व्यक्तित्व एवं विचार (Personality and Thought) Part 34 for NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.

Get unlimited access to the best preparation resource for CTET-Hindi/Paper-2 : get questions, notes, tests, video lectures and more- for all subjects of CTET-Hindi/Paper-2.

मुहम्मद अली जिन्ना ~NET, IAS, State-SET (KSET, WBSET, MPSET, etc.), GATE, CUET, Olympiads etc.: व्यक्तित्व एवं विचार (Personality and Thought) Part 34

मुहम्मद अली जिन्ना भारत के एक प्रमुख राजनेता थे। 1947 में देश के विभाजन के बाद वे पाकिस्तान के पहले गवर्नर (राज्यपाल) जनरल बने। उनका जन्म 1876 में बंबई के एक खोजा परिवार में हुआ था। संभ्रांत परिवार में जन्म लेने के कारण उनकी परवरिश एक अच्छे माहौल में हुई तथा उन्होंने विदेशों में शिक्षा प्राप्त की। वे उच्च कोटि के शिक्षाविदवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू एवं न्यायविदवित रुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्र्‌ुरुक्ष्म्ग्।डऋछ।डम्दव्रुरू थे। उन्होंने कुछ समय तक बंबई हाई (उच्च) कोर्ट (न्यायालय) ने वकालत भी की। पर राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।

जिन्ना और कांग्रेस

जिन्ना की आरंभिक राजनीति कांग्रेस के साथ शुरू हुई। वे गोखले के सचिव के रूप में राजनीति में शामिल हुए। उन पर गोखले का गहरा प्रभाव था। जिन्ना ने मुस्लिम लीग की स्थापना को सांप्रदायिक निर्णय बताया एवं पृथक निर्वाचक मंडल के प्रति असहमति प्रकट की। वे ऐसे प्रखर मुस्लिम नेता थे जिन्होंने लीग और कांग्रेस को साथ लाने में मुख्य भूमिका निभाई। 1916 में कांग्रेस लीग समझौते में उनकी मुख्य भूमिका थी। उन्हीं के प्रयास से लीग ने स्वराज के लिए संघर्ष को अपना मुख्य मुद्दा बनाया। 1916 से 1924 तक कांग्रेस एवं लीग में एकता बनी रही। पर 1922 में असहयोग आंदोलन के वापस लिए जाने, खिलाफत का मुद्दा समाप्त हो जाने एवं समाजवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण लीग और कांग्रेस के बीच दूरी बढ़ने लगी। इस दौर में जिन्ना का झुकाव भी मुस्लिम हितों के प्रति बढ़ा।

मुस्लिम हितों के प्रति झुकाव

जिन्ना ने 1928 में प्रस्तुत नेहरू रिपोर्ट (विवरण) को अस्वीकार कर दिया एवं खुलकर मुसलमानों के हितों की बात की। इसके लिए उन्होंने कांग्रेस के सामने अपनी 14 सूत्री मांग प्रस्तुत की। कांग्रेस ने इस मांग को अस्वीकार कर दिया क्योंकि वह हिन्दू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग व्यवस्था नहीं चाहती थी। अब कांग्रेस एवं जिन्ना के रास्ते अलग-अलग हो गए। जिन्ना ने कांग्रेस के सम्मेलनों का बहिष्कार किया। अब वे खुलकर मुस्लिम हितों की बात करने लगे। परिस्थिति की नजाकत को समझकर अंग्रेजी सरकार ने जिन्ना को हर संभव प्रोत्साहन दिया। 1930 में आयोजित प्रथम गोलमेज सम्मेलन का कांग्रेस ने बहिष्कार किया, लेकिन जिन्ना लीग के प्रतिनिधि के रूप में इसमें शामिल हुए। इस प्रकार कांग्रेस के साथ जिन्ना की दूरी बढ़ती गई।

पाकिस्तान की मांग

1931 में इकबाल ने सर्वप्रथम मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र की मांग की। इसे पाकिस्तान नाम दिया गया। लीग की राजनीति के लिए यह अमृत वाण था। लीग ने इस मांग को अपना लिया। 1940 में लीग के अधिवेशन में खुले तौर पर दव्-राष्ट्र की मांग की गई।

जिन्ना की राजनीतिक महत्वाकांक्षा

1937 के चुनाव में लीग को करारी हार का सामना करना पड़ा। इसके कारण जिन्ना की राजनीतिक हैसियत कमजोर पड़ने लगी। उनके सामने दो ही विकल्प थे- या तो राजनीतिक छोड़कर वकालत के पेशे में वापस लौटना या आक्रमक सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देना। जिन्ना ने इस दूसरे रास्ते को चुना। उन्होंने अब सांप्रदायिकता का खुलकर पक्ष लिया। इसी समय उन्होंने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में जनसंपर्क अभियान चलाया। बंगाल एवं उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में हिंसक दंगे हुए। इसमें कहीं न कहीं लीग की सक्रियता भी सामने आई। इन सब का परिणाम 1946 के चुनावों में देखने को मिला, जब लीग को मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में व्यापक जन समर्थन मिला। वास्तव में लीग और जिन्ना का बढ़ता प्रभाव मुस्लिम समुदाय में कांग्रेस के सिमटते प्रभाव का ही परिणाम था।

जिन्ना और देश का विभाजन

1946 के चुनाव परिणाम इस बात के स्पष्ट संकेत थे कि कांग्रेस समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने एवं उन्हें एक राष्ट्र के रूप में ढ़ालने में असफल रही है। यहांँ तक कि जिन्ना जैसे पूर्व कांग्रेसी एवं उदार नेता को भी विश्वास में लेने में वह असफल रही। लीग के अंतरिम सरकार में शामिल होने से भी समस्या का हल नही निकाला जा सका। कांग्रेस और लीग एक ही सरकार के हिस्से बनकर काम करने को तैयार नहीं थे। गांधी की इस मांग को कि जिन्ना को प्रधानमंत्री बना दिया जाए, कांग्रेस ने अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार वास्तविक समस्या सत्ता के बंटवारे को लेकर पैदा हुई। ऊपर से प्रांतों में होने वाले सांप्रदायिक दंगों ने माहौल को और भी बिगाड़ रखा था। अंग्रेजों के लिए भी यह बेहतर मौका था कि भारत छोड़ने से पहले उसे राजनीतिक रूप से जितना संभव हो कमजोर कर दिया जाए।

विभाजन का सच

कांग्रेस और लीग की राजनीतिक महत्वाकांक्षाए अपनी जगह थी, पर पर्दे के पीछे वास्तविक खेल ब्रिटिश सरकार खेल रही थी। उपनिवेशों से अपने साम्राज्य समटते समय उन्हें राजनीतिक रूप से कमजोर करने की साजिश उनकी सोची-समझी राजनीति का हिस्सा था। ऐसा उन्होंने भारत में ही नहीं कई राष्ट्रों में किया था।

पाकिस्तान की मशहूर इतिहासकार आयशा जलाल कहती हैं- जिन्ना मुस्लिम लीग को एक बारगेनिंग (सौदेबाजी) काउंटर (पटल/गणक) के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे ताकि मुसलमानों के लिए अधिक से अधिक लाभ और सुविधाएं प्राप्त की जा सके। वे देश का विभाजन नहीं चाहते थे और धार्मिक आधार पर तो कदापि नहीं, यही कारण है कि पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल बनने के बाद उन्होंने पाकिस्तान को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया।