Science and Technology: Tran Genesis and Biotechnology in Industry

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जैव प्रौद्योगिकी (Bio Technology)

पराजीनी तकनीक (Tran Genesis)

  • किसी ब्राह्य जीन को किसी जीव पौंधे अथवा जन्तु की आनुवांशिक संरचना में प्रत्यारोपित करने की तकनीक को ट्रांसजेनेसिस कहते हैं। ऐसे बाह्य जीन को ट्रांस जीन तथा इससे निर्मित प्रजाति को ट्रांसजेनिक प्रजाति अथवा पराजीनी प्रजाति कहते हैं। दूसरे शब्दों में ऐसी प्रजातियां जीन अभियांत्रिकी दव्ारा विकसित की जाती हैं। इस विधि में किसी एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में जीन का हस्तांतरण किया जाता है, जिसका उद्देश्य इच्छित अभिलक्षणों को अभिव्यक्त करना है। इस तकनीक के विकास ने पौधों और जन्तुओं की नई उच्च गुणवत्ता वाली प्रजातियों के विकास की संभावनाएं बढ़ा दी हैं। किसी प्रजाति के सभी जीन गुणसूत्र पर उपस्थित डी. एन. ए. के एक विशिष्ट भाग से नियंत्रित होते हैं जिसे प्रवर्तक अनुक्रम (Promoter Sequence) कहते हैंं। ट्रांस जीन के विकास के लिए मूल प्रवर्त अनुक्रम को परिवर्तित कर दिया जाता है। पौधो की ट्रांसजेनिक प्रजातियों के संदर्भ में वांछित जीन का प्रत्यारोपण कर पौधों की गुणवत्ता, उत्पादकता आदि में वृद्धि की जाती हैं कई प्रजातियों में रोगों का प्रतिरोध करने की क्षमता भी विकसित की जाती है। कृषि संबंधी महत्वपूर्ण गुण की पहचान तथा उसकी अवस्थिति का ज्ञान प्राप्त करने का कार्य ट्रांसजेनेसिस की प्रक्रिया में सबसे दुष्कर है।
  • एक बार जीन की पहचान हो जाने के बाद उसे प्रवर्तक अनुक्रम के साथ ही प्रत्योरापित कर दिया जाता हैं। प्रयोगों से यह देखा गया है कि सबसे सामान्य प्रवर्तक अनुक्रम सी. ए. एम. व्ही. -35 एस (CaMV 35S-Cauliflower Mosaic Virus) है। पौधों में उच्च स्तरीय अभिव्यक्ति के लिए क्लोन किये गये जीन का उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त, चयनित अंकक जीन (Selectable Marker Gene) को निर्मित जीन के साथ जोड़ा जाता है ताकि पौधों की कोशिकाएं अथवा उत्तकों की पहचान की जा सके, जो सफलतापूर्वक ट्रांसजीन के साथ मिल गई हों। चयनित अंकक जीन प्रोटीन का संकेत निर्धारत करते हैं, जो पौधों के लिए विषैले अभिकर्ताओं का प्रतिरोध करते हैं। इन अभिकर्ताओं में शाकनाक (Herbicides) तथा प्रतिजैविकी (Antibiotics) प्रमुख हैं। प्रत्योरोपित डी. एन. ए. के अस्तित्व के कारण कोशिका तथा जीव में होने वाला परिवर्तन आनुवांशिक होता है। पौधों का रूपातंरण निम्नलिखित किन्हीं दो विधियों से संभव होता है:
    • बायोलिस्टिक प्रक्रिया अथवा जीन गन विधि
    • ऐग्रो बैक्टीरियम विधि

बायोलिस्टिक प्रक्रिया में सूक्ष्म अन्त: क्षेपण (Micro-injection) का प्रयोग किया जाता है जिसके दव्ारा वांछित जीन का प्रत्यारोपण होता है। दूसरी ओर, एक ही स्थान पर जीन का प्रत्यारोपण ऐग्रो बैक्टीरियम विधि से संभव होता है। अत: यह बायोलिस्टिक विधि से अपेक्षाकृत अधिक कार्यक्षेम है। ट्रांसजेनिक पशुओं के संबंध में अच्छी नस्ल विकसित करने के लिए निम्नांकित प्रयास किये जाते हैं:-

  • ब्राह्य जीनकी पहचान तथा बनावट।
  • डी. एन. ए. का निषेचित अंडे में सूक्ष्म अंत: क्षेपण।
  • इन कोशिकाओं का माता के शरीर में प्रत्यारोपण।
  • भ्रूण का विकास।
  • जीन की नियमित अभिव्यक्ति का प्रदर्शन

वैज्ञानिक अनुसंधानों से यह स्पष्ट हो गया है कि ट्रांसजेनिक तकनीक पर्यावरण मित्र है तथा इससे उन्नत किस्म की प्रजातियां विकसित कर उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है। जहां तक पौध प्रजातियों का प्रश्न है, बीटी कपास, बीटी गोभी, जीएम सरसों जैसी नस्लों का विकास किया जा चुका है। इसी प्रकार, कई ट्रांसजेनिक जन्तुओं की प्रजातियांँ भी विकसित कर ली गई हैं। इनमें रीसस बंदर की प्रजाति एंडी (ANDI, Inserted DNA spelt backwards) महत्वपूर्ण है।

