Science and Technology: Space: The Launch Vehicle Technology

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अंतरिक्ष (Space)

प्रक्षेपणयान प्रौद्योगिकी (Launch Vehicle Technology)

उपग्रहों को उनकी कक्षा में स्थापित करने लिए रॉकेट अथवा उपग्रह प्रक्षेपण यान की आवश्यकता होती है। यह यान तेज गति से यात्रा करके पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के प्रभाव से बाहर निकल जाता है तथा पूर्व निर्धारित कक्षा में उपग्रह को स्थापित कर देता है। प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी में तकनीक का विकास मूलत: दो संदर्भों में देखा जाता है-

  • रॉकेट कितनी ऊँचाई तक जाने में सक्षम है।
  • रॉकेट कितने भारी उपग्रह को ढोने में सक्षम है।

इसी दृष्टि से भारत की उपग्रह प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी के विकास को कुछ चरणाेें के माध्यम से विश्लेषित किया जा सकता है।

उपग्रह के निर्माण की तरह उपग्रह का प्रक्षेपण भी एक कठिन और जटिल चुनौती है। आमतौर पर भारत को उपग्रह निर्माण में तो 80 के दशक से ही सफलता मिलनी शुरू हो गयी थी, किन्तु प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी का वास्तविक विकास पिछले दो दशक में ही दिखता है। कभी-कभी तो उपग्रह के निर्माण में आने वाले खर्च से अधिक राशि भारत को प्रक्षेपण के लिए विदेशी एजेन्सियों को देनी पड़ी है। ऐसी स्थिति में प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी का विकास न केवल विदेशी मुद्रा को बचाने के लिए आवश्यक है बल्कि इस तकनीक के विकास से विदेशी मुद्रा का अर्जन भी किया जा सकता है।

