Science and Technology: Water Softener and Water Purification Methods

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दैनिक जीवन में विज्ञान (Science in Daily Life)

वाटर सॉफ्टनर (Water Softener)

  • सामान्य वाटर सॉफ्टनिंग एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके दव्ारा ठोस जल में उपस्थित कैल्सियम मैग्नीशियम एवं अन्य धात्विक धनावेशित (Cations) कण हटाए जाते हैं। इस प्रकार प्राप्त मृदु जल साबुन का झाग बनाने में सहायक होता है।
  • वाटर सॉफ्टनिंग करने वाले उपकरणें को वाटर सॉफ्टनर कहा जाता है।
  • जल को मृदु बनाने के लिए प्राय: आयन-विनिमय बहुलकों या रिवर्स ऑस्मोसिस प्रक्रिया का उपयोग किया जाता है।
  • आयन विनिमय विधि में मैग्नीशियम और कैल्सियम आयन (Mg2 + और Ca2 + ) को हटाकर जल की कठोरता दर की जाती है। इन आयनों के स्थान पर सोडियम या पोटेशियम आयन (Mg+ और K+ ) का उपयोग किया जाता है।
  • जल को मृदु बनाने के लिए लाइम सॉफ्टनिंग प्रक्रिया का भी उपयोग किया जाता है। इसके तहत चूना जल (Ca (OH)2) का उपयोग किया जाता है। यह CO2 के साथ कार्बोनेटेशन अभिक्रिया करके कैल्सियम कार्बोनेट निक्षेप बनाता है। तब यह बहुसंयोजी धनावेशित कण (Cation) से अभिक्रिया कर कार्बोनेट की कठोरता को समाप्त करता है। फिर ऋणावेशित कणों के (Amons) साथ अभिक्रिया कर गैर कार्बोनेट कठोरता को स्थानांतरित करता है। लाइम सॉफ्टनिंग का उपयोग जल से लौह कण मैग्नीज, रेडियम और आर्सेनिक को हटाने के लिए भी किया जाता है।
  • आजकल जल को मृदु बनाने के लिए नैनोफिल्ट्रेेशन या रिवर्स ऑस्मोसिस का भी उपयोग किया जाता है। इन प्रक्रियाओं में कैल्सियम और मैग्नीशियम आयनों के साथ-साथ अघुलनशीन अवयवों को भी हटाया जाता है।

जल शुद्धिकरण विधियाँ (Water Purification Methods)

जल शुद्धिकरण विधियाँ: प्रदूषित जल से अवांछित रसायनों, जैविक प्रदूषकों, गैसों को दूर करने की प्रक्रिया जल शुद्धिकरण कहलाती है। जल की अधिकांश मात्रा का शुद्धिकरण पेयजल के लिए किया जाता है। साथ ही चिकित्सा कार्य, औषध निर्माण, रासायनिक और औद्योगिक अनुप्रयोगों में भी शुद्ध जल का उपयोग वांछनीय होता है।

जल शुद्धिकरण के लिए अनेक विधियांँ प्रचलित हैं-

  • भौतिक प्रक्रिया-छानन (Filtration) अवसादन (Sedimentation) और आसवन (Distillation)
  • रासायनिक प्रक्रिया-उर्णन (Flocculation) और क्लोरीनेशन
  • विद्युत चुंबकीय विकिरण-पराबैंगनी प्रकाश

जल शुद्धिकरण की इन विधियों में वर्तमान में सर्वप्रचलित दो तकनीकी विधियों-रिवर्स ऑस्मोसिस और अल्ट्रावायलेट प्रक्रिया का उपयोग किया जा रहा है।