उद्योग में जैव प्रौद्योगिकी (Biotechnology in Industry)

  • जैव प्रौद्योगिकी बाजार में 500 - 600 मिलियन डालर से भी अधिक का निवेश किया गया है। आगामी दो से तीन वर्षों में इस व्यापार के लगभग दस गुणा होने की आशा है। हांलाकि भारत का योगदान इस क्षेत्र में अभी 1 प्रतिशत है। सभी क्षेत्रों में से स्वास्थ्य जैव प्रौद्योगिकी सबसे महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है। परन्तु खाद्यान्न और पेय उद्योग में भी इसने अप्रत्याशित सफलता अर्जित की है। विगत वर्षों में कम मीठे तथा शर्करा रहित पदार्थों की मांग में वृद्धि हुई है, जिसने जैव प्रौद्योगिकी के इस क्षेत्र का विस्तार कर दिया है। उल्लेखनीय है कि जैव तकनीकों का प्रयोग कर एक कैलोरी की कम मात्रा वाले मीठे पदार्थ एस्पार्टेम (Aspartame) का निर्माण किया गया है। इसी प्रकार, थॉमेटोकोकस डेनिएलि (Thau-matococcus danielli) नामक पौध से थॉमेटिन (Thaumtin) नामक पदार्थ बनाया गया है, जिसे अब तक निर्मित ऐसे सभी पदार्थों में सबसे मीठा कहा गया है।
  • स्वास्थ्य उद्योग में टीकों के निर्माण की दृष्टि से जैव तकनीकों का प्रयोग अत्यंत कारगर सिद्ध हुआ है। भारत ने यकृत शोथ बी (Hepatitis B) के टीके बायोवैक तथा शैनवैक का भी निर्माण किया है। इसके अतिरिक्त, हॉल्ट नामक एक जैवकीटनाशक का निर्माण भी इस तकनीक दव्ारा किया गया है। भारत के जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने इस क्षेत्र में अब तक लगभग 1000 करोड़ रूपए का निवेश किया हैं तथा 2 करोड़ रुपए की लागत वाली भारतीय जीनोम परियोजना का आरंभ भी किया गया है।
  • हाल ही में भारतीय उद्योग महासंघ ने कनाडा के जैव प्रौद्योगिकी उद्योग संगठन के साथ एक समझौता किया है। जिसका मूल उद्देश्य भारतीय जैव तकनीकों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और सुदृढ़ बनाना है ताकि साझेदारी और निवेश के अतिरिक्त अवसरों का सृजन किया जा सके।

आनुवांशिक रूप से रूपांतरित फसलें (Genetically Modified Crops)

बंगलौर-स्थित भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (Indian National Science Academy, INSA) दव्ारा हाल ही में दी गई एक रिपोर्ट के अनुसार, आनुवांशिक रूप से रूपांतरित फसलों के संदर्भ में नीचे लिखे गये आयामों पर विशेष बल दिया है:

  • आनुवांशिक रूपातंरण की सहायता से उपज बढ़ाने के लिए तकनीकों का प्रयोग।
  • कीटों, जैविक तथा अजैविक दबाव के विरूद्ध कई प्रकार के पदार्थों का निर्माण।
  • सीमावर्ती भूमि के प्रयोग में वृद्धि, पर्यावरण संबंधी प्रभाव की न्यूनता।
  • पर्याप्त खाद्य पदार्थ की उपलब्धता के लिए जागरूकता में वृद्धि।
  • सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के मध्य साझेदारी हेतु अनुसंधान संस्थानों को प्रोत्साहन।
  • ट्रांसजेनिक पौधे तथा पशुओं का मूल्यांकन करने के साधनों का विकास।
    • जहां तक भारत का प्रश्न है, हाल के वर्षों में कमोबेश संपूर्ण देश में जीन क्रांति का वर्चस्व है। वैज्ञानिकों दव्ारा आनुवांशिक रूप से प्रवर्द्धित प्रजातियों के विकास के लिए गहन अनुसंधान कार्य किये जा रहे हैं। इस क्षेत्र में अत्याधुनिक विकास के रूप में बीटी कपास प्रजाति विकसित की गई हैं। सन्‌ 1929 में बैसिल्स थिरूजिएन्सिस नामक जीवाणु की खोज दक्षिण पूर्वी जर्मनी में थिरून्जिया नामक स्थान की मृदा में की गई थी। वैज्ञानिक प्रयोगों से यह स्पष्ट हुआ है कि जीवाणु की आनुवांशिक संरचना में पाये जाने वाले जीन पशुओं के पाचन तंत्र को प्रभावित नहीं करता हैं, लेकिन इसके विपरीत ये जीन कीटों के लिए अत्यंत हानिकारक हैं। इस कारण बीटी कपास के विकास को प्राथमिकता प्रदान की गई।
    • बी. टी. (बेसिलस थूरिजिएन्सिम-Bt) मृदा में पाया जाने वाला एक ग्राम निगेटिव जीवाणु है। इसमें पाया जाने वाले विशेष जीन (CryIAC) को यदि किसी पादप प्रजाति में प्रवेश करा दिया जाए तो वह एक विष उत्पन्न करता है जो पौधों के लिए हानिकारक कीटों को रोकता है परिणामस्वरूप फसल उत्पादन में वृद्धि होती है।