भारत के उपग्रह प्रक्षेपण यान विकास कार्यक्रम को चार चरणों में बांटा जा सकता है-

  • SLV
  • ASLV
  • PSLV
  • GSLV
  • प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी के विकास का कार्यक्रम 1979 में विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र के निर्देशन में आरंभ हुआ। इसके अंतर्गत 1979 से 1983 तक 4 बार SLV का प्रक्षेपण किया गया, जिनमें पहला प्रयोग विफल रहा किन्तु शेष प्रयोग अंशत: या पूर्णत: सफल रहे।
    • SLV का विकास दूरी और भारत क्षमता के दृष्टिकोण से तो महत्वपूर्ण नहीं था किन्तु इसने पहली बार प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी के भावी विकास की संभावनाओं को जन्म दिया। 1987 से 92 तक का समय प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी के विकास का काल है। इस दौर में ASLV के निर्माण के प्रयास किये गये। 1987 - 88 में ASLV-DI तथा ASLV-D2 के प्रक्षेपण के माध्यम से SROSS-1 & II को भेजा गया, किन्तु ये दोनों प्रयास असफल रहे।
  • 1992 में इस विकास यात्रा का एक अति महत्वपूर्ण चरण सामने आया, जब ASLV-D3 प्रक्षेपण यान के माध्यम से सफलतापूर्वक SROSS-III उपग्रह को प्रक्षेपित किया गया। इस रॉकेट का निर्माण विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र दव्ारा किया गया था। यह रॉकेट 10 कि. गा. के उपग्रह को 100 कि. मी. ऊँची कक्षा में स्थापित करने में सक्षम था। इस यान में 5 चरणों वाले रॉकेट का प्रयोग किया गया था, जो ठोस ईंधन से चलता था। इस प्रयोग की सफलता ने PSLV एवं GSLV के विकास के लिए महत्वपूर्ण संभावनाएँ पैदा की।
  • उपग्रह प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी के विकास का उच्च स्तर PSLV के साथ शुरू हुआ। इससे संबंधित प्रयोग 1993 से शुरू हए, जो वर्तमान समय तक किये जा रहे हैं। PSLV के प्रक्षेपण का पहला प्रयास 1993 में PSLV – DI के रूप में किया गया किन्तु चौथे चरण में खराबी आ जाने के कारण यह प्रयोग विफल हो गया। 1994 में PSLV – D2 का प्रक्षेपण किया गया जिसके दव्ारा भारतीय दूर संवेदी उपग्रह को सफलतापूर्वक धुवीय कक्षा में स्थापित किया गया।
    • PSLV चार चरणों का रॉकेट है जिसमें पहले और तीसरे चरण में ठोस प्रणोदक का इस्तेमाल किया जाता है तथा दूसरे व चौथे चरण में तरल प्रणोदक का। तरल प्रणोदक का लाभ यह होता है कि न केवल उसकी ज्वलन क्षमता बेहतर होती है बल्कि उसे किसी भी बिन्दु पर आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है। PSLV में 900 कि. मी. की ऊँचाई पर स्थित ध्रुवीय कक्षा तक 1000 कि. ग्रा. से अधिक वजन वाले उपग्रह को पहुँचाने की क्षमता निहित है।
    • PSLV श्रृंखला के अधिक उन्नत प्रक्षेपण यान PSLV – C2 दव्ारा 26 मई, 1999 को भारतीय दूरसंवेदी उपग्रह ओशनसैट -1 कोरियाई उपग्रह ‘किटसैट-3’ तथा जर्मन उपग्रह ‘टबसैट’ को सफलतापूर्वक 727 कि. मी. की ध्रुवीय सूर्य तुल्यकालिक कक्षा में स्थापित किया गयज्ञं
    • भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के अंतर्गत इसरों ने 22 अक्टूबर, 2001 को श्रीहरिकोटा प्रक्षेपण रेंज से PSLV – C3 के माध्यम से तीन उपग्रहों को सूर्य स्थैतिक ध्रुवीय कक्षा में सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया। इसरो के तत्कालीन अध्यक्ष के. कस्तुरीरंगन ने इस यान को ‘अंतरिक्ष में नया तारा’ नाम दिया। इस अभियान में PSLV – C3 ने भारत के 1108 कि. ग्रा. वजन के प्रौद्योगिकी परीक्षण उपग्रह (TES -Technology Experiments Satellite) के अतिरिक्त बेल्जियम के ‘प्रोब’ तथा जर्मनी के उपग्रह ‘बर्ड’ को उनकी निर्धारत कक्षाओं में सफलतापूर्वक स्थापित किया।
    • PSLV विश्व के सबसे किफायती प्रक्षेपण यानों में शामिल है तथा यह 1000 कि. ग्रा. से अधिक वजन वाले उपग्रहों को 1,000 कि. मी. ऊँची ध्रुवीय कक्षा में स्थापित करने में समर्थ है। यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी अमरीका, रूस, चीन और जापान के बाद भारत ही ऐसी क्षमता रखता है।
