महान सुधारक (Great Reformers – Part 1)

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महान नेताओं, प्रशासकों और सुधारकों जीवन और उपदेशों से मिलने वाली शिक्षाएं

इस टॉपिक विषय का संबंध सिविल सेवा मुख्य परीक्षा पाठ्‌यक्रम के प्रश्नपत्र-4 में उल्लिखित टॉपिक-5 से है। दृष्टि दव्ारा वर्गीकृत पाठयक्रम के 15 खंडों में से इसका संबंध भाग-13 से है।

स्साांर के महान नेताओं, प्रशासकों और सुधारकों ने अपने जीवन एवं उपदेशों से संसार एवं मानवता को नई राह दिखाई है। उनके प्रयास न केवल उनके समाज के लिए अपितु समस्त मानव जाति के उत्थान के लिए मील का प्रत्थर साबित हुए हैं। समय साक्षी है कि उनकी वाणियों की प्रासंगिकता और महत्ता अक्षुण्ण रही है। उनके कर्म और विचार मानवता को और अधिक ऊचाई की ओर ले जाने में सक्षम साबित हुए हैं। इन नेताओं, सुधारकों एवं प्रशासकों के प्रयास किसी धर्म, वर्ण जाति आदि के लिए नहीं होकर मानव मात्र के कल्याण के लिए समर्पित थे; इसलिए उन्हें किसी सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता है। इन महान लोगों के जीवन के सिद्धांतों को हम उनके व्यवहार में भी देख सकते हैं। इनके सिद्धांतों और आचरणों में भेद बताया नहीं जा सकता। जिस तरह के जीवन की आशा अपने अनुयायियों से करते थे, वैसा जीवन खुद भी जीते थे। इनके चरित्र व आचरण में भिन्नता नहीं मिलती है। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण नेताओं, सुधारकों का प्रशासकों का परिचय नीचे दिए गया है।

भारत के महान नेता

सर सैयद अहमद खांंँ

सर सैयद अहमद खांंँ का जन्म 17 अक्टूबर, 1817 को दिल्ली में हुआ था। उनके पिता तथा नाना मुगल दरबार संबंधित थे। 13 वर्ष की अवस्था में पिता की मृत्यु के बाद सैयद के परिवार को आर्थिक कठिनाइयों को सामना करना पड़ा। जिससे शीघ्र ही उन्हें आजीविका कमाने में लगना पड़ा। सर सैयद अहमद खांंँ ने 1830ई. में ईस्ट (पूर्वी) इंडिया (भारत) कंपनी (संघ) में क्लर्क (बाबू) के रूप में काम करना शुरू किया, तीन वर्ष बाद 1841 ई. में मैनपूरी में उप-न्यायाधीश बने और विभिन्न स्थानों पर न्यायायिक विभाग में काम किया। सर सैयद अहमद खांंँ को न्यायिक विभाग में कार्य करने की वजह से कई क्षेत्रों में सक्रिय होने का समय मिल सका।

23 वर्ष की आयु में धार्मिक पुस्कािएं लिखकर सर सैयद ने अपने उर्दू लेखन की शुरूआत की। उन्होंने धार्मिक एवं सांस्कृतिक विषयों पर काफी कुछ लिखा। वह 19वीं शताब्दी के अंत में भारतीय इस्लाम के पुनर्जागरण की प्रमुख प्रेरक शक्ति बने। उनकी कृतियों में पैगम्बर मुहमद के जीवन पर लेख और बाइबिल तथा कुरान पर टीकाएं सम्मिलित है। उन्होंने 1847 में एक मुसलमाननीय पुस्तक ज्ञातहर अल सनादीद (महान लोगों के स्मारक) प्रकाशित की, जो दिल्ली के पुराविशेषों पर आधारित थी।

