इंडियन (भारतीय) वेर्स्टन (पश्चिमी) फिलोसोपी (दर्शन) (Indian Western Philosophy) Part 21 for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.

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भारतीय नीति मीमांसा-

  • स्वतंत्र विषय के रूप में इसे कभी नहीं देखा गया।
  • मेटा फिजीक्स (तत्त्वमीमांसा) के भाग के रूप में इसका विकास।
  • कोई पुस्तक नहीं इसकी।

भारतीय नीति मीमांसा

bharatiya niti mimansa ka parichay

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परिचय
लोकायत-लोगों में प्रसिद्धी के कारण

र्हरपत्य दर्शन ब्रहस्पति नाम व्यक्ति दव्ारा उत्पत्ति

जियॉलाजीमेटा फिजीक्स (तत्त्वमीमांसा)इथिक्स (आचार विचार) -वेद, सुख, उपनिषद, संयम
प्रत्यक्ष ज्ञानेन्द्रियों से मिलने वाला ज्ञानपरलोक का खंडन कियासुखवाद

चार्वाक 2 समूहों मेे है

स्वर्ग नहीं नरक नहीं आत्मा नही अमरता नही पुनर्जन्म नही

गीता से तुलना एक ईश्वर से विरोध।

धूर्त

मुख्य परंपरा

सुशिक्षित

कम गौण

चार्वाक-नीति मीमांसा-कामदेव एक पुरुषार्थ ″ मृत्यु के बाद कुछ नहीं है।

पुरुषार्थ विचार-

अर्थ-साधन रूप में उपयोग और जीवन में लक्ष्य नहीं।

धर्म-मानसिक रोग, ब्राहमणों का षड़यंत्र-बलि, थाट करना मरे घोड़े को घास खिलाने के बराबर है जब नीचे की मंजिल पर रखा हुआ भोजन ऊपर की मंजिल तक भी नहीं पहुँच पाता। स्वर्ग में कैसे पहुंचेगा।

मोक्ष- मोक्ष को खारिज किया (मृत्यु हमारे अस्त्वि का पूर्ण अंत है) मरण एवं अपनर्ग

गीता

geeta aur kant

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गीताकांट
कम कठोरता सहज मानवीय भावनाओं के लिए अवकाश बना हुआ है।कठोर बात है सहज वासनाओं का पूर्णदमन जरूरी।
नैतिकता में कुछ अपवादों को भी स्वीकार किया है। (सीमित में डी-ऑन्टीओलॉजी (धर्मशास्त्र) पर टेलीलॉजी भारी पड़ रही है) जैसे हिंसा नहीं करनी चाहिए किन्तु कर्तव्य के लिए जरूरी हो तो उसे स्वीकार किया जा सकता सकता है।डी ऑनटीओलॉजी चरम स्तर पर नैतिक नियमों में किसी अपवाद की स्वीकृति नहीं दी जाएगी।

मूल्यांकन:-

ढवस बसेेंत्रष्कमबपउंसष्झढसपझ आम तौर पर यह संभव नही है कि किसी कर्म के मूल में कोई कामना न हो तब भी अगर व्यक्ति सीमित मात्रा में भी इस आदर्श की उपलब्धि कर ले तो भावनात्मक स्तर पर अत्यधिक परिपक्व हो सकता है (ई. टी.) ।

  • स्थित प्रज्ञा होना पूर्णत: भले ही संभव न हो लेकिन वह ऐसा आदर्श जरूर है कि उसकी ओर जितना हो सके बढ़़ते रहना चाहिए, जीवन में सुखों और दुखो से बचना संभव नहीं है लेकिन उनके जीवन प्रभावों से नया सीखा जा सकता है और अपने मन को ऐसी संतुलित स्थिति में लाने का अर्थ, यही है कि स्थितप्रज्ञ की और बढ़ा जाए।
  • वर्ण व्यवस्था अब प्रासंगिक नहीं (स्वधर्म की धारणा)
  • पारलोकिक मोक्ष की धारणा प्रासंगिक नहीं।