    • इसरो ने 12 सितंबर, 2002 को श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान PSLV – C4 के माध्यम से देश के पहले मौसम संबंधी विशिष्ट उपग्रह ‘मेटसैट’ को भू-स्थैतिक स्थानांतरण कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित किया। यह पहला मौका है जब किसी भारतीय यान ने 1000 कि. ग्रा. से अधिक भार के उपग्रह को भू-स्थैतिक कक्षा में स्थापित किया है। इससे पूर्व सभी उपग्रह केवल ध्रुवीय कक्षा में ही स्थापित किये गये हैं। यह पहला अवसर था, जब भारत ने मौसम संबंधी जानकारियाँ प्राप्त करने के लिए स्वदेशी प्रक्षेपण यान से विशेष मौसम उपग्रह को प्रक्षेपित किया। इससे पूर्व मौसम संबंधी जानकारियाँ इनसैट श्रेणी के उपग्रहों से प्राप्त की जाती थीं, जबकि उनको दूर-संचार सेवाओं और टेलीविजन प्रसारण संबंधी उद्देश्यों से छोड़ा गया था।
    • 10 जनवरी, 2007 को PSLV – C7 दव्ारा एक साथ चार उपग्रहों का प्रक्षेपण किया गया। इनमें भारत का 12 वां रिमोट र्सोसिंग सैटेलाइट कार्टोसेट-2, SRE-1, इंडोनेशिया का लपान-टुबसैट तथा अर्जेटीना का पेहुएनसैट-1 शामिल हैं।
    • 28 अप्रैल, 2008 को PSLV – C9 दव्ारा एक साथ दस उपग्रहों को प्रक्षेपित किया गया। इन दस उपग्रहों में दो भारतीय तथा आठ विदेशी नैनो उपग्रह थे। उपग्रहों की बड़ी संख्या को एक साथ कक्षा में स्थापित करने के दृष्टिकोण से भारत का स्थान रूस के बाद दूसरा है। इस ऐतिहासिक अभियान की सफलता से मल्टीपल पेलोड लॉन्च करने की इसरो की क्षमता सिद्ध हुई।
    • इसरो ने 20 अप्रैल, 2009 को श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवल अंतरिक्ष केन्द्र से PSLV – c12 दव्ारा दो उपग्रहों ′ रिसैट 2 (RISAT-2) एवं अनुसैट (ANUSAT) को सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित कियज्ञं
    • PSLV-C14 दव्ारा 23 सितंबर, 2009 को ओशनसैट-2 के साथ 6 विदेशी नैनो उपग्रह भेजे गयैं
    • 15 जुलाई, 2010 को PSLV – C15 दव्ारा कार्टोसैट-2बी के साथ 4 छोटे उपग्रह कक्षा में स्थापित किये गयैं
    • 20 अप्रैल, 2011 को PSLV – C16 के जरिए संसाधनों के अध्ययन के लिए बनाये गये उपग्रह रिसोर्ससैट-2 Resource Sat-2 का प्रक्षेपण किया गया। 1206 कि. ग्रा. वजन वाले इस स्वदेशी उपग्रह को पृथ्वी की ध्रुवीय कक्षा में 822 कि. मी. की ऊँचाई पर स्थापित किया गया। इसके साथ ही दो अन्य छोटे उपग्रह ‘यूथसैट’ Youth Sat व ‘एक्स सैट’ X Sat को भी ध्रुवीय कक्षा में स्थापित किया गया। इनमें 92 कि. ग्रा. वजन का यूथसैट जहाँ भारत व रूस का संयुक्त उपक्रम था, वहीं 106 कि. ग्रा. वजन वाला एक्ससैट सिंगापुर का उपग्रह था।
    • 15 जुलाई, 2011 को PSLV – C17 के जरिए संचार उपग्रह जीसैट-12 का सफल प्रक्षेपण किया गया। 1410 कि. ग्रा. वजन वाले जीसैट-12 को पृथ्वी की भू-समस्थानिक स्थानांतरण कक्षा (Geo-Synchronous Transfer Orbit) में स्थापित किया गया था। बाद में इसरो के हासन स्थित मास्टर कंट्रोल रूम से कमांड देकर इसे वृत्ताकार भू-समस्थानिक कक्षा में स्थानांतरित कर दिया गया।
    • यह दूसरा अवसर था, जब उपग्रह को भू-समस्थानिक कक्षा में स्थापित करने के लिए PSLV का इस्तेमाल किया गया। इससे पूर्व 2002 में मेटसैट (कल्पना-1) का प्रक्षेपण PSLV – C14 के जरिए किया गया था।
    • अक्टूबर 2011 में PSLV – C18 के जरिए एक साथ चार उपग्रह पृथ्वी की ध्रुवीय कक्षा में स्थापित किये गये। इसके दव्ारा प्रक्षेपित उपग्रहों में मौसम का अध्ययन करने वाले ‘मेघा ट्रॉपिक्स’ के अतिरिक्त तीन छोटे-छोटे उपग्रह शामिल थे। इनमें ‘मेघा ट्रॉपिक्स’ भारत व फ्रांस का संयुक्त उपक्रम था, जो भारतीय मानूसन के विस्तृत अध्ययन के साथ-साथ चक्रवात, बाढ़ व सूखे आदि के संबंध में अध्ययन में सहायक ळें
    • 26 अप्रैल, 2012 को आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से PSLV – C19 के जरिए दूर संवेदी उपग्रह रिसेट-1 का सफल प्रक्षेपण किया गया। भारतीय वैज्ञानिकों दव्ारा रिसेट-1 (रडार इमेजिंग सेटेलाइट) को पृथ्वी की सतह पर नजर रखने के लिए विकसित किया गया है। इसकी सहायता से प्राकृतिक आपदाओं के बारे में सही समय पर चेतावनी दी जा सकेगी, जंगल की आग के खतरों का पता लगाया जा सकेगा और कृषि कार्यो में मदद दी जा सकेगी। इनके अतिरिक्त इस उपग्रह से प्राप्त जानकारी का उपयोग राष्ट्रीय सुरक्षा को सुदृढ़ बनाने में भी किया जा सकेगा।
    • भारत के प्रक्षेपण यान कार्यक्रम का सबसे महत्वपूर्ण चरण GSLV (Geo-Stationary or Geo-Synchronous Satellite Launch Vehicle) कहलाता है। यह एक ऐसा रॉकेट है, जो 2500 कि. ग्रा. वजन वाले उपग्रह को भू-स्थैतिक कक्षा में स्थापित करता है। यह कक्षा पृथ्वी से 36000 कि. मी. की ऊँचाई पर अवस्थित है।