  • रिवर्स ऑस्मोसिस (RO) : जल में मिले 90 प्रतिशत से 99 प्रतिशत को समाप्त करने की आर्थिक रूप से अनुकूल विधि रिवर्स ऑस्मोसिस है। RO झिल्लियों की छिद्रयुक्त संरचना VF झिल्लियों की तुलना में अधिक चुस्त होती हैं। RO झिल्लियों से व्यावहारिक स्तर पर सभी जीवाणुओं और 300 डाल्टन से अधिक आण्विक भार वाले कार्बनिक पदार्थों को अलग किया जा सकता है। अधिकांश वाटर बोटलिंग संयंत्रों में इसी विधि का इस्तेमाल होता है।
  • जब दो भिन्न-भिन्न सांद्रण वाले विलयनों को अर्द्ध-पारगम्य झिल्ली से अलग किया जाता है तो प्राकृतिक स्तर पर ऑस्मोसिस प्रक्रिया संपन्न होती है।
  • जल शुद्धिकरण प्रणाली में ऑस्मोटिक दबाव की प्रतिक्रिया में सान्द्रित विलयन पर हाइड्रॉलिक दबाव दिया जाता है तथा इस सान्द्रित विलयन से शुद्ध जल अलग कर लिया जाता है। RO झिल्लियाँ अधिक प्रतिरोधक होती हैं अत: ये धीमी प्रवाह दर रखती हैं। एक निश्चित समय में पर्याप्त मात्रा के संग्रहण के लिए भंडारण टैंक की आवश्यकता होती है।
  • RO में आयन बहिष्करण प्रक्रिया भी निहित होती है। अर्द्ध पारगम्य RO झिल्ली से केवल विलायक गुजर सकता है जबकि लवण और शर्करा सहित सभी आयन और घुले हुए अणु रोक लिए जाते हैं। अर्द्ध पारगम्य झिल्ली आवेश प्रक्रिया के जरिए लवण आयनों को अवरोधित करता है। आवेश जितना ही अधिक होता है, इन आयनों का बहिष्करण भी उतना ही अधिक होता है। अत: झिल्ली के जरिए लगभग सभी मजबूत आयनीकृत बहुसंयोजक आयनों (Polyvalent Ions) को अवरोधित किया जाता है लेकिन सोडियम जैसे आयनीकृत क्षीण एकलसंयोजक आयनों का 95 प्रतिशत ही अवरोधित किया जाता है। जल से विभिन्न अशुद्धियों जैसे टोटल डिजाल्वड सोलिड (TSDs) , शंदलापन, एस्बेस्टस, सीसा और अन्य विषैले भारी धातुओं, रेडियम एवं अन्य डिजालंड ऑगेनिक को हटाने में RO अधिक प्रभावी होता है। इसके जरिए क्लोरीनयुक्त कीटनाशक भी हटाए जाते हैं।
  • पेयजल में रेडियोसक्रिय प्लूटोनियम या स्ट्रॉन्शियम जैसे तत्वों की उपस्थिति के विरुद्ध भी RO उपचार विधि अधिक कारगर सिद्ध हो रही है।
  • अल्ट्रावायलेट विघि: जल शुद्धिकरण की एक अन्य महत्वपूर्ण विधि अल्ट्रावायलेट है। अल्ट्रावायलेट विसंक्रमीकरण पराबैंगनी प्रकाश स्रोत का उपयोग करता है। इस प्रकाश स्रोत को एक पारदर्शी सुरक्षा आवरण से ढक दिया जाता है। इसे ऊँचे स्थान पर रखा जाता है ताकि फ्लो चैम्बर से जल प्रवाहित हो सके और इससे होते हुए पराबैंगनी किरणें गुजारी जाती हैं तथा अवशोषित की जाती है। जीवाणु और विषाणु जैसे प्रजनन सक्षम सूक्ष्मजीवों दव्ारा पराबैंगनी ऊर्जा अवशोषित किए जाने से इनका आनुवंशिक द्रव्य (DNA/RNA) पुनर्व्यवस्थित किया जाता है। इस प्रकार ये सूक्ष्मजीव प्रजनन क्षमता खो देते हैं तथा मृतपाय हो जाते हें। इससे किसी प्रकार के रोग का खतरा समाप्त हो जाता है।
  • पराबैंगनी किरणें ऊर्जा-दक्ष विद्युत चुंबकीय किरणें हैं। आसवन की भाँति पराबैंगनी किरणे भी बिना रसायन मिलाए जल को संक्रमण रहित कर देती हैं। इनके प्रभाव के कारण जल के स्वाद और गंध में कोई हानि नहीं पहुँचती। साथ ही जल में उपस्थित लाभकारी खनिज तत्व बने रहते हैं।

पराबैंगनी विसंक्रमण के लाभ-

  • क्लोरीन की तुलना में विषाणुओं के विरुद्ध अधिक प्रभावी
  • पर्यावरण मित्र उपकरण
  • किसी प्रकार के रासायनिक घटक की आवश्यकता नहीं, प्रक्रिया के बाद कोई उप-उत्पाद नहीं।
  • जल के स्वाद, गंध, पीएच, चालकता और रासायनिक रूप में कोई परिवर्तन नहीं।
  • स्वचलायमान।
  • सहज रख-रखाव।

ग्लासवेयर (Glassware)

  • कांच से निर्मित वैसी सामग्रियाँ जिनका उपयोग अलंकृत वस्तु (Ornaments) और बरतन बनाने में किया जाता है। ग्लासवेयर कहलाती हैं। प्रयोगशाला स्तर के ग्लासवेयर वैसे विधि उपकरण हैं जिनका निर्माण तो कांच से होता है लेकिन इनका उपयोग वैज्ञानिक अनुप्रयोगों और अन्य वैज्ञानिक कार्यों में किया जाता है।
  • प्रायोगिक स्तर के ग्लासवेयर उपकरणों में प्रमुख हैं- बीकर, फ्लास्क, जार, वाच ग्लास, ग्रेजुएटेड सिलेन्डर, ग्लास ट्‌यूब, ड्राइंग पिस्टल, डेसीकेटर्स।
  • किसी प्रकार के टूटन-फूटन को कम करने के लिए ग्लासवेयर पर परत चढ़ाया जाता है। प्रायोगिक स्तर के अधिकांश ग्लासवेयर का निर्माण बोरोसिलिकेट कांच से किया जाता है। चूँकि यह कांच ऊष्मा रोधक होता है अत: प्रायोगिक ग्लासवेयर के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।