीके से होता है अंत: प्रज्ञा रूढ़ीवाद को बढ़ावा दे सकती है।
  • अल्पसंख्यको के दमन की संभावना बनती है, क्योंकि अगर नैतिकता अधिनियम व्यक्तियों के अनुसार तय होगी तो उन्हें समुचित महत्व नहीं मिलेगा।

विशेषताएं-

  • सिजविक भी नैतिक सुखवाद के समर्थक है, वेथम और मिल की तरह वह मानते है कि सुख एक मात्र स्व: साहस शुभ है बाकि सभी शुभ जैसे सत्य, सौन्दर्य और सदवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू गुण सुख के साधन के रूप में शुभ है।
  • सिजविक मनोवैज्ञानिक सुखवाद में विश्वास नहीं करते इस बिन्दु पर वे वैथम और मिल से अलग है इस संदर्भ में उनके निम्न तर्क है-
  • वस्तुत: मनुष्य सुख की वही उन वस्तुओं की ईच्छा करता है जो सुसंगत देती है, भूखा आदमी रोटी चाहता है यह सुख नही है यह अलग बात है कि रोटी खाने के बाद उसे सुख मिलता है, सुख कारण नही परिणाम है, परिणाम को कारण की तरह समझने से ही यह तर्क दोष पैदा होता है
  • मनुष्य सभी कार्य सिर्फ सुख की इच्छा से नहीं करता कई कार्य कर्तव्य या परोपकार की भावना से प्रेरित होकर भी करता है।
  • सिजविक के सामने चुनौती यह है कि वे नैतिक सुखवाद को कैसे सिद्ध करे। वैंथम मिल ने मनोवैज्ञानिक सुखवाद को इसका आधार बनाया था सिजविक ने इसके लिए अंत: प्रज्ञा को आधार बनाया। अंत: प्रज्ञा वह मानसिक शक्ति है जिसमें व्यक्ति को किसी कर्म के औचित्य या अनौचित्य का साक्षात ज्ञान हो जाता है यह ज्ञान स्वत: सिद्ध होता है तथा इसे प्रमाणित करने के लिए किसी तर्क या युक्ति की आवश्यकता नहीं होती है।