गीता और कांट-समानता-

ढवस बसेेंत्रष्कमबपउंसष्झढसपझ फल की आशक्ति का विरोध (कर्तव्य, कर्तव्य के लिए) ।

  • मन और इंद्रियों का नियमन।
  • भौतिक सुखों की बजाए आधात्मिक सुखों पर बल।
  • दोनों संकल्प स्वातंत्र्य के समर्थक है। दोनों मानते है कि मनुष्य के फ्रीडम ऑफ विल (इच्छा-शक्ति की स्वतंत्रता) आचरण उसकी स्वतंत्र ईच्छा शक्ति के परिणाम अत: वह अपने कर्मो के लिए जिम्मेदार है।

अंतर

geeta aut kant

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गीताकांट
इथिक्स ईश्वर पर आधारित ईश्वर ने स्वयं इथिक्स (आचार विचार) का प्रतिपादन कियाईश्वर स्वयं नीतिशास्त्र पर निर्भर है कांट ने निश्चित अर्थों में ईश्वर का अस्तित्व नहीं माना है उसकी धारणा है निश्चित में नैतिक व्यवस्था चलाने के लिए ईश्वर के अस्तित्व में आस्था रखी जानी चाहिए।
कर्म फल की आकांक्षा के बिना करना है लेकिन फल मिलेगा, जसदू ने लिखा।फल मिलने की कोई गांरटी (विश्वास) नहीं

कर्म- गीता में कर्म की धारणा स्पष्ट करने के लिए स्वधर्म का उल्लेख है। इसका अर्थ वर्णानुसार कर्म से है अर्थात व्यक्ति को अपने वर्ण के अनुसार ही कर्म करना चाहिए, अर्जुन के क्षत्रिय को उदवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू बोधित करने की प्रक्रिया में कृष्ण ने स्वधर्म की धारणा पर बल दिया है, धातव्य है कि गीता में वर्ण धर्म को महत्व तो दिया गया है किन्तु वर्ण अनुसार विभाजन कार्यो को ऊँचा या नीचा नही माना गया है, साथ ही वर्णो का निर्धारण जन्म से नहीं कर्मो के अनुसार होता है।

गीता के 14वें अध्याय के 13वें श्लोक में कहा है कि विभिन्न वर्णों के अनुणयों का विभाजन उनके गुणों तथा कर्मो के अधार पर किया गया है। उनके जन्म के आधार पर नहीं।

स्थितप्रज्ञ-गीता के उपदेश में स्थितप्रज्ञ की धारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है निष्काम कर्म भोग का पालन करने वाला व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञ कहलाता है, इस कठिन मार्ग पर चलने की शर्त है कि व्यक्ति अपने मन तथा इंद्रियों को पूर्णत: संयमित कर ले और फल: आशक्ति को त्याग दे।

गीता के दूसरे अध्याय के 55वें, तथा 57वें श्लोकों में कृष्ण ने कहा है कि “जिस मनुष्य ने अपनी समस्त मनो कामनाओं को नियंत्रण में कर लिया है, जो लाभ-हानि, जय पराजय, तथा सुख दुख जैसी विरोधी स्थिति में समभाव रखता है अर्थात सुखी, दुखी नहीं होता और किसी के प्रति राग देश से युक्त रहता है वही स्थितप्रज्ञ है”

मोक्ष मार्ग- तीनों मार्ग उचत है, हालांकि ऐसा लगता है कि कर्म मार्ग केन्द्रीय में दिया गया है

गांधी और तिलक ने एक श्लोक के आधार पर दावा किया किया कि गीता कर्म भोगी को सर्वश्रेष्ठ बनाती है, यह श्लोक 4वें अध्याय का 12वें में है जिसका भाव है कि “निरन्तर अभ्यास से ज्ञान बेहतर है ज्ञान से भक्ति बेहतर है और भक्ति से बेहतर है कर्मों के फल की आकांक्षा मुक्ति”

इस श्लोक को दोहारते दे तो सामान्यत तह: यही भाव निकलता है कि प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार मार्ग का चयन करने के लिए स्वतंत्र है