बी. टी. कॉटन (Bt Cotton)

  • कपास की परंपरागत फसल में बॉल कृमि नामक कीड़ा लग जाता है। यह कृमि पत्तियों से अपना पोषण प्राप्त करता है, जिससे फसल उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
  • कपास की परंपरागत प्रजाति में बेसिलस थूरिजिएन्सिस नामक जीवाणु के एक जीन (CryIAC) को जीन अभियांत्रिकी के दव्ारा प्रवेश करा कर कपास की एक नई प्रजाति का विकास किया गया है, जिसे बी. टी. कॉटन की संज्ञा दी गई है। यह फसल बॉल कृत्रिम के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त कर लेती है। इस कारण जब बॉल कृमि ऐसी फसल को खाता है तो विष के प्रभाव से स्वयं नष्ट हो जाता है परिणामस्वरूप फसल उत्पादन में वृद्धि दर्ज की जाती है।

बी. टी. बैंगन (Bt. Brinjal)

  • बी. टी. कॉटन के ही समान बी. टी. बैंगन भी जीन अभियांत्रिकी दव्ारा निर्मित फसल है जिसमें बी. टी. कॉटन के ही समान तकनीक प्रयुक्त होती है। इस फसल ने बैंगन में लेपिडोप्टेरॉन कीटों जैसे ब्रिंजलफ्रूट, शूट बोटर (Leucinodes Orbonalis) एवं क्रूट बोटर (Helicoverpa Arrmigera) के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है जब बैंगन पर पलने वाले उक्त कीड़े बैंगन को खाते हैं तो इन कीड़ों में विष के प्रभाव से पाचन क्रिया नष्ट हो जाती है, जिससे फसल की रक्षा होती है। भारत में बी. टी. बैंगन की खेती को GEAC ने अक्टूबर, 2009 में अनुमति दी थी। परन्तु विरोध होने पर फरवरी, 2010 में केन्द्र सरकार ने इस पर रोग लगा दी है।
  • ट्रांसजेनिक प्रजातियों तथा आनुवांशिक रूप से परिवर्द्धित पौधों के विकास का कार्य सदैव विवादास्पद रहा है। मुख्य रूप से इसके तीन कारण हैं। प्रथम, फसलों की ऐसी प्रजातियांँ अन्य फसलों को आनुवांशिक रूप से कुप्रभावित कर सकती है, दव्तीय, जो जीन आरंभिक चरणों में कीटो का विनाश करते हैं, वे कीटों की उत्परिवर्तित प्रजातियों के विकास में सहायक सिद्ध हो सकते हैं, तथा तृतीय, आनुवांशिक रूप से प्रवर्द्धित फसलों की प्रजातियों को भोज्य पदार्थों के रूप में उपयोग करने से मानव में एलर्जी जैसे प्रभाव उत्पन्न हो सकते हैं। इन विवादों पर अधिकांश वैज्ञानिकों ने विचार व्यक्त करते हुए यह स्पष्ट किया है कि इन प्रजातियों से उतनी हानि नहीं है जितनी आशंका व्यक्त की गई है।
  • भारत सरकार दव्ारा गठित जीन अभियांत्रिकी स्वीकृति समिति (Genetic Engineering Approval Committee, GEAC) ने बीटी प्रजातियों के उत्पादन के संबंध में विशिष्ट मार्गदर्शन दिया है। समिति के अनुसार, भारत के अधिकांश किसानों को जीन अभियांत्रिकी दव्ारा विकसित प्रजातियों का पर्याप्त ज्ञान नहीं है। इस कारण समिति ने छोटे किसानों दव्ारा बीटी कपास के उत्पादन को स्वीकृति प्रदान नहीं की है। तकनीकी दृष्टिकोण से यह आशंका व्यक्त की गई है कि भारत की जलवायवीय तथा कृषि-संबंधी परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में बीटी कपास प्रजाति के सफल होने की संभावना नहीं है। इन प्रजातियों का प्रतिरोध करने के लिए कीटों में प्रतिरोधक क्षमता का शीघ्र विकास होने की भी आशंका है। इस संबंध में मॉनसैन्टो (Monsanto) नामक कंपनी, जिसने बीटी कपास तकनीक का विकास किया था, ने यह स्पष्ट निर्देश दिये हैं कि किसानों को अपने कुल उत्पादन क्षेत्र के 20 प्रतिशत भाग को गैर-बीटी कपास के उत्पादन हेतु सुरक्षित रखना चाहिए।