धैर्य और सहनशीलता की मूर्ति सैयद अहमद खांंँं ने अपनी गंभीर सूझ-बूझ के आधार पर ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया की चिंता किए बिना, जनक्रांति के कारणों पर 1859 ई. में ′ असला-ए-बगावत-हिंद ′ शीर्षक में एक महत्वपूर्ण पुस्तिका लिखी और उसका अंग्रेजी अनुवाद ब्रिटिश पार्लियामेंट (संसद) को भेज दिया। 1857 की क्रांति के जोखिम भरे विषय पर कुछ लिखने वाले सर सैयद प्रथम भारतीय हैं। अपनी कृतियों में उन्होंने इस्लामी मत का समकालीन वैज्ञानिक तथा राजनीतिक प्रगतिशील विचारों से सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया।1864 ई. में सर सैयद अहमद खांंँ ने ′ वैज्ञानिक समाज ′ की स्थापना भी की तथा 1875 में अलीगढ़ मुस्लिम एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज (महाविद्यालय) ′ की स्थापना की।

सर सैयद की दूर दृष्टि अंग्रेजों के षड़यंत्र से अच्छी तरह से वाकिफ थी। उन्हें मालूम था अंग्रेजी हुकुमत हिन्दुतान पर स्थापित हो चुकी है और सर सैयद ने उन्हें हराने के लिए शैक्षिक मैदान को बेहतर समझा। इसलिए अपने बेहतरीन लेखों के माध्यम से कौम में शिक्षा व संस्कृति की भावना जगाने की कोशिश की। सैयद के जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार उसके व्यापकतम अर्थों में करना था। मुस्लिम समाज के सुधार के लिए प्रयासरत सर सैयद ने 1858 में मुरादाबाद में आधुनिक मदरसे की स्थापना की। यह उन शुरूआती धार्मिक स्कूलों (विद्यालय) में था जहां वैज्ञानिक शिक्षा दी जाती थी। उन्होंने 1863 में गाजीपुर में भी एक आधुनिक स्कूल की स्थापना की। उनका एक अन्य महत्वाकांक्षी कार्य था- ‘सांइटिफिकी (वैज्ञानिक) सोसाइटी’ (समाज) की स्थापना, जिसने कई शैक्षिक पुस्तकों का अनुवाद प्रकाशित किया और उर्दू तथा अंग्रेजी में दव्भाषी पत्रिका निकाली।

यह संस्था सभी नागरिकों के लिए थी और हिन्दू तथा मुस्लिम मिलकर इनका संचालन करते थे। उन्होंने इंग्लैंड को अपनी यात्रा (1869 - 70) के दौरान ‘मुस्लिम कैब्रिज’ जैसी महान शिक्षण संस्थाओं की योजना तैयार की। भारत लौटने पर उन्होंने इस उद्देश्य के लिए एक समिति बनाई और मुसलमानों के उत्थान और सुधार के लिये प्रभावशाली पत्रिका तहदीब-अल-अखलाक (सामाजिक सुधार) का प्रकाशन प्रारंभ किया।

सैयद ने 1886 में ऑल इंडिया मुहम्मडन एजुकेशनल कांन्फ्रेस का गठन किया, जिसके वार्षिक सम्मेलन मुसलमानों में शिक्षांं को बढ़ावा देने तथा उन्हें एक साझा मंच उपलब्ध कराने के लिए विभिन्न स्थानों पर आयोजित किए गए जाते हैं। 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना होने तक यह भारतीय इस्लाम का प्रमुख राष्ट्रीय केन्द्र था।

मई, 1875 में अलीगढ़ में ‘मदरसतुल उलूम’ नामक एक मुस्लिम स्कूल (विद्यालय) स्थापित किया और 1876 में सेवानिवृत्ति के बाद सैयद ने इस संस्था को कॉलेज (महाविद्यालय) में बदलने की बुनियाद रखी। सैयद की परियोजनाओं के प्रति रूढ़िवादी विरोध के बावजूद कॉलेज ने तेजी से प्रगति की और 1920 में इसे विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित किया गया।

भारतीय उपमहादव्ीप में मुसलमानों के पुर्नजागरण के प्रतीक सर सैयद अहमद खां का उद्देश्य मात्र अलीगढ़ में एक विश्विविद्यालय की स्थापना करना ही नहीं था, बल्कि उनकी हार्दिक कामना थी कि अलीगढ़ में उनके दव्ारा स्थापित शिक्षण संस्थान का प्रारूप ऐसे केन्द्र के रूप हो जिसके अधीन देश भर की मुस्लिम शिक्षण संस्थाएं उसके निर्देशन में आगे बढ़ें जिससे देश भर के मुसलमान आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर राष्ट्र निर्माण में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सकें। सर सैयद भारतीय मुसलमानों के ऐसे पहले समाज सुधारक थे जिन्होंने अज्ञानता की काली चादर की धज्जियां उड़कार मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक चेतना जागृत की।