यह रॉकेट तीन चरणों का होता है, जो इस प्रकार है-

  • पहले चरण में ठोस प्रणोदक का प्रयोग किया जाता है। यह चरण PSLV के प्रथम चरण के समान है। इसमें प्रयुक्त होने वाला ईंधन HTBP है।
  • इसका दूसरा चरण PSLV के दूसरे चरण पर आधारित है। जिसमें UDMH⟋MMH जैसे तरल प्रणोदक का प्रयोग किया जाता है।
  • इसका तीसरा चरण सबसे महत्वपूर्ण और जटिल है। इसमें प्रयुक्त होने वाली तकनीक को क्रायोजेनिक तकनीक कहते हैं। क्रायोजेनिक इंजन का अर्थ है अतिनिम्न ताप पर काम करने वाला इंजन। यह इंजन उपग्रह को भू-स्थैतिक कक्षा तक पहुँचाता है और इसमें द्रव हाइड्रोजन तथा द्रव ऑक्सीजन जैसे ईंधनों का प्रयोग किया जाता है। द्रव के रूप में परिवर्तित करने के लिए हाइड्रोजन गैस को -2500c तथा ऑक्सीजन को -1860c के तापमान पर लाना होता है। इसके अतिरिक्त कार्य करते समय इस इंजन से इतनी अधिक तापीय ऊर्जा निकलती है कि इंजन के भीतर का तापमान 20000c के आसापास पहुँच जाता है। हाइड्रोजन के विस्फोट होने के कारण यह खतरा और अधिक बढ़ जाता है। ऐसे तापमान पर काम करने के लिए एक यौगिक का निर्माण किया गया है जिसे Cry mixer कहते हैं। तीसरी बात यह है कि अति तीव्र गति की जरूरत हाेेने के कारण इस इंजन को एक ऐसे थर्मों पंप की आवश्यकता है, जो 44000 RPM की गति से घूम सके, जबकि सामान्य रॉकेटों में प्रयुक्त होने वाला पंप 15000 RPM पर कार्य करता है।
    • इन्हीें तकनीकी जटिलताओं के कारण ही भारत इस तकनीक का विकास नहीं कर पा रहा था। इसलिए उसने रूस के साथ इस इंजन की आपूर्ति के लिए समझौता किया था। किन्तु अमरीका के दबाव के कारण यह समझौता रद्द हो गया। अमरीका का तर्क यह था कि यह एक दव्ैध प्रयुक्त तकनीक (Dual Use Technology) है अर्थात इसका प्रयोग उपग्रह प्रक्षेपण के साथ-साथ अंतरमहादव्ीपीय प्रक्षेपास्त्र निर्माण के लिए भी किया जा सकता है।
    • ऐसी स्थिति में भारत ने स्वयं इस तकनीक को विकसित करने का फैसला किया तथा इस कार्यक्रम का नाम C. U. S. P (Cryogeme Upper Stage Programme) रखा गया। बाद में बदली हुई परिस्थितियों में व इसरों के सार्थक प्रयास से रूस ने भारत को क्रायोजेनिक इंजन उपलब्ध कराये, परन्तु अमरीकी दबाव के चलते प्रौद्योगिकी हस्तांतरण से इंकार कर दिया गया।
    • भारत ने अपना क्रायोजेनिक अपर स्टेज कार्यक्रम विकसित करके 18 फरवरी, 2000 को परीक्षण भी कर दिया परन्तु परीक्षण असफल रहा। ‘क्रायोजेनिक इंजन’ का 9 फरवरी, 2002 को महेन्द्रगिरि स्थित ‘लिक्वड प्रोपल्शन सिस्टम्स सेंटर’ में सफल परीक्षण किया गया। जबकि अप्रैल 2010 एवं दिसंबर 2010 में किए गए जीएसएलवी के परीक्षण असफल रहे। GSLV के विकसित हो जाने के बाद भारत इस इंजन की मदद से अब 2500 कि. ग्रा. वजन के उपग्रह को पृथ्वी की सतह से 36000 कि. मी. की ऊँचाई तक भेज सकेगा। भारत के अलावा यू. एस. ए. रूस, जापान, चीन एवं यूरोप के पास अपना क्रायोजेनिक इंजन हैं। भारत ने अन्य देशों की तुलना में काफी कम समय में क्रायोजेनिक इंजन को विकसित कर लिया है। अब GSLV -मैक 3 नामक आधुनिकतम GSLV का विकास किया जा रहा है, जिससे 4 टन तक वजन वाले अंतरिक्ष यानों को कक्षा में भेजा जा सकेगा।