सर सैयद के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के दव्ार सभी धर्माविलंबियों के लिए खुले हुए थे। पहले दिन से ही अरबी, फारसी भाषाओं के साथ-साथ संस्कृत भाषा की शिक्षा की भी व्यवस्था की गई। स्कूल के स्तर तक हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन को भी अपेक्षित समझा गया और उसके लिए पं. केदारनाथ अध्यापक नियुक्त हुए। स्कूल (विद्यालय) तथा कॉलेज (महाविद्यालय) दोनों ही स्तरों पर हिन्दू अध्यापकों की नियुक्ति में कोई संकोच नहीं किया गया। कॉलेज के गणित के प्रोफेसर (प्राध्यापक) जादव चन्द्र चक्रवर्ती की अखिल भारतीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई। सैयद मुसलमानों को सक्रिय राजनीति के बजाय शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह देते थे। बाद में जब कुछ मुसलमान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित हुए, तो सैयद ने इस संगठन और इसके उद्देश्य का जमकर विरोध किया जिनमें भारत में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना भी एक उद्देश्य था। उन्होंने दलील दी कि सांप्रदायिक तौर पर विभाजित और कुछ वर्गो के लिए सीमित शिक्षा तथा राजनीतिक संगठन वाले देश में संसदीय लोकतंत्र से केवल असमानता ही बढ़ेगी।

वे इंग्लैंड गये और वहां विश्वविद्यालयों में जाकर शिक्षा व संस्कृति का गहन अध्ययन किया। वहां सुधार के लिए प्रकाशित अंग्रेजी मैंगजीन (पत्रिका) ‘टैटलर’ और ‘गार्जियन’ (अभिभावक) की फाइलों (दस्तावेज) को देखकर वे बहुत ही प्रभावित हुए। वहीं से सर सैयद को अपनी कौम को जागरूक करने के लिए एक माध्यम मिल गया। जिसकी तलाश में वे सदा ही भटकते रहते थे। जब वे यूरोप से वापस आए तो उन्होंने 31 दिसंबर, 1870 की ‘तहजीबुल अख्लाक’ के नाम से मैंगजीन (पत्रिका) जारी किया, जिसमें मुसलमानों के कल्याण से संबंधित लेख छापे जाते थे।

सर सैयद ने कौम की खिदमत के साथ-साथ मातृभाषा (उर्दू) का दामन कभी नही छोड़ा। उन्हें पूरा विश्वास था कि जो सभ्यता उर्दू भाषा में पायी जाती है, वह किसी अन्य भाषा में नहीं है, लिहाजा इस भाषा को संवारने के उद्देश्य से उन्होंने उर्दू मैंगजीन छापने का फैसला किया, जिससे उर्दू भाषा को बढ़ावा मिला।

सेवा से अवकाश प्राप्त करने के बाद वह पूरी तरह से स्कूल के विकास और धार्मिक सुधार में लग गए। हालांकि इस दौरान इन्हें धार्मिक नेताओं के जोरदार विरोध का सामना करना पड़ा। लेकिन सर सैयद ने घुटने नहीं टेके और अपने काम में लगातार लगे रहे। इस दौरान उन्हें ब्रिटिश राज का समर्थन मिला। उनके कई विचारों को लेकर विवाद भी हुआ। उन्होने उर्दू को लोकप्रिय और मुस्लिमों की भाषा बनाने के लिए काफी प्रयास किया। उनकी देख-रेख में पश्चिमी कृतियों का उर्दू में अनुवाद कराया गया। इनके दव्ारा स्थापित स्कूलों में शिक्षा का माध्यम उर्दू को बनाया गया। सर सैयद ने सामाजिक सरोकारों के लिए भी काम किया और 1869 में पश्चिमोत्तर सीमित प्रांत में अकाल पीड़ितों को राहत पहुंचाने के लिए सक्रिय रूप से योगदान किया। इस महान शिक्षाविद और समाज सुधारक व्यक्तित्व की जीवनलीला 27 मार्च, 1898 को समाप्त हो गई।